(भोर शब्द का प्रयोग तड़के सुबह के संदर्भ में है. भोर यानी अंधेरा है, पर दूर क्षितिज में उजास के संकेत भी)
अखबारों की खबरें, अगर सही हैं, तो बिहार की राजनीति में एक नयी संभावना की आहट है. बिहार से अधिक, भारत की दुर्गंध देती राजनीति के समानांतर, बिहार से ही पूरे मुल्क के लिए एक उम्मीद भरी सुबह की शुरुआत की तैयार पृष्ठभूमि के संकेत. बिहार, जो पूरे देश में व्यंग्य, हास्य और कटु बातों का पर्याय था, वही देश की राजनीति में ‘मानक’ बनने की उम्मीद जगा रहा है. अगर यह हो गया, तो यह मुहावरा नये सिरे से लिखा जायेगा, कि बंगाल, जो आज सोचता है, देश कल. हालांकि अंगरेजों के जमाने का यह कथन, बहुत पहले अपना रेलिवेंस (प्रासंगिकता) खो चुका है. एक नयी शुरुआत के संकेत कहां से है?
इन खबरों में!
(1) बंद हो सकता है, एमएलए फंड?
(2) भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग.
(3) लोक सेवा पाने का हक.
(4) सासंद-विधायक देंगे संपत्ति का ब्योरा.
एमपी या एमएलए फंड, भारतीय राजनीति की एक गंभीर बीमारी (भ्रष्टाचार का कैंसर) का सबसे दागदार प्रतीक है. देश में कहीं चले जाइए, जनता की लोक मान्यता है कि खांटी ईमानदार भी घर बैठे-बैठे 20 फीसदी, इस कोष से पाते हैं. यह गलत है. आज भी यह संवाददाता, अनेक ईमानदार राजनेताओं की सूचना रखता है, जो इस फंड से एक धेला भी नहीं छूते. हालांकि ऐसे लोग अब राजनीति में अपवाद हैं. पर मार्केटिंग के इस दौर में माना जाता है कि ‘परसेप्शन इज रियलिटी’ (बोध या धारणा ही सच है).
यह मान लिया गया है कि एमपी-एमएलए फंड, भ्रष्टाचार की संस्कृति का स्रोत है. याद करिए, इसकी शुरुआत? पूत के पांव पालने में ही पहचाने जाते हैं? नरसिंह राव की सरकार को लोकसभा में बहुमत सिद्ध करना था.
1991-1996 का दौर. पहली बार तब सांसद घूस कांड हुआ. सरकार बचाने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त की पहली घटना, भारतीय लोकतंत्र में.उसी सरकार के मौलिक चिंतन या सांसदों को खुश रखने की योजना से ही इसकी शुरूआत. आज झारखंड में एक विधायक तीन करोड़ तक खर्च कर सकता है. विधायक फंड से. पहले दो करोड़ था, मधु कोड़ा कार्यकाल में एक करोड़ और बढ़ा. झारखंड की राजनीति के स्तर बताने की जरूरत नहीं. इस सांसद-विधायक फंड ने, राजनीति के सतीत्व (ईमानदारी) पर सवाल उठा दिया है? इसने पवित्र और धवल राजनीति के चादर पर सबसे गहरा दाग छोड़ा है. इसे नकारते सभी हैं. कुछ ही दिनों पहले लालू जी ने भी कहा था कि एमएलए फंड से अब कार्यकर्ता नहीं, ठेकेदार उपजते हैं.
पिछले 15 वर्षों में केंद्र से लेकर अनेक राज्यों के ईमानदार राजनेता (सभी दलों के) इसे कोसते रहे हैं. ठेठ बनारसी लफ्ज में कहें, तो इसे कबाहट (सिरदर्द देनेवाली चीज) मानते रहे हैं, पर कोई साहस नहीं कर सका, इसे हटाने या इसके स्वरूप को बदलने के लिए? बिहार की राजनीति में इसे हटाने यह इसके स्वरूप को बदलने की सुगबुगाहट है, यह उम्मीद पैदा करनेवाला कदम होगा. इस अर्थ में बिहार की राजनीति, देश को राह दिखायेगी. जो राजनीति व्यवसाय-धंधा का प्रतीक बन गयी है, उसकी साख लौटाने का यह प्रस्थान (मानक) बिंदु होगा.
