women’s day : इस जवाब का सामना मुझे अक्सर करना पड़ता है, ‘मैं? मैं तो कुछ नहीं करती. घर पे रहती हूं, हाउसवाइफ हूं.’ जब कोई दंपती कहीं मिल जाएं, तब अक्सर पुरुष आगे बढ़ कर अपना परिचय देता है. उनकी मिसेज पीछे खड़ी रहती है. चुपचाप नमस्ते करती है. जैसे पुरुष से पूछता हूं, वैसे ही महिला से भी पूछता हूं, ‘और आप क्या करती हैं?’ इरादा उनकी उपस्थिति को दर्ज करने और बातचीत में उन्हें शामिल करने का होता है, उनकी कमाई के स्रोत के बारे में पूछना नहीं. लेकिन अगर वह महिला गृहिणी हो, तो अक्सर सकुचा जाती है, खासतौर पर अगर वह पढ़ी-लिखी आधुनिक महिला हो. वह झेंप कर कहती है कि ‘कुछ नहीं’ करती.
इस उत्तर से मैं परेशान हो जाता हूं. कहता हूं कि घर पर काम करना तो ‘कुछ नहीं’ की श्रेणी में नहीं आता. खुद अपनी मिसाल देता हूं. एक बार मुझे तीन हफ्ते के लिए अकेले दोनों छोटे बच्चों को संभालना पड़ा था. विदेश था, इसलिए किसी तरह की पारिवारिक मदद नहीं थी. वहां मजदूरी इतनी ज्यादा है कि पैसे देकर घरेलू काम करवाने की हैसियत बहुत कम लोगों की होती है. इसलिए बच्चों को तैयार करने, स्कूल छोड़ने से लेकर रसोई-बर्तन और झाड़ू-पोछा सब काम अपने हाथ से करना पड़ता था. तीन हफ्ते तक ‘कुछ नहीं’ करते-करते मेरी कमर टूट गयी थी. इसलिए जब कोई ‘कुछ नहीं’ कहता है, तो मुझे ध्यान आता है कि यह कितनी मेहनत का काम है. यह किस्सा सुनकर गृहिणी के चेहरे पर मुस्कान आती है, लेकिन दिल और दिमाग पर पड़ी लकीर को आप एक किस्से से तो पोंछ नहीं सकते.
समाज को कैसे समझाएं कि औरत कितना काम करती है. यूं तो प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत नहीं होनी चाहिए, लेकिन हाल ही में एक आधिकारिक रिपोर्ट ने मेरी इस धारणा की पुष्टि कर दी कि दरअसल एक औसत महिला एक औसत पुरुष से ज्यादा काम करती है. यह कोई छोटा-मोटा अध्ययन या कोई शौकिया आंकड़ा नहीं है. भारत सरकार ने पिछले पांच साल से आधिकारिक रूप से अखिल भारतीय स्तर पर ‘टाइम यूज’ सर्वे करवाना शुरू किया है. पांच साल के अंतराल के बाद नेशनल सैंपल सर्वे (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण) द्वारा किये जाने वाले इस सर्वेक्षण में देश के लगभग डेढ़ लाख परिवारों के छह साल से बड़े सभी सदस्यों का सर्वेक्षण किया जाता है. इस सर्वेक्षण में उनके घर जाकर उनसे पूछा जाता है कि आपने कल सुबह चार बजे से लेकर आज सुबह चार बजे तक क्या कुछ किया. हर आधे घंटे या उससे भी कम समयावधि में किये हर काम का ब्योरा दर्ज कर उसका विश्लेषण किया जाता है इसकी रिपोर्ट में. इसकी पहली रिपोर्ट 2019 में आयी थी. दूसरी रिपोर्ट हाल ही में केंद्र सरकार ने सार्वजनिक की है.
