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मानस बदले, तो बिहार बढ़े!

– हरिवंश – यह निष्कर्ष पढ़ते हुए बीस वर्ष पहले का एक दृश्य मन में घूम गया. मुंबई की बात है. मित्र राहुल देवजी, जनसत्ता (मुंबई) में संपादक थे. वे, धर्मयुग के दिनों के पुराने हमसफर अनुराग और हम, साथ बैठ कर चाय पी रहे थे. वहीं पहली बार बीमारू राज्यों को लेकर लंबी चर्चा […]

– हरिवंश –
यह निष्कर्ष पढ़ते हुए बीस वर्ष पहले का एक दृश्य मन में घूम गया. मुंबई की बात है. मित्र राहुल देवजी, जनसत्ता (मुंबई) में संपादक थे. वे, धर्मयुग के दिनों के पुराने हमसफर अनुराग और हम, साथ बैठ कर चाय पी रहे थे. वहीं पहली बार बीमारू राज्यों को लेकर लंबी चर्चा हुई. बीमारू यानी जो बीमार है. साथ ही बीमारू को अंगरेजी शब्दों में लिखें (BIMARU), तो इसका अर्थ निकलेगा बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तरप्रदेश. तब इस अवधारणा के जनक प्रो आशीष बोस की किताब आयी थी. राहुलजी ने ही पुस्तक का उल्लेख किया.
आज पत्रकारों का पढ़ाई से छत्तीस का रिश्ता है, पर राहुलजी या अनुरागजी अपने समय के प्रति अत्यंत सजग रहे हैं. पढ़नेवाले. दुनिया में हो रही नयी चीजों से ताल्लुक रखनेवाले. उस बैठक से उठ कर तुरंत वह पुस्तक खरीदी. शायद ऑक्सफोर्ड से छपी थी. वर्षों बाद राहुलजी से उस पुस्तक पर बात हुई. कहा, नारायणदत्त तिवारी भारत सरकार के वित्त मंत्री थे, तो वह पुस्तक मुझसे ले गये. नहीं लौटायी. पर इस विषय पर हिंदी पट्टी के राजनेताओं को ‘अवेयर व एडूकेट’ (जागरूक करने, प्रशिक्षित करने) करने का काम हुआ. ले मैन लैंग्वेज (जनभाषा) में कहें, तो बीमार राज्य, जो पिछड़ेपन के दुश्चक्र में फंस कर बीमार हैं, बढ़ नहीं पा रहे.
इस दुश्चक्र से निकल नहीं पा रहे. तब से इस विषय पर लगातार सुनना, संवाद व जानना होता रहा. 1990 के आसपास सूचना आयी कि योजना आयोग के अनुसार मध्यप्रदेश और राजस्थान बीमारू अवधारणा से निकल गये हैं. बचे हैं, बिहार और उत्तरप्रदेश. जो बंट कर फिर चार हो गये, बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश और उत्तरांचल. विशेषज्ञ कहते हैं कि ये चारों बीमार ही हैं. 80 के दशक में ही महाराष्ट्र और केरल के सेकुलर बुद्धिजीवी और विचारक सवाल उठाते थे कि आगे बढ़ते राज्य या संपन्न मुंबई, गरीब राज्यों का खर्च क्यों उठायें?
सेंट्रल पूल (आयकर वगैरह से होनेवाली आमद) से गरीबी के आधार पर क्यों केंद्र गरीब राज्यों को विकास के लिए अधिक धन दे? चंद्रबाबू नायडू जब मुख्यमंत्री थे, तो उन्होंने नेशनल डेवलपमेंट काउंसिल की बैठक में बार-बार यह सवाल उठाया कि जो राज्य अपने सुशासन या प्रगति के कारण अधिक कमाई कर रहे हैं या राजस्व उगाह रहे हैं, केंद्र उसे लेकर गरीब राज्यों को विकास के लिए क्यों देता है? उनके कहने का आशय साफ था. कमाई हमारी, खर्च दूसरों के विकास पर क्यों?
