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भारत के नवनिर्माण की सीढ़ी है

बिहार दिवस -हरिवंश- चर्चिल ने कहा था कि अतीत में जितना पीछे देख सकते हो, देखें. भविष्य के लिए राह मिलती है. भविष्य के सपने बुनने में अतीत का इतिहास ही दृष्टि देने का काम करता है. और इतिहास में बिहार, लंबे समय तक भारतीय राष्ट्र के गौरवमय उदय के केंद्र में रहा है. आज […]

बिहार दिवस

-हरिवंश-

चर्चिल ने कहा था कि अतीत में जितना पीछे देख सकते हो, देखें. भविष्य के लिए राह मिलती है. भविष्य के सपने बुनने में अतीत का इतिहास ही दृष्टि देने का काम करता है. और इतिहास में बिहार, लंबे समय तक भारतीय राष्ट्र के गौरवमय उदय के केंद्र में रहा है.

आज बिहार दिवस के अवसर पर, जब बिहार अपने होने के 99 वर्ष पूरे कर100 वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है, तब बिहार के उस प्रेरक इतिहास का स्मरण एक नयी ताकत देता है. आज लगभग अधिसंख्य राज्य, जिनका अतीत या इतिहास बिहार की तरह स्वर्णिम नहीं रहा है, वे भी अपनी भाषा, संस्कृति, इतिहास को पुनर्जीवित कर, नयी पहचान बना रहे हैं. बिहार के साथ बने ओड़िशा का उत्कल दिवस देखिए. आंध्र में अपने राज्य, भाषा, संस्कृति को लेकर अंतरराष्ट्रीय आयोजन होते हैं. यही स्थिति तमिल की है, मलयालम की है. इन भाषाओं, संस्कृतियों और राज्यों के सम्मेलन यूरोप, अमेरिका और एशिया के अन्य देशों में आयोजित हो रहे हैं, जहां उन राज्यों के निवासी कार्यरत हैं. गुजरात और महाराष्ट्र अपने वजूद के भव्य सालगिरह आयोजन करते हैं. यादगार समारोह.

इस तरह बिहार में, बिहार दिवस का आयोजन, ऐतिहासिक प्रयास है. एक नयी पहल, जिसके दूरगामी असर होंगे. बिहार के लिए कहा भी जाता रहा है – खंड-खंड में बंटे बिहार में जातियां बसती हैं या धर्म? बिहारी नहीं. हिंदी के एक मशहूर कवि ने लिखा था –

एक पांव रखता हूं. हजार राहें फूट पड़ती हैं..

बिहार दिवस का यह सिलसिला लगातार चले, तो इससे भविष्य में अनेक नयी संभावनाओं का उदय होगा. राजनीति से लेकर सामाजिक क्षेत्र में. बिहार की राजधानी पटना में जहां से बिहार दिवस की शुरुआत हो रही है, उसका इतिहास बेमिसाल रहा है. संसार के कम देशों ने पटना जैसी उथल-पुथल देखी है. भागवतशरण उपाध्याय के शब्दों में कहें तो उसने पश्चिम से पूरब जाती लुटेरी सेनाओं की धमक सुनी है. चमकती खूनी तलवारें देखी हैं. शांति के उपदेश सुने हैं. और वह आज भी पटना के नाम से बिहार की राजधानी बन कर अपनी गौरव-गाथा के पन्ने उलट रही है. इतिहास बनाती जा रही है.

उत्तर बिहार में है, वह प्राचीन वैशाली, जो महावीर और बुद्ध से जुड़ी है. वैशाली का बसाढ़ गांव. कहते हैं महावीर यहीं जन्मे. बुद्ध रहे. पर यह वैशाली उन पंचायती राज्यों का केंद्र रहा, जिसने ( भागवतशरण जी के शब्दों में) सदियों साम्राज्यों की लोभ-लिप्सा से संघर्ष किया. आज भी लिच्छवियों और वज्जियों के पंचायती राजों (गणतंत्रों) के नाम इतिहास में अमर हैं.

फिर भागवतशरण उपाध्याय को ही उद्धृत करें.

