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राष्ट्रीय राजनीति में दक्षिण के मसाले

।। मोहन गुरुस्वामी।। (वरिष्ठ अर्थशास्त्री) लोकसभा की कुल 543 सीटों में से 131 सीटें यानी लगभग एक-चौथाई दक्षिण भारत के चार राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों-पुड्डुचेरी व लक्षद्वीप-में हैं. इस क्षेत्र की राजनीति में कांग्रेस, माकपा और तेलुगु देशम तथा दोनों द्रमुक सहित कुछ उप-क्षेत्रीय दलों का दबदबा रहता है. आंध्र प्रदेश आमतौर से […]

।। मोहन गुरुस्वामी।।

(वरिष्ठ अर्थशास्त्री)

लोकसभा की कुल 543 सीटों में से 131 सीटें यानी लगभग एक-चौथाई दक्षिण भारत के चार राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों-पुड्डुचेरी व लक्षद्वीप-में हैं. इस क्षेत्र की राजनीति में कांग्रेस, माकपा और तेलुगु देशम तथा दोनों द्रमुक सहित कुछ उप-क्षेत्रीय दलों का दबदबा रहता है. आंध्र प्रदेश आमतौर से कांग्रेस के प्रति बड़ा उदार रहा है और 1977 जैसी बहुत कठिन परिस्थितियों में भी उसे सहारा दिया है. 42 सीटों वाले इस राज्य में 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को देश के किसी अन्य राज्य से अधिक सीटें मिली थीं. आंध्र की जीत के बिना 2004 में यूपीए का सत्ता में आ पाना असंभव था. इस बार यहां से कांग्रेस को शायद ही कुछ मिल सकेगा. तेलंगाना आंदोलन और इस प्रकरण में यूपीए की कारस्तानी की वजह से यह स्थिति बनी है.

तेलंगाना क्षेत्र में अलग राज्य के लिए चले आंदोलन की अगुवाई करनेवाले तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) ने राज्य बनने की घोषणा के बाद कांग्रेस से किनारा कर लिया है, जबकि इससे पहले टीआरएस कांग्रेस में विलय का वादा कर रही थी. अब यह अकेले चुनाव में जा रही है और एनडीए व तीसरे मोरचे से चुनाव बाद के गठबंधन की संभावना तलाश रही है. तेलंगाना की 17 सीटों में शायद ही कोई उदारमना हो, जो कांग्रेस को मौका देने के पक्ष में है. मुसलिम-बहुल हैदराबाद की सीट पारंपरिक रूप से मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन के हाथ में रही है. सिकंदराबाद में आंध्र के लोगों की अनुमानितसंख्या लगभग 35 प्रतिशत है. इस समुदाय में टीआरएस प्रमुख के चंद्रशेखर राव के ‘आंध्र भगाओ’ के उत्तेजक नारे से कुछ हद तक असुरक्षा का एहसास है.

अब मजलिस ने इन दोनों शहरों में बैनर लगाये हैं कि शहर में रह रहे किसी भी भारतीय नागरिक की सुरक्षा की जिम्मेवारी मजलिस की है. चूंकि सिकंदराबाद में अच्छी-खासी मुसलिम आबादी रहती है. मजलिस की इस पहल से मुसलिम और आंध्र के बाशिंदों के बीच एका की संभावना बनी है. दूसरी ओर, आंध्र के इन बाशिंदों में और दोनों शहरों में इसके मुसलिम विरोधी रुख के कारण भाजपा की पैठ है. दोनों ओर से दबाव ङोल रहे वर्तमान कांग्रेस सांसद और राहुल गांधी का करीबी होने का दावा करनेवाले अंजन यादव की जीत की उम्मीद बहुत ही कम है. इन दो सीटों पर नाउम्मीद कांग्रेस को शेष 15 सीटों पर दावं लगाना है. जगन रेड्डी के वाइएसआर के आने के बाद सीमांध्र में जीत की संभावना नहीं होने के कारण ही कांग्रेस ने राज्य के विभाजन पर हड़बड़ी दिखायी. अब तेलंगाना में टीआरएस उसके गणित को बिगाड़ रहा है. अगर किसी बड़े प्रलोभन से टीआरएस का दिल नहीं पसीजता है, तो आशंका है कि कांग्रेस तेलंगाना में खाता भी नहीं खोल पाये. इन दो तेलुगु भाषी राज्यों के समर्थन के बिना कांग्रेस का किसी गठबंधन के अगुआ के रूप में दिल्ली की सत्ता पर काबिज होना लगभग नामुमकिन है.

