विकास की मानवीय परत में उभरते ही मनुष्य को आत्मबोध की नयी उपलब्धि हस्तगत होती है. उसके भीतर रहनेवाली चेतना मनुष्य को ऊंचा उठाती, नीचे गिराती है. अन्य प्राणियों की तरह मात्र निर्वाह ही उसकी एकमात्र आवश्यकता नहीं है.
वरन् व्यक्तित्व का स्तर उठा कर जीवनसज्जा को, अनेक उपलब्धियों से अलंकृत करना भी एक विशिष्ट उद्देश्य है. जब तक यह विचारणा नहीं उठती, वस्तुत: मनुष्य नर-पशु रहता है. शारीरिक संरचना और मानसिक स्तर की दृष्टि से मनुष्य ही मूर्धन्य है. इसीलिए उसे सृष्टि का शिरोमणि कहा जाता है.
प्राणि जगत पर उसका अधिकार है. प्रकृति के अनेकानेक रहस्यों की परतें उसने खोली हैं और एक सीमा तक उस पर आधिपत्य भी प्राप्त किया है. विकास अविरल गति से चलता है, इसे मानवीय संदर्भ में भौतिक उन्नति एवं आध्यात्मिक प्रगति के नाम से जाना जाता है. यही उत्कर्ष की दो दिशाएं हैं. संपदाओं से सुसंपन्न व्यक्ति को अतिमानव कहा गया है और आत्मिक उत्कृष्टता को अतिमानस. भौतिक प्रगति से शरीर बल, बुद्धि बल, साधन बल, संगठन बल, कला कौशल आदि की गणना होती है, ऐसे लोग शासक, विद्वान आदि नामों से जाने जाते हैं.