मिथिला में सीता ने जन्म लेकर नारी जाति के सिर गौरव का तिलक लगाया था. जनक ने अपनी सभा को ज्ञान का अखाड़ा बनाया था. जहां याज्ञवल्क्य जैसे उपनिषदों के ज्ञानी संसार और जन्म-मरण के भेद खोलते थे. जहां गार्गी-सी नारियां जटिल-से-जटिल प्रश्न हल करके महर्षियों को चकित कर दिया करती थीं. पर वैशाली का नया गौरव भी कुछ कम न हुआ. पंजाब और अवध में पंचायती राजों की कमी न थी, पर उनकी शक्ति असल में वैशाली में ही फली-फूली. …………………..

अजातशत्रु ने वैशाली के पंचायती राज को जीत लेने की ठानी. पर उसको जीत लेना आसान न था. जब उसने बुद्ध से वैशाली जीतने का उपाय पूछवाया, तब बुद्ध ने उसकी अजेयता के सात कारण बताये. कहा, जब तक वज्जियों के संघ में एकता है. जब तक उस संघ की बैठकें जल्दी-जल्दी होती हैं. जब तक उनके भेद गुप्त रखे जाते हैं. जब तक प्राचीन परंपराओं का उसमें आदर है. जब तक वह नारी का सम्मान करता है. जब तक उसकी मंत्रणा का भेद सुरक्षित है. जब तक उसमें संयम है. तब तक वैशाली का संघ जीता नहीं जा सकता.

कालांतर में वह वैशाली मिटी और उसका गौरवमय इतिहास रह गया. यहीं बिहार की धरती से पहले शूद्र राजा महापद्मनंद ने इतिहास का पहला बड़ा साम्राज्य गठित किया. पूरब के सागर से यमुना के कगार तक फैला. पंजाब के दक्षिण से (अवंतिका, मालवा तक ) काशी, कोसल और वत्स भी उसकी सीमाओं में शोभा बढ़ा रहे थे. भागवतशरण जी ने बताया है कि कैसे पठानों के देश यूसुफजई के शलातुर गांव से आकर पठान ब्राšह्मण पाणिनि ने पाटलिपुत्र में ही व्याकरण लिखा. जिसकी कात्यायन ने वहीं व्याख्या की. चाणक्य और चंद्रगुप्त ने मिल कर एक महान साम्राज्य की नींव डाली. उसकी मगध की सीमा समुद्र से समुद्र तक और दक्षिण में मैसूर तक जा पहुंची. उसके पोते अशोक ने और भी विशाल साम्राज्य खड़ा किया. पाणिनि के व्याकरण पर भाष्य लिखने वाले और योग दर्शन के रचयिता महर्षि पतंजलि थे. भागवतशरण जी बताते हैं कि जैसे पाणिनि और चाणक्य भारत की उत्तर पश्चिम सीमा से आकर पाटलिपुत्र में बस गये थे, कात्यायन ने वहीं अपना व्याकरण लिखा, पतंजलि भी गौड़ देश से आकर पाटलिपुत्र में बस गये.

इस पटना ने महज यश और कीर्ति ही नहीं देखी. दुख और पीड़ा भी झेली. शक राजा अमलाट ने पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर सभी पुरुषों का वध कर डाला. उधर, पंजाब में कुषाण आ गये. उनका राजा कनिष्क बौद्ध हो गया. भागवतशरण जी बताते हैं, राजा कनिष्क कश्मीर में बौद्ध संघ की बैठक करा रहे थे. उसने सुना कि पाटलिपुत्र में अश्वघोष नाम का महान बौद्ध पंडित और कवि है, जो कश्मीर के बौद्ध संघ में आने को तैयार नहीं है. अश्वघोष के लिए अपनी सेना लेकर कनिष्क पाटलिपुत्र पहुंचा और उन्हें उठा ले गया.

फिर समुद्रगुप्त की दिग्विजय. उसके प्रतापी बेटे चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की शानदार विजय कहानी. कहते हैं, तब पुराण भी वहीं लिखे गये. गुप्तों के साम्राज्य को हूणों ने तोड़ डाला. पाटलिपुत्र का वैभव कन्नौज चला गया. फिर बख्तियार खिलजी ने नालंदा को जलाया. पठानों, खिलजियों और तुगलकों ने बारी-बारी से हमले किये और तबाह किया. पर पाटलिपुत्र के पड़ोस से उठ कर भोजपुरी पठान शेरशाह ने भोजपुरिया वीरों के बल पर पंजाब से मालवा और गुजरात तक अपना आधिपत्य जमाया. मुगल शासक हुमायूं को बाहर जाना पड़ा. उसी दौर में पाटलिपुत्र पटना कहलाया. फिर पटना मुगल साम्राज्य के अधीन रहा. पूरब में वह कमजोर हुआ. बंगाल के सूबेदारों ने उस पर कब्जा कर लिया. सिखों के गुरु गोविंद सिंह ने वहां जन्म लेकर उस नगर को नया मान दिया. सिराजुद्दौला और मीरजाफर के नष्ट होने पर नवाब मीर कासिम ने पाटलिपुत्र को नवजीवन दिया. पाटलिपुत्र पर अपने लंबे लेख के अंत में भागवतशरण जी कहते हैं

