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सावधान ! पुरानी राह से

– हरिवंश – ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या राज्य के लिए बुरा संकेत है. इस हत्या के बाद बिहार के वे पुराने दिन उभरे, जब नरसंहार और अराजकता के भय, आतंक और माहौल में राज्य जीता था. तनाव और अराजकता की गंध हर सांस में थी. हर गांव, गली, चौक-चौराहे और शहर में. इस माहौल की […]

– हरिवंश –
ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या राज्य के लिए बुरा संकेत है. इस हत्या के बाद बिहार के वे पुराने दिन उभरे, जब नरसंहार और अराजकता के भय, आतंक और माहौल में राज्य जीता था.
तनाव और अराजकता की गंध हर सांस में थी. हर गांव, गली, चौक-चौराहे और शहर में. इस माहौल की बेनिफिसरी (लाभ पानेवाले) कुछ राजनीतिक ताकतें रही हैं, जिनका अस्तित्व और उद्भव ‘खून की राजनीति’ और इसके लाभ से सीधे जुड़ा रहा.
बिहार की पुरानी राह, खासतौर से 1970 से 2000 के बीच नरसंहार, जातीय गोलबंदी और आपसी शत्रुता की सुरंग से गुजरती है. वे भयावह दिन रहे हैं. उपजाऊ खेतों का परती रहना, कई गांवों में शादियों का न होना, नरसंहार, नफरत और द्वेष की राजनीति की आग में जलते गांवों में जीवन का टूट या ठहर जाना, हर आंख में भय के दृश्य.. तब मध्य बिहार के लगभग गांव-गांव में घूमने के दौरान देखे गये वे दृश्य, आज भी सिहरन पैदा करते हैं. वे बिहार के जीवन के अंधकार के दिन रहे हैं.
घुटन के. और इस तत्कालीन सामाजिक परिवेश का सीधा परिणाम रहा है, गरीबी, आर्थिक पिछड़ापन. उन्हीं दिनों देश में मजदूर सप्लायर राज्य के रूप में बिहार की पहचान बनी. इन दशकों (70 से 2000) के बीच राज्य की विकास दर पलट लीजिए, बमुश्किल दो फीसदी के आसपास रहा होगा. इसी दौर में बिहार ने अपनी पहचान बनायी, देश के सबसे पिछड़े राज्य के रूप में. यह पिछड़ापन, गरीबी, सीधी देन थी, तत्कालीन सामाजिक अराजकता की, जिसे कुछ राजनीतिक ताकतें ‘सत्ता के स्वार्थ’ में पालती-पोसती थीं.
ब्रह्मे श्वर मुखिया की हत्या के बाद उन्हीं दिनों की राजनीति के मुहावरे, बोल, व्यंग्य और ध्वनि फिर बिहार की राजनीति हवा में हैं, या गूंज रहे हैं. राजनीतिक दलों के लोग इस घटना के बाद वोट बैंक व नफा-नुकसान के अनुसार तौल कर बयान दे रहे हैं, पर आम लोग राज्य का हित या समाज का हित देखें, यह जरूरी है. लगता है कुछ ताकतें, ऐसे अवसर की प्रतीक्षा में थीं, ताकि बिहार की राजनीति पुरानी पटरी पर लौटे और ईर्ष्या, तनाव, द्वेष और जलन का यह पुराना माहौल लौटे. पूरे बिहार के लिए यह सावधान होने का क्षण है.
हर जाति, धर्म या उभरते बिहारी वर्ग के लिए चौकस हो जाने का पल, क्योंकि यह पुरानी राह आत्मघात की राह है. सामाजिक तनाव की फसल या आग से कुछ राजनीतिक ताकतों को भले ही अल्पकालिक लाभ मिल जाये, पर राज्य का भारी नुकसान होगा. पिछले कुछ वर्षों से राज्य ने एक अलग पहचान बनायी है, देश-दुनिया में. उस राह से भटकना, आग की दरिया से गुजरने जैसा प्रसंग है.
यह यथार्थ समझ लेने की जरूरत है कि यह आर्थिक दौर है. उदारीकरण सही है या गलत, यह अलग प्रसंग है, पर सच यह है कि देश के उदारीकरण के बाद कुछ राज्यों ने अद्भुत प्रगति की, पर बिहार पीछे छूटे राज्यों में ही रहा. गरीब-खराब राज्यों की सूची में सबसे नीचे. आर्थिक विकास की बुनियादी जरूरत है, समाज में सामाजिक सद्भाव-शांति और आपसी समझ का होना. कानून और व्यवस्था का राज होना. कानून के राज के परिवेश में ही आर्थिक विकास संभव है. अराजकता या सामाजिक तनाव और विकास के बीच छत्तीस का रिश्ता है. दोनों साथ संभव नहीं है.
आज बिहार बनने या तबाह होने के चौराहे पर है. तबाह करने, बिगाड़ने की राजनीति 60 वर्षों से चलती रही है, विकास की राजनीति का दौर कुछेक वर्ष ही पुराना है. वैसे भी प्रकृति का नियम है, ध्वंस, आसान और सृजन कठिन. सृजन और विकास की राजनीति और अर्थनीति पर दलों के टिकने, न भटकने और लगातार चलने के लिए हर बिहारी को पहरेदारी करनी होगी, जो नया बिहार चाहते हैं. बिहार का पुराना अलग गौरव वापस चाहते हैं.
