International Mother Language Day: भाषाओं में इस बदलाव की वजह उदारीकरण और संचार क्रांति की वजह से विकसित हुआ तंत्र है. विशेषकर स्थानीय भाषाओं का अपना शब्द संसार लगातार कम होता जा रहा है. उदारीकरण और संचार क्रांति ने भाषाओं को उन्हें प्रयोग करने वाले क्षेत्र और समुदाय विशेष से बाहरी समुदायों और क्षेत्रों तक पहुंच बनायी है. इस पहुंच के जरिये उनकी पहचान भी बढ़ी है. उदाहरण के लिए हिंदी को ही लेते हैं. उसका प्रसार बाजार और उदारीकरण ने सिनेमा और मीडिया के दूसरे माध्यमों की बनिस्बत कहीं ज्यादा किया है. लेकिन उदारीकरण वाले बाजार की अपनी जरूरत होती है, लिहाजा उन जरूरतों के लिहाज से वह शब्दावली भी विकसित कर लेती है. कोई भी वाद जब आता है, बदलाव लाता है, तो वह संस्कृतियों और परंपराओं में भी हस्तक्षेप करता है, समुदाय विशेष की जरूरतों में अपने हिसाब से कुछ चीजों को जोड़ता भी है. इस प्रक्रिया में समुदाय विशेष अपनी कुछ पारंपरिक चीजें पीछे भी छोड़ता जाता है. इसमें कुछ आदतें भी होती हैं, कुछ शब्द भी, तो कुछ काम भी. इस बीच पीढ़ियां बदल जाती हैं, तो वे शब्द समुदाय की सामूहिक स्मृतियों से दूर हो जाते हैं. भारतीय भाषाएं इस तरह के खतरे से दो चार हो रही हैं.
स्थानीय भाषाओं की पारंपरिक शब्द संपदा होती जा रही खत्म
इस देश में सैकड़ों भाषाएं और बोलियां हैं तथा हर समुदाय इन्हें अपने हिसाब से व्यवहार में लाता रहा है. लेकिन उदारीकरण के बाद बहुत कुछ बदल गया है. बदलते दौर में बाजार के अनुकूल त्योहार, जैसे-होली, दिवाली, पोंगल आदि ही बचे हुए हैं. हालांकि उनका मूल रूप कहीं खोता जा रहा है. नयी पीढ़ी ने चूंकि बुनियादी या मूल रूप को नहीं देखा, खेत में पारंपरिक निराई, बुवाई आदि नहीं देखी, चक्की-रहट नहीं देखा, कुएं से ढेंकली के सहारे निकाले जाने वाले पानी की प्रक्रिया नहीं देखी, अमावट बनाने की पारंपरिक विधि नहीं देखी, सामूहिक खेती का रूप नहीं देखा, त्योहार के पारंपरिक रूप नहीं देखे, त्योहारों में शिल्पकारों और स्थानीय कारीगरों की जरूरत नहीं समझी, चूल्हा जलाने के लिए पारंपरिक आग बांटने की परंपरा से वह अनजान है, इस वजह से वह उस परंपरा, संस्कृति से अनजान तो है ही, उन परंपराओं, संस्कृतियों, कामों, जरूरतों आदि को व्यक्त करने वाले शब्दों से भी अनजान होती जा रही है. इस तरह देखें, तो स्थानीय भाषाओं की अपनी एक जो पारंपरिक शब्द संपदा रही है, वह लगातार खत्म होती जा रही है.
उदारीकरण और विकासवाद के जरिये खत्म हो रही शाब्दिक और भाषाई थाती
जब ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी की सालाना रिपोर्ट में बताया जाता है कि हमारी किसी भाषा के कितने शब्द उसमें शामिल हुए हैं, तो हम खुशी और गर्व बोध से भर जाते हैं. वैसे भी लंबे समय तक गुलाम रहने के चलते हमारी मानसिकता इस कदर विकसित हो गयी है कि अंग्रेजी भाषी देशों से मिली मान्यता हमें अमोल लगने लगती है. हमारा गर्वबोध बढ़ जाता है. लेकिन हमें यह भी चिंता करनी होगी कि उदारीकरण और विकासवाद के जरिये हमारी अपनी शाब्दिक और भाषाई थाती किस कदर खत्म हो रही है. बेशक कुछ स्थानीय संचार और विज्ञापनों के लिए स्थानीय भाषाओं का इस्तेमाल हो रहा है. लेकिन बाजार को संचालित करने वाली ताकतों की सोच और चिंतन की भाषा अंग्रेजी ही है. हम कह सकते हैं कि बाजार, संचार क्रांति और उदारीकरण के चलते स्थानीय भाषाओं का विशेष रूप से सरकारी और कॉरपोरेट कामकाज या विज्ञापन के लिए व्यवहार हो रहा है, लेकिन बुनियादी रूप से उन्हें अंग्रेजी में ही सोचा जा रहा है, और स्थानीय भाषाओं में उनका अनुवाद हो रहा है. अनुवाद और मूल भाषा के बीच अंतर होता है.
बाजार पर एक या दो भाषाओं का वर्चस्व
मूल लेखन में स्थानीय सांस्कृतिक प्रभाव ज्यादा होता है. अनुवाद यहां पिछड़ जाता है. भारतीय स्थानीय भाषाएं इसी वजह से छीज रही हैं. बाजार पर एक या दो भाषाओं का वर्चस्व है. इसका असर स्थानीय भाषाओं पर पड़ रहा है. उनकी शब्द संपदा का छीजना और पारंपरिक शब्दों का लोप होना इसी प्रक्रिया का विस्तार है. वक्त आ गया है कि संस्कृति के अपने उपादान, संस्कृति और समुदाय विशेष की स्पष्ट अभिव्यक्ति की भाषाओं को इस नजरिये से भी बचाने की कोशिश शुरू हो. मातृभाषा दिवस पर हमारा यही संकल्प होना चाहिए.
( ये लेखक के निजी विचार हैं.)