उन्होंने बीमारू राज्यों का नाम लिया (बिहार का भी). कहा कि जो राज्य शासन में इफिशियेंट नहीं हैं, जो अपनी जनसंख्या नियंत्रित नहीं कर पा रहे, जो गरीबी रेखा से नीचे रहे लोगों को उठा नहीं पा रहे, जो अपने यहां विकास नहीं कर पा रहे, भ्रष्टाचार नहीं रोक पा रहे, उनके कुशासन की कीमत हम विकसित या आगे बढ़ते राज्य क्यों दें? शिवसेना के बाल ठाकरे या अब राज ठाकरे के पूरे आंदोलन का मर्म यही है.
ये दोनों क्रूड (भदेस) हैं, नहीं तो सुसंस्कृत शब्दों में यह सवाल बार-बार उठते रहे हैं कि इन बीमार राज्यों के विकास की जिम्मेदारी जिन राजनेताओं के कंधे पर रही है, अगर वे अपनी अक्षमता, अकुशलता और इनइफिशियेंसी से कुछ नहीं कर पा रहे हैं, तो उसकी कीमत दूसरे राज्य क्यों चुकायें? 1980 के आसपास मराठी के जानेमाने संपादक और विचारक, माधव गडकरी ने मराठी के सबसे बड़े समाचार पत्र में किस्तों में लेख लिख कर यह सवाल उठाया था. आज महाराष्ट्र या असम से लगातार बिहारी-झारखंडी भगाओ आंदोलन की खबरें आती हैं. इस गंभीर सवाल का मूल्यांकन, दो दृष्टि से होना चाहिए. पहला, भारत संघ की एकता की दृष्टि से. गरीब राज्यों के प्रति इस दृष्टि से, देश की एकता और अखंडता पर सवाल उठ सकते हैं.
यह भी सच है कि उत्तरप्रदेश, बिहार और बंगाल समेत पूव राज्यों के विकास के बगैर भारत आगे नहीं बढ़ सकता. इसलिए इन राज्यों का विकास ही भारत के हित में है. पर दूसरी दृष्टि,खुद इन राज्यों के हित में है, अपना विकास करना. अपनी तकदीर खुद बनानी होगी. यथार्थ यह है कि कोई राज्य एक सीमा से आगे, दूसरे राज्य के लोगों को शरण नहीं दे सकता. यह व्यावहारिक नहीं है. हर राज्य खुद आगे बढ़े, ताकि उस राज्य के लोग कहीं शरणार्थी न माने जायें. यह भारत संघ की एकता के लिए सबसे अनिवार्य शर्त है.
इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में एसोचेम की रपट का मूल्यांकन होना चाहिए. बिहार, बीमारू राज्यों के दायरे से निकला या नहीं निकला, इस बहस के पहले यह देखना चाहिए कि छह दशकों में पहली बार बिहार को बीमारू से बाहर माना गया. यह निष्कर्ष किसी साधारण व्यक्ति या संस्था का नहीं है. यह एसोचेम रिसर्च ब्यूरो द्वारा तैयार रपट है. इसे तैयार किया है नुसरत अहमद और एसोचेम रिसर्च ब्यूरो ने. यह रिपोर्ट है ‘एसोचेम इन्वेस्टमेंट मीटर’ (एसोचेम निवेश सूची). रिपोर्ट के नीचे उल्लेख है, शिफ्टिंग इनवेस्टमेंट डेस्टीनेशंस (निवेश के बदलते गंतव्य). यह एक तिमाही के निवेश पैटर्न (पद्धति) का आकलन है.