यह इतिहास है पाटलिपुत्र का. ढाई हजार साल पुराना, काल की गति पर लिखा, पर सूरज -चांद सा चमकता. सदियों की दूरी उसके महान निर्माताओं के चरित्र, पाणिनि, चाणक्य, अश्वघोष, पतंजलि, विक्रमादित्य, मीर कासिम के नाम धूमिल न कर सकी. उसी पटना को संवारने वाला, उसका नेता राजेंद्र प्रसाद भारत का प्रथम राष्ट्रपति हुआ…

आजादी की लड़ाई में बिहार ने फिर नया अध्याय लिखा. पुन: जेपी आंदोलन ने देश की राजनीतिक यथास्थिति को तोड़ा.वैशाली, पाटलिपुत्र, मगध, अंग, मिथिला, वगैरह का शानदार अतीत ही बिहार का गौरवमय इतिहास है. आज वह बिहार, बिहार दिवस मना रहा है. बिहार दिवस का यह आयोजन गांव-गांव, घर-घर पहुंचे और लोक आयोजन में बदल जाये, तो बिहार संभावनाओं के नये द्वार पर खड़ा होगा. 26 जनवरी, 15 अगस्त, 2 अक्तूबर जैसे आयोजनों की तरह स्वत: बिहार दिवस एक ऐसा आयोजन बन जाये कि लोग अपनी समृद्ध विरासत याद कर सकें, तो बिहार में एक नयी ऊर्जा पैदा होगी.

समाजवादी चिंतक और विचारक किशन पटनायक ने बहुत पहले (वर्ष 2001 में) एक लंबा लेख लिखा था. चाणक्य-चंद्रगुप्त की जोड़ी की जरूरत है बिहार को. उस लेख का एक अंश आज बिहार दिवस के अवसर पर प्रासंगिक है.

‘बिहार संकट से गुजर रहा है. लेकिन भारतीय राष्ट्र और मनुष्य जाति के लिए भी जीवन-मरण का संकट गहरा रहा है. जल्द वह समय आयेगा, जब नवनिर्माण की बड़ी कोशिशें भी होंगी. बिहार को एक नया नेतृत्व चाहिए. अगले 30 सालों में यह नया नेतृत्व पैदा हो सकता है. बिहार के लोग अपनी विरासतों से उत्साहित होकर अपना क्षेत्रीय इतिहास ठीक ढंग से याद करना शुरू करें और विरासत की पूजा-आरती करके नहीं, उसकी आलोचनात्मक समीक्षा करके एक आत्म-चेतना पैदा करें. तो बिहार, जो इस वक्त भारत के पतन का सबसे बदनाम केंद्र स्थल है, भारत के नवनिर्माण का भी प्रधान केंद्र हो सकता है.

दस वर्षों पहले लिखी गयी थीं, ये पंक्तियां. गुजरे 10 वर्षों में बिहार आज देश-दुनिया में एक नयी पहचान और ऊर्जा के साथ खड़ा है. यह ताकत और ऊर्जा, रचनात्मक मोरचे पर लगे, तो बिहार भारत के नवनिर्माण का मुख्य केंद्र बन सकता है. बिहार दिवस का आयोजन, बिहारी होने की चेतना और बिहार उपराष्ट्रीयता, सिर्फ बिहार नहीं, भारत के नवनिर्माण की बुनियादी सीढ़ियां हैं.

(लेख में भागवतशरण उपाध्याय के दो लेखों से सामग्री उद्धृत की गयी है. कहीं-कहीं उनके ही वाक्य या अंश हैं या कहीं उनकी बातों-तथ्यों की अलग ढंग से प्रस्तुति.

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