अनुज सिन्हा
(वरिष्ठ संपादक
प्रभात खबर)
मां या बाप का अपने दायित्व से भागना स्वीकार्य नहीं है. प्रकृति ने एक नियम बनाया है और हमें उसका पालन करना चाहिए. जैसा हम बोयेंगे, वैसा ही काटेंगे. भारतीय संस्कृति में माता-पिता का दायित्व है कि वो अपने बच्चों को तब तक देखें जब तक कि वे अपने पैरों पर खड़े न हो जायें, बड़े न हो जायें.
न दिन पहले एक खबर आयी. पत्नी की मौत के बाद एक शख्स अपनी साली से शादी कर अपने चार बच्चों को छोड़ कर फरार हो गया है. बच्चे भीख मांग कर किसी तरह पेट भर रहे हैं. सबसे बड़ा बच्च दस साल का और सबसे छोटा छह साल का है जिसकी छाती की हड्डी गिनी जा सकती है. यह खबर बेचैन करनेवाली थी.
मैं भी बेचैन हुआ. हमने खबर प्रमुखता से छापी. इसके बाद जिस तरीके से पूरा समाज उन बच्चों की सहायता के लिए आगे आया, हाइकोर्ट से लेकर प्रशासन, नेता, समाजसेवी संगठन, आम लोग सभी सक्रिय हुए, वही तो हमारे समाज की असली ताकत है. इससे यही संदेश गया कि समाज के किसी व्यक्ति को दर्द होता है तो दूसरा उसे महसूस करता है.
यह बात हुई हमारे सजग समाज की. अब बात हो उस पिता की, जो अपने स्वार्थ में पितृधर्म भूल गया. पत्नी की मौत के बाद उसने शादी की, इस पर किसी को आपत्ति नहीं. यह उसका अपना फैसला था, पर वह कैसे भूल सकता है कि इन चारों बच्चों की परवरिश की जिम्मेवारी भी उसकी ही है. जब जन्म दिया है तो बच्चों का पालन-पोषण करने से भाग नहीं सकते. न ही कानून आपको इसकी इजाजत देता है.
इन बच्चों ने मां को खो दिया था. उसकी भरपाई पिता को करनी थी. उसे ही मां और बाप दोनों का प्यार देना था. प्यार देना तो छोड़ दें, भूखे मरने के लिए छोड़ कर भाग गया! यह कायरता है, स्वार्थ की पराकाष्ठा है. दुनिया सलाम करती, अगर वह अपना पूरा जीवन बच्चों को पालने में लगा देता, उन्हें इनसान बनाने में लगा देता. बाप सड़क पर नहीं था. सीसीएल में नौकरी करता है. अच्छा-खासा कमाता है.
चाहता तो बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सकता था. बेहतर भोजन दे सकता था. लेकिन भाग गया. उसके बाद जो हुआ, वह सुनिए. जब भूख से रहा नहीं गया तो छोटे बच्चे ने नालियों में खाना ढूंढ़ा, ताकि जिंदा रह सके. बाप नयी पत्नी के साथ मजा कर रहा हो और बच्चा नालियों में खाना तलाश रहा हो, यह डूब मरने जैसा है.
समाज में अनेक ऐसे उदाहरण हैं जिनमें पत्नी की मौत के बाद पति ने दुबारा शादी नहीं की और सारा जीवन बच्चों को पालने में लगा दिया. हजारों ऐसे उदाहरण हैं जब जवानी में ही पति की मौत के बाद मां ने मजदूरी कर, खुद आधा पेट खा कर भी अपने बच्चों को पाला, उन्हें अच्छी शिक्षा दी. अच्छा इनसान बनाया, अच्छे संस्कार दिये और अपने पैरों पर खड़ा किया. ऐसे बाप या ऐसी मां को दुनिया प्रणाम करती है.
कुल मिला कर, मां या बाप का अपने दायित्व से भागना स्वीकार्य नहीं है. इस बात को कैसे भूला जा सकता है कि प्रकृति ने एक नियम बनाया है और उसका पालन करना चाहिए. जैसा हम बोयेंगे, वैसा ही काटेंगे. भारतीय संस्कृति में माता-पिता का दायित्व है कि वो अपने बच्चों को तब तक देखें जब तक कि वे अपने पैरों पर खड़े न हो जायें, बड़े न हो जायें.
और, फिर बाद में जब माता-पिता बूढ़े हो जायें तो औलाद (पुत्र या पुत्री) का दायित्व है कि वह अपने बुजुर्ग मां-बाप की देखभाल करे. अगर पिता अपनी जवानी में अपने बच्चों को लावारिस छोड़ देता है, देखभाल नहीं करता तो उसे भी बुढ़ापे में कष्ट भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए. बेहतर होगा कि हर कोई अपना दायित्व निभाये. इसका अपना सुख है. तमाम गिरावट के बावजूद भारत अब भी पाश्चात्य देश नहीं बना है जहां बात-बात पर तलाक हो जाता हो.
मां-बाप अलग हो जाते हैं और बच्चों का जीवन नरक बन जाता है. भारत, भारत इसलिए है क्योंकि यहां के सामाजिक बंधनों में ताकत है. इन्हें जिंदा रखना, मजबूत रखना हम सभी का धर्म है, कर्तव्य है. यह तभी हो सकता है जब मां-पिता, पुत्र-पुत्रियां अपना दायित्व निभायें.
चौक-चौराहे, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, बाजार में छोटे-छोटे बच्चे आपके आगे हाथ फैलाते मिल जायेंगे. इन्हें कभी दुत्कारिए मत. ये भी हमारे समाज के बच्चे हैं. ये परिस्थिति के मारे हैं. इनके माता-पिता ने दायित्व नहीं निभाया (उनकी मजबूरी हो सकती है), इन्हें अवसर नहीं मिला, इसलिए इनकी ये हालत है. आपके पास साधन है तो जरूर मदद के लिए खड़े होइए, बहुत संतोष मिलेगा.