अगर हम सचेत नहीं रहे, हड़ताल, बंद, अव्यवस्था जैसी चीजें चलती रहीं, तो यह पैटर्न, अगले तिमाही में बदल सकता है. बिहार, फिर बीमारू ब्रैकेट में ही रहेगा. यह चेंज एक अवसर है, अपनी नियति बदलने का. यह निवेश आंकड़ा फ्रेजाइल (अस्थिर) तत्व है. अगर हम जी-जान से अपनी तकदीर संवारने में लगें, तो यह स्थायी भी बन सकता है.
एसोचेम का निष्कर्ष वित्तीय वर्ष 2008-09 के तीसरे तिमाही का है. इसलिए यह संकेत भर (फ्रेजाइल) है. अगर यह स्थिति लगातार बनी रही, वर्षों बनी रही, तब बिहार बीमारू ब्रैकेट (समूह) से बाहर निकलेगा. एसोचेम की इस रिपार्ट का सारांश है कि वर्ष 2008-09 के तीसरे तिमाही में सिर्फ चार राज्यों ने पोजिटिव ग्रोथ (सकारात्मक प्रगति) की है. इसमें राजस्थान, पहले स्थान पर है, 245 फीसदी के साथ. बिहार दूसरे नंबर पर है, 100 फीसदी के साथ.
फिर पंजाब (41.6 फीसदी) और उत्तरप्रदेश (26.8 फीसदी) हैं. रिपोर्ट में यह भी उल्लेख है कि बुनियादी संरचनाओं से रहित राज्य बिहार पिछले वित्तीय वर्ष (2007-08) के तीसरे तिमाही तक कारपोरेट निवेश आकर्षित नहीं कर पा रहा था. पर राज्य सरकार के विकासोन्मुख प्रयासों के कारण, भारतीय उद्योगपति शिक्षा, आइटी वगैरह क्षेत्रों में 304 करोड़ के आसपास राशि चालू वित्तीय वर्ष के तीसरे तिमाही में निवेश करने की तैयारी में हैं . यह रिपोर्ट और निष्कर्ष अपने आप में बिहार के लिए गौरव का विषय होना चाहिए. पहली बार बिहार को बीमारू नहीं कहने की बात, अपने आप में प्रेरक है. बिहार बदल सकता है, बिहार बढ़ सकता है और बिहार विकसित हो सकता है.
कम से कम इसकी झलक तो मिली. दरअसल बिहार के खिलाफ महाराष्ट्र और असम वगैरह में हो रहे आंदोलनों का रचनात्मक जवाब बिहार का यह विकास ही है. भारत को संदेश देना, अपने रचनात्मक कार्यों से यह साबित करना कि हम भी बढ़ सकते हैं. विकसित हो सकते हैं, यह बिहार का जवाब होना चाहिए. दुनिया के जो मुल्क आज प्रगति की सीढ़ी पर सबसे आगे खड़े हैं, उनका अतीत देखिए. जिन लोगों ने अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में सफलता की चोटी पर पहंच कर यश अर्जित किया है, उनका इतिहास पलटिए.
रामायण का प्रसंग याद करिए, जब हनुमानजी को यह अहसास कराया गया कि उनकी क्षमता क्या है, वह कैसे समुद्र लांघ सकते हैं. ऐसे अनंत प्रकरण हैं. इन सबमें कॉमन फैक्टर (समान कारक) एक है. वह है, मोटिवेशन (प्रेरणा). ‘हम होंगे कामयाब’ गाने का मर्म क्या है? जिसने देशों का इतिहास बदला, निजी जिंदगियों में विश्वास और आस्था भरा. नयी राह दिखायी.
इसलिए बिहार और बिहारियों को इस निष्कर्ष को गहराई से समझना चाहिए. नयी पहल की कोशिश करनी चाहिए. बिहार बीमारू के घेरे से निकल सकता है, लगभग चार दशकों में यह पहली बार साबित हुआ है. यह घटना बिहारियों को रोमांचित करे, नयी उड़ान के लिए ऊर्जा भरे, नये उत्साह से लोग अपने कर्म में लगें, यह होना चाहिए. इस स्थिति का बुनियादी श्रेय नीतीश कुमार की सरकार को है. पर एक महत्वपूर्ण घटना बिहार में हो रही है, जिस पर बिहारियों को गौर करना चाहिए.