अंतत: राजनीति ही देश या समाज को शिखर पर पहुंचा सकती है, कोई और विधा नहीं. उस राजनीति का चीरहरण करने में इस ‘फंड योजना’ की कारगर भूमिका रही है. इससे दलों में कार्यकर्ताओं का पनपना-जनमना बंद हो गया. ठेकेदार बननेवालों की स्पर्द्धा शुरू हो गयी. बिचौलिये या ठेकेदार, नयी राजनीतिक संस्कृति के जन्मदाता हो गये. ठेकेदार नाराज, तो ईमानदार राजनेता के भविष्य पर प्रश्न चिह्न लगने लगा? यह योजना लांछन की प्रतीक बन गयी. इस लांछन से मुक्ति की पहल, बिहार से हो, तो एहसास करिए देश की मौजूदा राजनीति पर इसका क्या दबाव होगा?
मनोवैज्ञानिक, नैतिक और मुद्दे की गंभीरता को लेकर. बिहार ने इसे खत्म करने की पहल की, तो पूरे देश की राजनीति में यह निर्णायक सवाल बनेगा. कारण जनता में भ्रष्टाचार के खिलाफ आग है. विस्फोटक आक्रोश है. नहीं समझ आये, तो गैर राजनीतिक बाबा रामदेव की सभाओं की भीड़ जाकर देखें. उसके मूड को परखें. इस मुद्दे पर जनता एक तरफ, नेता दूसरी तरफ. बिहार प्रो-पीपुल कदम उठा कर, देश के सभी दलों को, पूरी राजनीति के मौजूदा व्याकरण को बदलने की पृष्ठभूमि तैयार कर देगा. यह कदम उठानेवाले बिहार के सभी विधायक, बिहार समेत अपने लिए यश और कीर्ति का नया अध्याय लिखेंगे. राजनीति के इतिहास में बिहार स्मरण किया जायेगा.
भ्रष्टाचार के खिलाफ मोरचा खोलने का सरकारी निर्णय भी दूरगामी असर पैदा करनेवाला है. पिछले कुछेक महीनों से एक एसएमएस खूब घूम रहा है. अंगरेजी में. भावार्थ है‘भारतीय गरीब हैं, पर भारत गरीब देश नहीं है’, यह कहना है, स्विस बैंक के एक डाइरेक्टर का. उनके अनुसार 280 लाख करोड़ भारतीय मुद्रा, स्विस बैंकों में जमा है. इसका उपयोग कर 30 वर्षों तक कररहित बजट बन सकता है. 60 करोड़ भारतीयों को इस राशि से नौकरी मिल सकती है. देश के किसी गांव से दिल्ली तक चार लेन की सड़क बन सकती है. हमेशा के लिए 500 सामाजिक योजनाओं को मुफ्त बिजली दी जा सकती है. 60 वर्षों तक हर नागरिक को 2000 प्रतिमाह भुगतान किया जा सकता है. वर्ल्ड बैंक, आइएमएफ लोन की जरूरत नहीं. सोचिए, किस तरह हमारा धन, धनी राजनेताओं द्वारा कैद (ब्लाक) है. भ्रष्ट राजनेताओं के खिलाफ हमारा पूरा फर्ज है. इस एमएमएस (संदेश) को इतना भेजें कि पूरा भारत पढ़े.
इस एमएमएस की शुरुआत कब से हुई? नवंबर 2010 में एक रिपोर्ट जारी हुई. ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रिटी (सपोर्टेड बाइ फोर्ड फाउंडेशन). तैयार करनेवाले हैं देवकर. रिपोर्ट का नाम है, ‘द ड्राइवर्स एंड डायनामिक्स ऑफ इलिसिट फाइनेंशियल फ्लोज फ्राम इंडिया : 1948 टू 2008’.इस रपट की पांच बातों पर गौर करें
1.ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रिटी की रिपोर्ट के मुताबिक 1948-2008 के बीच भारत का विदेशी बैंको में कुल 20 लाख करोड़ रुपये कालेधन के रूप में जमा है. रिपोर्ट के मुताबिक कालेधन का प्रवाह 11.7 फीसदी सालाना का दर से बढ़ा है.