वर्ष 2024 के आंकड़े पर आधारित यह नवीनतम रिपोर्ट बताती है कि हमारे देश में एक औसत महिला हर दिन एक औसत पुरुष की तुलना में एक घंटा ज्यादा काम करती है. सटीक आंकड़े देखें, तो हर पुरुष प्रतिदिन 307 मिनट (यानी पांच घंटे और सात मिनट) काम करता है, तो एक औसत महिला प्रतिदिन 367 मिनट (यानी छह घंटे और सात मिनट) काम करती है. फर्क यह है कि पुरुष को अधिकांश काम की कमाई मिलती है, लेकिन महिला के अधिकांश काम की कमाई नहीं होती. एक औसत पुरुष के 307 मिनट में 251 मिनट का काम पैसे देता है, उसके सिर्फ 56 मिनट ऐसे काम में लगते है, जिसकी कमाई नहीं होती, लेकिन महिला की स्थिति ठीक उल्टी है. उसके 367 मिनट में सिर्फ 62 मिनट के काम से कमाई होती है और 305 मिनट का काम ‘कुछ नहीं’ की श्रेणी में रह जाता है. यानी सिर्फ इतना कहना ठीक नहीं है कि आदमी बाहर का काम करता है और महिला घर का. अंदर-बाहर, दोनों काम जोड़ दें, तो महिला का काम भारी होता है.
अभी 2024 के सभी आंकड़े नहीं आये हैं, लेकिन 2019 के आंकड़े देख कर हम कुछ गहराई में जा सकते हैं. यह ‘कुछ नहीं’ वाला काम मुख्यतः दो श्रेणी में आता है- एक तो घर में रसोई, सफाई, कपड़ा धोना, पानी भरना जैसा घर चलाने का काम और दूसरा बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल का काम. इन दोनों तरह के कामों में महिला पर बोझ हर वर्ग के परिवार में देखा जा सकता है. यह एक सामान्य भ्रांति है कि अगर महिला कमाने लग जाए, तो यह बोझ घट जाता है. यह रिपोर्ट बताती है कि दरअसल ‘कामकाजी’ यानी पैसा कमाने वाली महिला दोनों तरफ से पिसती है. ग्रामीण परिवार में कमाने के लिए काम करने के बाद भी इन दोनों घरेलू कामों में महिला औसतन 348 मिनट खर्च करती है, तो शहरी परिवार में भी 316 मिनट. अगर पुरुष बेरोजगार हो, तब भी वह घर के काम में हाथ नहीं बंटाता.
पिछली रिपोर्ट इस भ्रांति का भी खंडन करती है कि औरतें साज-शृंगार में ज्यादा समय खर्च करती हैं. एक दिन में पुरुष को औसतन नहाने-धोने, तैयार होने में 74 मिनट लगाते हैं, महिलाओं को उससे कम 68 मिनट. खाने-पीने में भी पुरुष महिलाओं से 10 मिनट फालतू लेते हैं. गृहिणी को सुस्ताने, आराम करने, बातचीत करने और मनोरंजन के लिए दिन में 113 मिनट मिलते हैं, जबकि पुरुष को 127 मिनट.
अब सवाल यह उठता है कि यह कौन तय करता है, किस काम के लिए पैसा मिले और किसके लिए नहीं? जाहिर है, यह काम के महत्व के आधार पर तय नहीं होता. दफ्तर और फैक्ट्री के काम के बिना तो फिर भी दुनिया चल सकती है, लेकिन रसोई और बच्चों की देखभाल के बिना नहीं. पुरुष प्रधान समाज ने अपने फायदे के लिए यह व्यवस्था बना रखी है. तो क्या इस अन्याय को ठीक करने की कोई व्यवस्था नहीं होनी चाहिए? पिछले कुछ वर्षों में अनेक राज्यों में महिलाओं को कुछ पैसा नियमित रूप से देने का चलन निकला है. अलग-अलग नाम से चली इन योजनाओं को पैसा बांटने की खतरनाक प्रवृत्ति के रूप में देखा और दिखाया गया है, लेकिन अगर यह देश पुरुषों से ज्यादा महिलाओं की मेहनत पर चल रहा है, तो राष्ट्र निर्माण में उनके इस योगदान के एवज में उन्हें कुछ भुगतान करने में क्या बुरा है? इसे चुनाव से पहले रिश्वत या भीख की तरह देने की बजाय क्यों नहीं महिलाओं के लिए ‘कृतज्ञता निधि’ जैसी कोई राष्ट्रव्यापी योजना बनायी जाती? आठ मार्च यानी महिला दिवस पर देश में इस पर विचार क्यों नहीं होता?
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)