वह घटना क्या है? यह कंपटीटिव पालिटिक्स (स्पर्द्धात्मक राजनीति) का दौर है. बिहार की राजनीति का एजेंडा अब विकास बन गया है. और बिहार के तीनों बड़े नेता लालूजी, रामविलासजी और नीतीशजी ने पिछले कुछेक वर्षों में बिहार के विकास के जितने प्रयास किये हैं, उनको एक जगह जोड़ कर देखना चाहिए.
लालूजी ने जितनी रेलें चलायीं. रामविलासजी ने बरौनी में कारखाना खुलवाया. झारखंड-बिहार में अनेक बड़े प्रोजेक्ट शुरू करवाये. हेल्थ कैंप लगवाया. इन सबका असर भविष्य में दिखायी देगा. नीतीश कुमार ने बिहार की राजनीति का एजेंडा ही बदल दिया है. विकास अब नारा या मुद्दा नहीं भूख है.
एसोचेम की रिपोर्ट को गहराई से देखें, तो स्पष्ट होगा कि नीतीश सरकार ने बिहार को एजुकेशनल हब बनाने की जो कोशिश की, उसके सुखद परिणाम कैसे दिखने लगे हैं? एसोचेम की रिपोर्ट के अनुसार निवेश में विकास की दृष्टि से चार टॉप स्टेट (इस वित्तीय वर्ष के तिमाही में) हैं. उनमें बिहार दूसरे नंबर पर है.
जो झारखंड खनिज संपदा की दृष्टि से दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में माना जाता है, उसकी क्या दुर्गति है? वहां निवेश में -98.78 फीसदी की गिरावट की स्थिति है. यही झारखंड अक्तूबर-दिसंबर 2007-08 में, देश में पांचवें स्थान पर था. पर इसकी दुर्गति को, यहां के मंत्रियों की लूट, भ्रष्टाचार से जोड़ कर देखिए, तो तसवीर साफ होगी.
अब झारखंड पांचवें नंबर से खिसक कर 2008-09 (अक्तूबर-दिसंबर) में 15वें पर पहुंच गया है. बिहार, अक्तूबर-दिसंबर 2007-08 में 21वें स्थान पर था, अब वह 2008-09 (अक्तूबर-दिसंबर) में 14वें स्थान पर पहुंच गया है. जब बिहार बंटा, तो यह गाना चला, बिहार के लोग बालू फांकेंगे. आज वह बिहार कहां और किस स्थिति में है, और खनिज संपदा से भरपूर झारखंड की क्या दुर्दशा है! यह राजनीतिक नेतृत्व का फर्क है.
पर सबसे कठिन और मौलिक यक्ष प्रश्न है कि क्या बिहारी बदलना चाहते हैं? क्योंकि बिहार को बदलना है, तो बिहारियों को बदलना पड़ेगा. आत्मसम्मान के लिए. अपनी प्रतिभा और श्रम के लिए. अपनी दुनिया बेहतर और समृद्ध बनाने के लिए. संवारने के लिए.
पिछले दो-तीन दशकों से अकेले मशहूर अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री और समाजविज्ञानी डॉ शैबाल गुप्ता और आद्री, बिहारी उपराष्ट्रीयता की बात करते रहे हैं. इसे यथार्थ में सिर्फ बिहारी ही उतार सकते हैं. जीवन में ढाल सकते हैं. बिल गेट्स ने एक जगह कहा है, ‘….चीनियों के बाद दक्षिण भारतीय, दुनिया में स्मार्टेस्ट लोग हैं’.
