एक एहसास या भाव स्वतः ही विलीन हो जाता है. लेकिन, जब किसी एहसास के खत्म होने के बाद भी, यदि वहां कोई एहसास को देखनेवाला होता है, एक दर्शक होता है, महसूस करनेवाला या एक एक विचारक होता है, जो उस मूल बीते एहसास से अलग उसकी स्मृति बना रहता है, तो वहां पर भी द्वंद्व होता है.
यह समझना बहुत ही महत्वपूर्ण है कि हम किसी एहसास को, भाव को किस तरह देखते हैं. अब पल भर के लिए हम एक बहुत ही सामान्य एहसास या भाव या अनुभूति-जलन को लें. हम सब जानते हैं कि जलन क्या होती है. अब आप अपनी जलन को देखें. इसे आप कैसे देखते हैं? जब आप इस भाव को देखते हैं, आप जलन के अवलोकनकर्ता होते हैं, आप जलन को बदलने या उसके प्रारूप में बदलाव की कोशिश करते हैं, या उस जलन की व्याख्या करने की कोशिश करते हैं. आप देखिये कि आप किस तरह अपनी जलन को न्यायसंगत तर्कसंगत दिखाने की कोशिश करते हैं.
यहां पर एक तो अस्तित्व होता है, संवेदक होता है और एक चीज होती है जलन से अलग, जो कि जलन को देखती है. कुछ पल के लिए जलन गायब हो जाती है, पर फिर पुनः लौट आती है. वह लौट आती है, इसलिए कि आप वाकई उसकी ओर उस तरह नहीं देखते कि वह आपका ही हिस्सा है, आप ही हैं. जिस क्षण आप उस भाव को एक नाम देते हैं, किसी एहसास पर एक लेबल लगा देते हैं. आप पुनः अतीत के ढांचे से निकाल कर उसे अतीत का ही सातत्य दे देते हैं.
अतीत का वह ढांचा क्या है? वह है आपका वह दर्शक होना. वह अलग अपनी ही छवि जो शब्दों, कल्पनाओं और क्या सही है? और क्या गलत? इन विचारों के भेद से बनी है. किंतु यदि आप भाव को या एहसास को नाम नहीं देते, जिसके लिए कि बहुत ही होशपूर्ण होने की आवश्यकता है, तो तुरंत ही आप इस समझ के एक अन्य ही आयाम में पहुंच जाते हैं, जहां अवलोकनकर्ता नहीं होता, विचारक नहीं होता. वहां वह केंद्र नहीं होता, जहां से आप निर्णय करते हैं. जहां आप जानते हैं कि आप एहसास से अलग-कुछ नहीं हैं. तब वहां कोई भी ‘मैं’ नहीं होता, जो किसी एहसास को महसूसता है.
– जे कृष्णमूिर्त