2. यह रकम 2 जी स्पेक्ट्रम मामले में हुए नुकसान का 12 गुणा अधिक है.
3. स्विस बैंक एसोशिएशन 2008 की रिपोर्ट के अनुसार भारतीयों के स्विस बैंक में 66,000 अरब रुपये(1500 बिलियन डालर) जमा है. रूस के 470 बिलियन डालर, ब्रिटेन के 390 बिलियन, यूक्रेन के 100 बिलियन, जबकि अन्य देशों का कुल 300 बिलियन डालर है.
4. कार एंड कार्टराइट स्मिथ की 2008 की रिपोर्ट के मुताबिक 2002-06 के दौरान कालेधन के कारण भारत को सालाना 23.7-27.3 बिलियन डालर का नुकसान उठाना पडा है.
5. आइएमएफ की रिपोर्ट के मुताबिक 2002-06 के दौरान भारत को कालेधन के कारण 16 बिलियन डॉलर सालाना का नुकसान हुआ है.
इस रिपोर्ट को हर भारतीय को पढ़ना चाहिए. कैसे वर्ष 1948 से 2008 तक भारत से कालाधन बाहर गया? काले अंग्रेजों ने कैसे भारतीयों को लूटा? चंगेज, नादिरशाह या बाहरी लुटेरों से भी अधिक क्रूरता और बेदर्दी से? इसी तरह जैसे 2जी प्रकरण के सभी टेपों को पुस्तकाकार के रूप में छाप कर किसी देशभक्त को हर भारतीय को बंटवा देना चाहिए, ताकि हर भारतीय मीडिया से लेकर शासक वर्ग के हर अंग (नेता, अफसर, उद्यमी) की हकीकत समझ सके. लॉबिस्ट सांसदों या राजनीति का असली चरित्र खुद पढ़-सुन सके. यह बताने या याद कराने की जरूरत नहीं कि प्रभात खबर ने कैसे 2009 के लोकसभा चुनावों में स्विस बैंक में जमा भारतीय काला धन का मुद्दा उठाया था. अनेक तथ्यों के साथ. तब यह देशव्यापी चर्चा का विषय बना, पर फिर चुप्पी. अब इस रिपोर्ट ने दुखते रग पर हाथ डाल दी है. सरकार चुप नहीं रह सकती. खबर आयी है कि काले धन के अध्ययन की कमिटी बन रही है. 14 देशों तक इसके पसरे जाल की जांच चलेगी. केंद्र सरकार के ये कदम, टालू लगते हैं. इसलिए बाबा रामदेव की हुंकार पर लोग जग रहे हैं. यह बात भी उठ रही है कि एक तरफ भारत का इतना धन बाहर है. दूसरी ओर केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सी.एस.ओ) के आंकड़े के अनुसार हर भारतीय पर 38,000 रुपये का कर्ज है? इस विसंगति का जवाब लोग मांगेंगे? एक नये राजनीतिक स्वर या चिंतन के तहत ही. बिहार की सुगबुहाट मंच बन सकती है.
याद करिए, जब-जब भ्रष्टाचार का मामला उठा है, जनता एक हुई है. ‘74 आंदोलन, 77 के चुनाव. 1998 में बोफोर्स का प्रकरण. 2जी, कामनवेल्थ घोटाला, आदर्श सोसाइटी प्रकरण वगैरह से देश की राजनीति से बदबू आने लगी है. राडिया प्रकण के खुलासे से रही-सही बातें पूरी हो गयी हैं. इस टेप में कहीं चर्चा है कि एक राष्ट्रीय शासक दल को एक बड़ा घराना, घरेलू (घर की बात) कहता है.