क्या यह चुनौती बिहार रचनात्मक ढंग से स्वीकार नहीं कर सकता? बिहार के युवा प्रतिभा और श्रम में किसी से कम नहीं. गांधीजी कहा करते थे, काम स्वत: बोलता है. क्या हम अपने आचरण और काम से दुनिया और देश में अपनी छाप नहीं छोड़ सकते? क्या हम स्वत: आगे बढ़ कर बिहार में सामाजिक बदलाव और विषमता दूर करने का माहौल नहीं बना सकते? अंतत: राज्य समृद्ध होगा, विकसित होगा, तभी बिहार गरीबी के अभिशाप से और बीमारू राज्य के अभिशाप से मुक्त होगा. यह बड़ी घटना है कि बिहार का राजनीतिक एजेंडा बदला है.
यह राजनीतिक एजेंडा अब विकास है. पर अंतत: हर बिहारी को इसे आचरण में तब्दील करना होगा. जात-पात छोड़ कर. अत्यंत पिछड़े, दलितों, महिलाओं और गरीबों को प्राथमिकता के आधार पर आगे लाकर. अगर यह जनमानस बन जाये और साथ में विकास राजनीतिक एजेंडा बना रहे, तो बिहार छलांग लगा सकता है. देश और दुनिया को राह दिखा सकता है.
पर इसके लिए सरकार और समाज दोनों को कठोर कदमों के लिए तैयार रहना पड़ेगा. बिहार में 30 दिनों से हड़ताल चल रही है. क्या ये सरकारी कर्मचारी कभी बिहार के बारे में भी सोचते हैं? बिहार की कुल आबादी है 9.72 करोड़. राज्य सरकार के कुल कर्मचारी हैं 3.5 लाख. हड़ताल पर हैं, लगभग 2.5 लाख. राज्य सरकार के सभी कर्मचारियों को परिवार समेत जोड़ दें, तो यह संख्या दो फीसदी के आसपास है.
पर इनके वेतन और भत्ते पर खर्च है, सकल घरेलू उत्पाद का 10 फीसदी. यह विषमता! फिर भी कर्मचारी हड़ताल पर! बिहार की प्रतिव्यक्ति आय है, 481 रुपये. गरीबी रेखा से नीचे की आबादी है, लगभग 5 करोड़ 65 लाख. जबकि सरकारी महकमे में तीसरे और चौथे पायदान पर काम करनेवालों की मासिक आय 11000 से 20000 रुपये. ये सरकारी कर्मचारी नये युग के सामंत, जमींदार और राजा हैं. ये संगठित क्षेत्र के लोग हैं. प्रतिवर्ष योजना व्यय, जिस पर राज्य का विकास निर्भर है, साढ़े नौ करोड़ लोगों का भविष्य निर्भर है, वह 13500 करोड़ का है.
पर आबादी के दो फीसदी लोगों के वेतन और पेंशन मद पर 16000 करोड़ खर्च! भारत में संगठित क्षेत्र कैसे असंगठित लोगों पर जुल्म कर रहा है, उसका यह एक नमूना है. बिहार ने छठा वेतनमान लागू किया है. पर सूचना है कि पश्चिम बंगाल, केरल, त्रिपुरा ने छठा वेतनमान लागू ही नहीं किया है. विकसित और धनी राज्य तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश ने भी छठा वेतनमान लागू नहीं किया है. असम, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और पंजाब ने भी छठा वेतनमान लागू नहीं किया है. जो राज्य सबसे धनी माने जाते हैं, प्रतिव्यक्ति आमद में भी सबसे ऊपर माने जाते हैं, उस महाराष्ट्र और गुजरात में भी छठा वेतनमान लागू नहीं है.
पर बिहार सरकार के कर्मचारी छठा वेतनमान लागू होने के बाद भी हड़ताल पर हैं? ये बिहार का विकास चाहते हैं या विनाश? इसी तरह के आचरण के कारण बिहार बीमारू बने रहने को अभिशप्त है. बिहार बीमार रहा, तो बिहारी अवसर की तलाश में दर-दर भटकेंगे, अपमानित होते रहेंगे. इसी तरह जाने-अनजाने हम बिहारी ही बिहारियों के अपमान के मूल में हैं. राज ठाकरे तो बा‘ह्य कारण हैं.
