हमारे जीवन में क्या छिपा था- कौन सा रहस्य, कौन सा स्वर्ग, कौन सा आनंद, कौन सी मुक्ति-उसका कोई अनुभव नहीं हो पाता और जीवन रिक्त हो जाता है! जो लोग जीवन की संपदा को पत्थर मान कर बैठ गये हैं, वे कभी आंख खोल कर देख पायेंगे कि जिन्हें उन्होंने पत्थर समझा है वे हीरे हैं, माणिक हैं.
जिन लोगों ने जीवन को पत्थर मान कर फेंकने में ही समय गंवा दिया है, अगर आज उनसे कोई कहने जाये कि जिन्हें तुम पत्थर समझ कर फेंक रहे थे, वहां हीरे-मोती भी थे, तो वे नाराज होंगे, क्रोध से भर जायेंगे. इसलिए नहीं कि जो बात कही गयी, वह गलत है, बल्कि यह बात इस बात का स्मरण दिलाती है कि उन्होंने बहुत सी संपदा फेंक दी है. लेकिन चाहे हमने कितनी ही संपदा फेंक दी हो, अगर एक क्षण भी जीवन का शेष है, तो भी हम कुछ बचा सकते हैं, कुछ जान सकते हैं और पा सकते हैं.
जीवन की खोज में कभी भी इतनी देर नहीं होती कि कोई आदमी निराश होने का कारण पाये. लेकिन हमने यह मान ही लिया है. अंधेरे में, अज्ञान में कि जीवन में कुछ नहीं है सिवाय पत्थरों के! जो लोग ऐसा मान कर बैठ हैं, उन्होंने खोज के पहले ही हार स्वीकार कर ली है. जीवन में मिट्टी-पत्थर के बीच भी बहुत कुछ छिपा है.
अगर खोजनेवाली आंखें हों, तो जीवन से वह सीढ़ी भी निकलती है, जो परमात्मा तक पहुंचती है. इस साधारण सी देह में, जो आज जन्मती है, कल मर जाती है और मिट्टी हो जाती है, उसका वास भी है जो अमृत है, जो कभी जन्मता नहीं और कभी समाप्त भी नहीं होता है.
आचार्य रजनीश ‘ओशो’