भारत में दवाओं की गुणवत्ता जांचने की व्यवस्था पर फिर एक बड़ा सवालिया निशान लगा है. यूरोपियन मेडिसिंस एजेंसी ने चेन्नई की एक शोध प्रयोगशाला द्वारा सही पायी गयीं 300 दवाओं पर रोक लगाने की सिफारिश की है. इस पर अंतिम निर्णय यूरोपीय संघ को लेना है. एजेंसी ने जांच रिपोर्ट को अविश्वसनीय बताते हुए यह भी कहा है कि इन दवाओं के उपयोग से हुए कुप्रभाव या इनके अप्रभावी होने के प्रमाण नहीं मिले हैं.
जिन दवाओं पर रोक लगायी गयी है, उनमें अधिकतर डायबिटीज, दर्द और ब्लड प्रेशर जैसी समस्याओं में ली जानेवाली आम दवाएं हैं. इन दवाओं का परीक्षण करनेवाली कंपनी जैसी अनेक कंपनियां भारत में हैं. इन्हें कॉन्ट्रैक्ट रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (सीआरओ) कहा जाता है.
वर्ष 2015 में एक अन्य भारतीय रिसर्च कंपनी द्वारा प्रमाणित 700 दवाओं को यूरोप में प्रतिबंधित कर दिया गया था. कुछ अन्य कंपनियों के रिपोर्ट को भी गुणवत्ता के मानदंडों पर खरा नहीं उतरने के कारण खारिज किया गया है. इसका एक नतीजा यह हुआ है कि पिछले तीन साल से अनेक बड़ी कंपनियां अपनी दवाओं के परीक्षण के लिए अमेरिकी और यूरोपीय प्रयोगशालाओं का रुख कर रही हैं. इस प्रकरण से दो अहम बातें सामने आती हैं.
एक यह कि यदि परीक्षण का स्तर नहीं सुधारा गया, तो भारतीय दवाओं के विदेशी बाजार पर इसका नकारात्मक असर पड़ेगा. भारत दुनिया में जेनेरिक दवाओं का सबसे बड़ा निर्यातक है. इस क्षेत्र में वैश्विक बाजार में भारत का हिस्सा 20 फीसदी है. दूसरी बात देश के भीतर बेची जानेवाली दवाओं से जुड़ी हुई है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के एक हालिया सर्वेक्षण में अनुसार, देश में बेची जा रहीं 0.3 फीसदी दवाएं नकली हैं, 3.16 फीसदी गुणावत्ताविहीन हैं तथा चार से पांच फीसदी मानक स्तरों से निम्न कोटि की हैं.
एसोचैम की रिपोर्ट कहती है कि कुल दवाओं में से 12.5 फीसदी से 25 फीसदी दवाएं नकली हैं. जानकारों का मानना है कि भारत नकली दवाओं का तीसरा सबसे बड़ा बाजार है. ऐसे में सरकार को इस अव्यवस्था और लापरवाही को सुधारने के लिए ठोस और सार्थक कदम उठाना चाहिए. देश की अर्थव्यवस्था और स्वास्थ्य दोनों की बेहतरी के लिए यह करना जरूरी हो गया है.