कर्मचारी संघ के नेता इस विषमता का कैसे जवाब देते हैं? यह जानना और रोचक है. ये कर्मचारी नेता आइएएस अफसरों और मंत्रियों की वेतन वृद्धि और सुविधाओं के उद्धरण देकर अपनी मांगों को जायज साबित करना चाहते हैं. होना तो यह चाहिए था कि ये मजदूर नेता कहते कि हमारे वेतन और पेंशन मद पर खर्च घटायें.
नेताओं और मंत्रियों पर खर्च घटायें और बिहार के असंगठित क्षेत्र के लोगों के विकास पर खर्च करें, ताकि बिहार बढ़े. बिहारी न भटकें. इन्हें राज ठाकरे से अपमानित न होना प़ड़े. ये सरकारी कर्मचारी रिश्वतखोरी के खिलाफ अभियान चलाते. बिहार के विकास की बात करते, तो एक नयी बात होती. राज ठाकरे को माकूल जवाब मिलता. बिहार विकसित होता. क्या आनेवाले 10 वर्षों में बिहार को विकसित राज्यों की श्रेणी में खड़ा देखना आत्मगौरव का विषय नहीं है?
1991 में भारत की अर्थनीति बदल गयी. इन बदली परिस्थितियों में जिन राज्यों ने खुद को विकसित किया, वे आगे निकल गये. आज कर्नाटक 70,000 करोड़ का आइटी का कारोबार करता है और हिंदी राज्य? लगभग शून्य. इंडिया टूडे प्रतिवर्ष ‘इंडिकस’ नाम की संस्था से राज्यों की माली हालत, विकास स्थिति या आर्थिक स्थिति पर सर्वे कराता है. इंडिकस के ’90-’91 के आर्थिक सर्वे को याद करें, तो देश के सबसे पिछड़े राज्यों में हिंदी राज्यों के साथ-साथ आंध्र भी था. वह भी वर्षों से अत्यंत पिछड़ा था. अब काफी आगे है.
शासन चाहे चंद्रबाबू नायडू का हो या कांग्रेस के राजशेखर रेड्डी का. आंध्र, राज्यों की विकास सीढ़ी में नीचे से छलांग लगा कर ऊपर के ब्रैकेट में पहुंच गया. जानेमाने ब्रिटिश पत्रकार डेनियल लेक ने भारत पर किताब लिखी मंत्राज ऑफ चेंज (रिपोर्टिंग इंडिया इन ए टाइम ऑफ फ्लक्स). वर्ष 2005 में पेंग्विन/विकिंग ने इसे छापा. उस पुस्तक में बीमारू राज्यों पर एक बड़ा अध्याय है, ब्रेकफास्ट विथ बोस. प्रो आशीष बोस भारत सरकार के डेमोग्राफर इन चीफ रहे हैं.
बीमारू अवधारणा के भी जनक और भाष्यकार. उसी डॉ बोस ने डेनियल लेक से बीमारू अवधारणा पर लंबी बातचीत की. 80 के दशक के मध्य में यह अवधारणा उन्होंने विकसित की. डेनियल लेक ने लिखा है कि भारत से बीमारू राज्यों को अलग कर दें (शब्द है, इंडिया माइनस बीमारू, भारत – बीमारू = मध्य वर्ग का देश), तो भारत विकास और अर्थव्यवस्था में मध्य श्रेणी का देश बन जायेगा. बीमारू राज्यों के साथ भारत गरीब है. दुनिया के संदर्भ में भारत को देखें, तो सबसे नीचे के पायदानवाले देशों में इन्हीं बीमारू राज्यों के कारण भारत शुमार होता है. अन्य सभी राज्यों को धकेल कर पीछे खींच लेते हैं.