कांग्रेस की सबसे अच्छी स्थिति कर्नाटक में है, जहां 28 सीटें हैं. अपनी पिछली सरकार के दौरान व्याप्त भारी भ्रष्टाचार के चलते भाजपा खस्ताहाल है. येदियुरप्पा आम बोलचाल में सरकारी भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुके हैं. विधानसभा चुनाव में भाजपा को हरवाने के बाद वे और कुख्यात बेल्लारी बंधु अब फिर भाजपा में शामिल हो गये हैं. अब देखना यह है कि मतदाता इन बातों को कैसे लेता है. संकेत ये हैं कि जनता यह सब आसानी से निगलनेवाली नहीं है. राज्य के कांग्रेसी मुख्यमंत्री और पूर्व लोहिया समर्थक एस सिद्धरमैया पिछड़ा समुदाय कुरुबा से हैं तथा उनकी छवि स्वच्छ और कर्मठ मंत्री की रही है. उनकी सरकार का अब तक का कामकाज संतोषजनक रहा है और उन्होंने ताकतवर लिंगायत और वोक्कालिंगा जातियों की चुनौती को भी किनारे रखा है.

बेंगलुरु में इस बार दो खरबपति चुनावी राजनीति में कदम रख रहे हैं- नंदन नीलेकणी दक्षिण बंेगलुरु से कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में भाजपा के पुराने खिलाड़ी, और कुछ हद तक दागी, अनंत कुमार को चुनौती दे रहे हैं. इन्फोसिस में उनके सहयोगी रहे वी बालाकृष्णन बंेगलुरु मध्य से ‘आप’ प्रत्याशी हैं. पूरे राज्य में भाजपा की उम्मीद बने मोदी की लहर से कड़ा मुकाबला देखने को मिलेगा. यहां बड़ा सवाल यह है कि क्या मोदी के पक्ष में चल रही लहर येदियुरप्पा विरोधी लहर को दबा सकेगी, और क्या सिद्धरमैया के पक्ष में चल रही लहर कांग्रेस की भ्रष्टाचार विरोधी अंतर्धारा को रोक पायेगी?

तमिलनाडु का चुनाव हमेशा की तरह दो मुख्य द्रविड़ पार्टियों के बीच है. यहां दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां- कांग्रेस और भाजपा- इन दलों की लटकन ही बनी रहती है. इस बार दोनों द्रविड़ दल किसी राष्ट्रीय पार्टी को साथ लिये बिना राज्य की 39 और पुड्डुचेरी की एक सीट के लिए आमने-सामने होंगी. इन दलों ने हमेशा ही पाला बदलने और गठबंधन बनाने में बड़ी चालाकी दिखायी है. इस दफे वे कहां होंगे, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि देश और राज्य के परिणाम क्या होंगे. हाल-फिलहाल में जयललिता ने प्रधानमंत्री बनने के अपने मंसूबे को साफ जता दिया है, और वे ममता बनर्जी तथा मायावती के साथ तीन देवियों की त्रिमूर्ति बनाने की जुगत में हैं. ऐसे में इन तेजतर्रार अस्थिर सितारों के पुंज को देखना बड़ा दिलचस्प होगा.

केरल की लड़ाई कांग्रेस और माकपा के नेतृत्व वाले गठबंधनों के बीच ही होती रही है. एक जैसे विचार और कार्यशैली वाले इन दोनों पक्षों का हिसाब बहुत छोटे-छोटे चुनावी बदलावों पर निर्भर करता है. 2009 में कांग्रेस गठबंधन को 20 में से 16 और वाम मोरचे को चार सीटें मिली थीं. वाम मोरचे को 2004 में जीती 11 सीटों से हाथ धोना पड़ा था. पिछले वर्षो में माकपा पिनरई विजयन तथा वीएस अच्युतानंदन के बीच घमासान से जूझ रही है. विजयन गुट के विरुद्ध लगे भ्रष्टाचार के आरोप बड़े सनसनी बने हैं. इनके किस्से भी दूरसंचार और कोयला घोटाले की कहानियों की तरह केरल में छाये रहे थे. कांग्रेस के भ्रष्टाचार के बावजूद वहां उसके सबसे बड़े नेता एके एंटनी की छवि बेदाग बनी हुई है.

केरल के परिणाम चाहे जो हों, दक्षिण भारत की स्थिति से कांग्रेस के बहुत खुश होने की संभावना नहीं है. लेकिन इस चुनाव का दुखद पहलू यह है कि कोई भी महत्वपूर्ण मुद्दा बहस में नहीं है. दक्षिण के राज्य देश के सबसे संपन्न क्षेत्र हैं, लेकिन इसमें गिरावट आ रही है. चीन की तरह जनसंख्या का बूढ़ा होते जाना भी चिंताजनक है. इन राज्यों में बिहार, ओड़िशा और पूर्वोत्तर से बड़ा प्रवासन हुआ है. इन सब समस्याओं पर इस चुनाव में अब तक कोई विचार-विमर्श देखने में नहीं आया है.

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