बिहार में भ्रष्टाचार नियंत्रण के लिए कानून बना है. देश के इस परिवेश-माहौल में इस कानून का ईमानदार क्रियान्वयन एक नया माहौल बनायेगा. बिहार में ही नहीं, देश में भ्रष्टाचार, छल, कपट और षड्यंत्र की राजनीति का बोलबाला है. दिल्ली पूरी तरह इसके गिरफ्त में है. शासन या सत्ता, चाहे जिसका हो. इस भ्रष्टाचार के खिलाफ बिहार की यह पहल, दुनिया की निगाह खींचेगी. पिछले दिनों, बिहार चुनाव परिणाम के विश्लेषण दुनिया के मशहूर अखबारों में छपे. विख्यात स्तंभकारों ने अंग्रेजी के हर बड़े अखबार में लिखा, बिहार पर. इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने भी हाल में लिखा. ‘द टेलिग्राफ’ में. हर बिहारी-झारखंडी को इन लेखों को पढ़ना चाहिए.
भारतीय राजनीति में सुधार अब दिल्ली से संभव नहीं. अगर एक राज्य में सुधार हुए, तो उसके देशव्यापी असर होंगे. बिहार यह प्रयोगस्थली बन सकता है. रामचंद्र गुहा भी यह मानते हैं. कहावत है ‘सीइंग इज बिलिविंग’ (देखना ही प्रमाण है). अर्थशास्त्र में एक लफ्ज है, ‘डिमांस्ट्रेटिव इंपैक्ट’ (नमूने या प्रयोग का असर). फर्ज कीजिए कि बिहार के कानून के तहत भ्रष्टाचारियों की संपत्ति जब्त होती है, फास्टट्रैक कोर्ट में ट्रायल होता है, यह सब पूरा देश देखेगा, तो क्या होगा?
इसका प्रभाव व दबाव अनंत-असीमित होगा. समाजशास्त्र की नजर में समाज खेमे में बंटेगा, ‘हैव व हैव नाट’, फिर, भ्रष्ट, बेईमान बनाम ईमानदार के बीच. साम्यवाद की भाषा में बुर्जुआ बनाम सर्वहारा के बीच. भारतीय राजनीति में जिस तरह गरीबी हटाओ, मंडल, कमंडल ने ध्रुवीकरण पैदा किया था, उससे भी तीखा, प्रभावी और धारदार मुद्दा है, यह. बिहार के लिए ही नहीं. देश के लिए. शर्त्त यही है कि इसका ईमानदार क्रियान्वयन हो. भारतीय राजनीति में संभावनाओं के नये द्वार खोलनेवाला, यह कानून. हाल में ‘द हिंदू’ के ‘एक लेख में यह बात उभरी कि ‘91 के उदारीकरण के बाद भारत में भ्रष्टाचार बहुत बढ़ा है. ज्वार-भाटा की तरह. बिहार की राजनीति अश्वमेध के घोड़े की भूमिका में सक्रिय भ्रष्टाचार की बाग थाम ले या इस कालिया नाग को नाथने की शुरूआत कर दे, तो देखिए देश की राजनीति में क्या बदलाव होते हैं?
फर्ज करिए कि यहां के विधायक, मंत्री, सांसद, अफसर हर वर्ष संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा करते हैं, तो इसका क्या असर होगा? कानून तो अब भी है. आयकर का कानून है. चुनाव आयोग का कानून. पर सही क्रियान्वयन कहां है? सही अर्थ में बिहार से अगर नयी शुरूआत होती है, तो देश की राजनीति में इसका असर होगा. यह सूचना का युग है. ज्ञान का दौर है. यहां लोकसेवा कानून हो जाये, इन चीजों की सही और ईमानदार शुरूआत हो जाये, तो फिर दृश्य दिखेंगे.
भारतीय मानस, ईमानदार राजनीति की प्रतीक्षा में है. बाहर और अंदर के खतरों से घिरा है, देश और रहनुमा हैं काजल की कोठरी में? यह स्थिति मुल्क की है. मुल्क नयी राजनीति, नये राजनीतिक मूल्यों और संस्कृति की तलाश में है. बिहार के प्रयोग संभावनाओं से भरे हैं. चाहिए सिर्फ सही क्रियान्वयन.