डेनियल लेक ने कहा है कि ये राज्य विकास के सभी सूचकांकों पर भारत के अन्य राज्यों से पिछड़े और पीछे हैं. जनसंख्या वृद्धि यहां अनियोजित है. भारत के आधे अशिक्षित यहां रहते हैं. औरतों के मामले में सबसे खराब हैं ये. इनमें सबसे बुरी स्थिति में हैं , बिहार और उत्तरप्रदेश, जहां भारत की 1/5वीं जनसंख्या रहती है. यहां भयानक हिंसा है.
लोगों का आपस में विभाजन है. घोर जातिप्रथा है. कुशासन है. आशीष बोस ने डेनियल लेक से कहा, दक्षिण भारत में विकास के इशू पर जाति व्यवस्था अप्रभावी हो गयी है. पर बीमारू, खास तौर से उत्तरप्रदेश और बिहार में यह स्थिति बदतर हुई है. जातिवादी नेता अत्यंत सीमित जनाधार बनाते हैं. औरतों की उपेक्षा करते हैं. इसलिए इनकी यह स्थिति है. 1991 में ही राजस्थान और मध्यप्रदेश बीमारू ब्रैकेट से बाहर निकल रहे थे. प्रो आशीष बोस ने डेनियल लेक से कहा कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कुछ समय पहले आये थे.
उन्होंने मुझसे कहा, आंकड़े देखिए, मध्यप्रदेश में चीजें बेहतर हो रही हैं. विकास हो रहा है. इसलिए अब हमारे राज्य को बीमारू ब्रैकेट से बाहर निकालें. बिहार व अन्य ऐसे बीमारू राज्यों के बारे में इस पुस्तक में लंबा वर्णन है. उसी डेनियल लेक ने वर्ष 2008 में नयी पुस्तक लिखी, इंडिया एक्सप्रेस (द फ्यूचर ऑफ ए न्यू सुपर पावर).
यह भी पेंग्विन/विकिंग ने छापी है. यह ताजा किताब है. इस पुस्तक में भी लगभग 10 पन्ने बीमारू प्रसंग में हैं. वह कहते हैं कि इंडियन डेमोग्राफी और सांख्यिकी विश्लेषण के आधार पर डॉ आशीष बोस का सबसे बड़ा अवदान है, बीमारू राज्य की अवधारणा. 80 के दशक में जब प्रो बोस सेंसस के पुराने आंकड़ों का विश्लेषण कर रहे थे, तो उन्होंने पाया कि बीमारू राज्य विकास के सभी मापदंडों पर सबसे पीछे थे. मसलन शिक्षा, मातृ मृत्यु दर, जन्म दर, बाल मृत्यु दर, प्रति वर्गमील डॉक्टरों की उपस्थिति वगैरह.
पर सबसे खतरनाक संकेत था कि भारत के अन्य राज्यों के लिए यह सूचकांक लगातार बेहतर हो रहे थे, विकास हो रहा था. पर बीमारू राज्य के लिए या तो इन आंकड़ों में (प्रगति) ठहराव आ गया था या वे और बदतर हो रहे थे. प्रो बोस ने बीमारू राज्यों को सब-सहारा अफ्रीका बास्केट केस माना था. महिलाओं और बच्चों की बदतर स्थिति इन राज्यों में थी. इस अवधारणा के बाद बीमारू राज्य के राजनीतिज्ञों ने प्रो बोस की कटु आलोचना की. निंदा की. पर उनकी अवधारणा सही थी. डेनियल लेक इस किताब को लिखने के संदर्भ में बिहार भी आये. वह बिहार के गांवों में गये.