पिछले कुछ वर्षों से बिहार में सामाजिक समरसता का माहौल रहा, तो इसका आर्थिक परिणाम क्या रहा? यह आर्थिक दौर है, इसलिए लाभ-हानि या बिजनेस-व्यापार की भाषा में इसकी कीमत (या उपलब्धि) जान लीजिए. नेशनल इंस्टीट्‌यूट ऑफ पब्लिक फिनांस एंड पालिसी के एमेरिटस प्रोफेसर सुदिप्तो मुंदले के शब्दों में आज का बिहार देश का सबसे अच्छा करता राज्य है. (बिहार इज वन ऑफ द बेस्ट परफारमिंग स्टेट्स इन द कंट्री). इस राज्य में प्रति व्यक्ति राज्य घरेलू उत्पाद (स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट) 2004-2005 से अब तक 8.5 फीसदी है.
देश के सबसे तेजी से आगे बढ़ते राज्यों महाराष्ट्र और तमिलनाडु से जरा या तनिक पीछे. इसी दौर में बिहार में साक्षरता दर में 16 फीसदी का इजाफा और महिलाओं की साक्षरता दर में 20 फीसदी का इजाफा, देश में सर्वाधिक रहा. सेंट्रल स्टैटिस्टिक ऑफिस (सीएसओ) के अनुसार (30 मई, 2012) बिहार अकेला राज्य है जहां पिछले दो साल में प्रति व्यक्ति आय में सालाना 12 फीसदी से अधिक वृद्धि हुई है. 2011-12 में बिहार की प्रति व्यक्ति आय 15268 रुपये हो गयी है, जबकि वित्त वर्ष 2010-11 में यह 13632 रुपये थी.
पर अब भी बिहार के सामने चुनौतियां क्या हैं? देश में सबसे अधिक गरीब (56 प्रतिशत) यहीं रहते हैं. प्रति व्यक्ति आमद, देश स्तर पर प्रति व्यक्ति आमद की आधी है. अन्य राज्यों में तुलना में हम साक्षरता दर में बहुत पीछे हैं. राष्ट्रीय औसत से अधिक बच्चे अब भी मर जाते हैं.
ऐसी चीजें क्यों हैं? प्रोफेसर सुदिप्तो मुंदले के शब्दों में ही, क्योंकि बिहार का दुर्भाग्य रहा है, दशकों से विकास की उपेक्षा (बिहारस अनफारचुनेट लीगेसी ऑफ नेगलेक्टेड डेवलपमेंट ओवर डिकेड्स). प्रो सुदिप्तो मुंदले अपने लेख में आगे कहते हैं, बिहार की हाल की उपलब्धियों या ड्रैमेटिक टर्न एराउंड के पीछे क्या कारण रहे हैं? फिर वह बताते हैं कि पुरानी मनीषा-ज्ञान से हमें मिले सबक. कौटिल्य के अर्थशास्त्र से लेकर पश्चिमी परंपरा में एडम स्मिथ से मिले अनुभवजनित ज्ञान कि ‘समाज सिर्फ सुरक्षा और शांति के माहौल में ही समृद्ध हो सकता है.
(सोसाइटीज वोनली प्रास्पर इन ए सिक्योर एंड पीसफुल इनवायरमेंट. इसलिए सजग और सावधान होने की जरूरत है कि बिहार की सुरक्षा और शांति के माहौल भंग होने से बिहार फिर पुरानी राह पर भटक जायेगा. आज हर बिहारी को याद रखने की जरूरत है कि महाराष्ट्र या देश के कई राज्यों में वह अनचाहा है.
इस कारण बिहार की प्रगति से हर बिहारी का अस्तित्व – जीवन जुड़ा है. इसलिए अपने हित में बिहार के विकास के माहौल के पक्ष में खड़ा होना पड़ेगा. हर जुबान पर यह तथ्य याद रहना चाहिए कि गुजरे दशकों में हम बहुत पीछे छूटे लोग हैं. प्रो सुदिप्तो के अनुसार बिहार आज की आर्थिक विकास दर से बढ़ता रहा, तो आज जहां भारत (2012) खड़ा है, वहां उसे पहुंचने में और 30 वर्ष लगेंगे, यानी 2042 में बिहार वहां पहुंचेगा, जहां आज 2012 में भारत खड़ा है.
तब तक कल्पना कर लीजिए भारत 2042 में कहां पहुंचेगा? इसीलिए हर बिहारी को वह राह चुनना है कि वह आज से 30 वर्षों बाद कहां खड़ा रहना चाहता है? दो रास्ते हैं. पहला जातीय समीकरणों, जातीय रैली-रेला की राजनीति, निजी सेनाओं के आतंक के पुराने दिनों की राजनीति में लौटना, जिसका आर्थिक प्रतिफल सिर्फ गरीबी-पिछड़ापन है. या दूसरा भविष्य संवारने या आगे बढ़ने की राजनीति, जिसका प्रतिफल तेज आर्थिक विकास है.
अंगरेजी के प्रख्यात कवि राबर्ट फास्ट की एक बड़ी मशहूर कविता है, जिसका आशय है, जीवन में दो रास्ते थे. एक जिस पर सब चले थे. यानी बोलचाल की भाषा में चलताऊ राह! एक दूसरा रास्ता था, जो दरअसल रास्ता था ही नहीं, जंगल-पहाड़, ऊबड़-खाबड़. हम दूसरे रास्ते पर चले और इसी से इतिहास बन गया. बिहार के संदर्भ में इस कविता का संदेश है. एक राह रही है, द्वेष, हिंसा, कलह की जातीय राजनीति की, जिस पर बिहार दशकों चला और देश का कलंकित राज्य बना.
दूसरा रास्ता बिहार के लिए नया है, इस नयी राह पर कुछ वर्ष चलने पर ही बिहार की चर्चा देश-दुनिया में हुई कि बिहारी कुछ कर सकते हैं. यह राह ही बिहार के नये इतिहास का प्रवेश द्वार है. इसलिए हर बिहारी सजग हो जाएं, उसको किस राह जाना है?
दिनांक 03.06.2012

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