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उपकार का अर्थ

इस पृथ्वी को कर्मभूमि कहा जाता है. अच्छे-बुरे सभी कर्म यहीं करने होते हैं. मनुष्य स्वर्गकाम होकर सत्कार्य करने पर स्वर्ग में जाकर देवता हो जाता है. इस अवस्था में वह कोई नया कर्म नहीं करता- वह तो बस, पृथ्वी पर किये हुए अपने सत्कर्मों के फलों का ही भोग करता है. और जब वे […]

इस पृथ्वी को कर्मभूमि कहा जाता है. अच्छे-बुरे सभी कर्म यहीं करने होते हैं. मनुष्य स्वर्गकाम होकर सत्कार्य करने पर स्वर्ग में जाकर देवता हो जाता है. इस अवस्था में वह कोई नया कर्म नहीं करता- वह तो बस, पृथ्वी पर किये हुए अपने सत्कर्मों के फलों का ही भोग करता है.

और जब वे सत्कर्म समाप्त हो जाते हैं, तो उसी समय जो असत् या बुरे कर्म उसने पृथ्वी पर किये थे, उन सबका संचित फल वेग के साथ उस पर आ जाता है और उसे वहां से फिर एक बार पृथ्वी पर घसीट लाता है. जब तुम कोई कर्म करो तब अन्य किसी बात का विचार ही मत करो, उसे एक उपासना के बतौर करो और उस समय तक के लिए उसमें अपना सारा तन-मन लगा दो. प्रेम सहितक र्म करो. प्रेम शब्द का यथार्थ अर्थ समझना बहुत कठिन है. बिना स्वाधीनता के प्रेम आ ही नहीं सकता.

दास में सच्चा प्रेम होना संभव नहीं. यदि तुम एक गुलाम मोल ले लो और उसे जंजीरों से बांध कर उससे अपने लिए काम करवाओ, तो वह कष्ट उठा कर किसी प्रकार काम करेगा अवश्य, पर उसमें किसी प्रकार का प्रेम नहीं रहेगा. इसी तरह जब हम संसार के लिए दासवत् कर्म करते हैं, तो उसके प्रति हमारा प्रेम नहीं रहता और इसलिए वह सच्चा कर्म नहीं हो सकता.

हम अपने बंधु-बांधवों के लिए जो कर्म करते हैं, यहां तक कि हम अपने स्वयं के लिए जो भी कर्म करते हैं, उसके बारे में भी ठीक यही बात है. स्वार्थ के लिए किया गया कार्य दास का कार्य है. और कोई कार्य स्वार्थ के लिए है अथवा नहीं, इसकी पहचान यह है कि प्रेम के साथ किया हुआ प्रत्येक कार्य आनंददायक होता है. सच्चे प्रेम के साथ किया हुआ कोई भी कार्य ऐसा नहीं है, जिसके फलस्वरूप शांति और आनंद न प्राप्त हो.

यह कर्म क्या है? संसार के प्रति उपकार करने का क्या अर्थ है? क्या हम सचमुच संसार का कोई उपकार कर सकते हैं? उपकार का अर्थ यदि ‘निरपेक्ष उपहार’ लिया जाये तो उत्तर है- नहीं, परंतु सापेक्ष दृष्टि से- हां. संसार के प्रति ऐसा कोई भी उपकार नहीं किया जा सकता, जो चिरस्थायी हो. यदि ऐसा कभी होता, तो यह संसार इस रूप में कभी नहीं रहता जैसा उसे हम आज देख रहे हैं.

– स्वामी विवेकानंद

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