जहानाबाद की ओर. उनकी यात्रा जहानाबाद में जेल तोड़ने के कुछ रोज पहले हुई. वह बोध गया तक गये. नालंदा औैर राजगीर भी देखा. बिहार के संदर्भ में उनकी टिप्पणी-निष्कर्ष अत्यंत गंभीर, सटीक, पर बिहारियों के झूठे अहं को ठेस पहुंचानेवाले भी हैं. एक जगह वे कहते हैं, बिहार का मुख्य विश्वविद्यालय पटना एक राजनीतिक मजाक था. हथियारबंद छात्रसंघों की जगह. भयभीत अध्यापक जो भय से डिग्री देते हैं. उनकी दृष्टि में बिहार आधुनिक भारत का शर्म है. वह यह भी कहते हैं, कभी प्राचीन बिहार भारत का बौद्धिक और आर्थिक पावरहाउस भी था.
वह लिखते हैं कि गंगा के किनारे अच्छी तरह सिंचित होनेवाली उर्वर धरती में आज भी भारत के एक तिहाई लोग रहते हैं. पर आज इसके पवित्र जल के बावजूद यहां दुख, भ्रष्टाचार से ग्रस्त सम्मान व मर्यादा से वंचित जीवन है. वह प्राइमरी स्कूलों के बारे में टिप्पणी करते हैं. मानते हैं कि बिहार को बेहतर करने के लिए बहुत कुछ किया जाना है और तत्काल किया जाना है.
क्या हम बिहारी सिर्फ राजनीतिज्ञों के भरोसे बिहार को छोड़ देंगे? क्या बिहार गढ़ने में जनता की हिस्सेदारी नहीं होगी? हम कब बिहार को एक नयी ऊंचाई पर ले जाने की भूख और भावना से प्रेरित होंगे? कितने अपमान के बाद?
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़े और फाइनेंसियल टाइम्स के जानेमाने पत्रकार एडवर्ड लूस ने भी भारत के संदर्भ में चर्चित पुस्तक लिखी. इंस्पाइट ऑफ द गॉड (द स्ट्रेंज राइज ऑफ मॉडर्न इंडिया). वर्ष 2006 में यह पुस्तक छपी. ग्रेट ब्रिटेन के प्रकाशक लिटिल ब्राउन ने इसे छापा. इस पुस्तक में भी बिहार की चर्चा है. वह कहते हैं कि बिहार उत्तर भारत का सबसे गरीब राज्य है. वे बिहार की घूसखोरी और कुव्यवस्था का उल्लेख करते हैं.
स्कूलों में बिजली न होने, अध्यापक न होने और बाथरूम न होने की चर्चा करते हैं. लूस ने भी बिहार की यात्रा की. वह हैदराबाद से सीधे पटना पहुंचे थे. वह दोनों राज्यों का बहुत जीवंत तुलनात्मक चित्रण करते हैं. बोरिंग रोड का उल्लेख करते हैं कि कैसे एक ब्रिटिश अफसर के नाम पर इसका नाम पड़ा. फिर बिहार की कुव्यवस्था का उल्लेख करते हैं. वह लालू प्रसाद और राबड़ी जी से भी मिले. बिहार के पिछड़ने का उन्होंने अपनी पुस्तक में प्राय: उल्लेख किया है.
भारत के विकास के संदर्भ में थॉमस एल फ्रिडमैन ने अपनी विश्व चर्चित किताब लिखी, द वर्ल्ड इज फ्लैट (ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ द ट्वेंटीफर्स्ट सेंचुरी). वर्ष 2005 में न्यूयार्क के फरार, स्ट्रॉस एंड गिरॉक्स ने इस पुस्तक को छापा. मूलत: दक्षिण के राज्यों में आयी प्रगति व बदलाव के संदर्भ में यह पुस्तक है, पर बीमारू राज्यों का इसमें जिक्र नहीं है.
बिहार बदलने के लिए जरूरी है कि बिहारी बदलें. कोई सरकार या राजनीति एक सीमा तक विकास का माहौल उपलब्ध करा सकती है, पर बदलना खुद को पड़ेगा. क्या आज बिहार इसके लिए तैयार है?
दिनांक : 08-02-09

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