।। अजय सिंह ।।
एडिटर, गवर्नेस नाउ
अराजकीय तत्व के दबाव में प्रकाशक को अपनी ही कृति नष्ट करनी पड़ रही है और इस प्रक्रिया में राज्य की खामोश मिलीभगत है. देखना दिलचस्प होगा कि डॉनिगर की किताब को ध्वंस करने पर मजबूर करनेवाले अपने तर्क को कहां तक ले जाते हैं.
बरसों तक मुझे यही सिखाया गया था कि ‘रिकॉल’ शब्द यादाश्त से जुड़ा है. लेकिन 1997 में इस शब्द के एक अलग अर्थ से मेरा सामना हुआ, जब मुझे बताया गया कि सालभर पहले खरीदी गयी मेरी पहली कार ‘मारुति 800’ को किसी निर्माण-संबंधी गड़बड़ी को ठीक करने के लिए रिकॉल (वापस बुलाया) किया जा रहा है. मैं सेवा केंद्र गया, जहां मेरी गाड़ी को ‘रिकॉल’ किया गया था और करीब पांच घंटे में ठीक होकर गाड़ी मुझे मिल गयी.
बाद में पता चला कि वाहन उद्योग में ‘रिकॉल’ शब्द अकसर ग्राहकों के प्रति कंपनी की देखभाल और मुस्तैद रवैये की अभिव्यक्ति है. ‘रिकॉल’ के बारे में मेरे बोध की अपूर्णता का अहसास तब पुन: हुआ, जब वेंडी डॉनिगर की किताब ‘द हिंदूज : एन ऑल्टरनेटिव हिस्ट्री के संदर्भ में मेरा सामना एक बार फिर इस शब्द से हुआ. भारत में इस किताब के प्रकाशक पेंगुइन बुक्स ने मंगलवार को अदालत में हलफनामा देकर कहा कि वह इसे ‘रिकॉल’ करेगी और छ: महीने के भीतर बची हुई प्रतियों की लुगदी बना देगी.
इसका मतलब क्या है? चार साल पहले इसके प्रकाशन के समय मैंने इसे खरीदा था. मैंने इसे पढ़ा, दोबारा पढ़ा तथा इतिहास और पौराणिकता पर शिकागो के इस प्रसिद्ध प्रोफेसर के अपरंपरागत दृष्टिकोण का आनंद उठाया, जिसका संस्कृत और हिंदू धर्म के इतिहास का ज्ञान सर्वविदित है. उन्होंने हिंदू धर्म पर नवीन परिप्रेक्ष्य रखा, इसके गूढ़ संस्कारों के अर्थ खोले और वैदिक ऋचाओं की सरल व बोधगम्य शब्दों में व्याख्या की.
उदाहरण के लिए, उन्होंने प्रभावशाली ढंग से इस तर्क का खंडन किया कि शाकाहार इस प्राचीन धर्म का बुनियादी तत्व था. अश्वमेध यज्ञ का उनका विश्लेषण और प्राचीन शास्त्रों में ब्राह्मणों द्वारा गो-मांस खाने के उद्धरणों का वर्णन अन्य तत्कालीन समाजों की तरह इस प्राचीन धर्म में भी पशु-बलि के प्रचलन की ओर इंगित करता है. साथ ही, स्त्री-कामुकता की एक प्रवृत्ति के प्रचलन को लेकर उनकी व्याख्या उतनी ही मुखर है, जो ‘हिंदुत्व ब्रिगेड’ की संज्ञा से जाने जानेवाले आधुनिक शुचितावादियों के दर्शन से मेल नहीं खाती.
उनके विवरण का सौंदर्य यह है कि उन्होंने शास्त्रों और धार्मिक पुस्तकों के ढेरों उद्धरण देकर सिद्ध किया है कि देवता भी दोषक्षम होते थे. दूसरे शब्दों में, ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’, जिस संज्ञा से भगवान राम विभूषित होते हैं, की विशिष्टताएं प्राचीन पुस्तकों में वर्णित पौराणिकता से अधिक कपोल-कल्पना का परिणाम हैं. वास्तव में, डॉनिगर की पुस्तक उन सबके लिए एक आनंद है जो इस मानसिकता से ग्रसित नहीं हैं कि हिंदू धर्म द्वारा उपदेशित और व्यवहृत हर चीज पवित्र और अनिंदनीय है.
अब जबकि दिल्ली की एक हिंदुत्व मंडली के दबाव में पेंगुइन इंडिया ने इस पुस्तक को वापस लेने का निर्णय लिया है, मैं 2009 में खरीदी गयी अपनी पुस्तक के भविष्य को लेकर भ्रम में हूं. क्या मुझे यह प्रति रखनी चाहिए या प्रकाशक को वापस करनी चाहिए? हालांकि मेरी मारुति कार की तरह प्रकाशक इसे वापस नहीं करेगा, बल्कि इसकी लुगदी बना देगा.इसका अर्थ यह है कि मेरी किताब लुगदी बन कर हमेशा के लिए अप्राप्य हो जायेगी. लेकिन क्या यह एक विद्वतापूर्ण रचना का ध्वंस नहीं है?
हम सभी जानते हैं कि यह ध्वंस है. फिर भी हम ‘रिकॉल’ या ‘विथड्रॉ’ जैसे शब्दों से खुद को मूर्ख बनाते हैं और प्रतिबंध तथा ध्वंस के लिए ऐसे शिष्ट शब्दों का प्रयोग करते हैं. सबसे भयानक तो यह बात है कि अराजकीय तत्व के दबाव में प्रकाशक को अपनी ही कृति नष्ट करनी पड़ रही है और इस प्रक्रिया में राज्य की खामोश मिलीभगत है. यह देखना दिलचस्प होगा कि डॉनिगर की किताब को ध्वंस करने के लिए मजबूर करनेवाले अपने तर्क को कहां तक ले जाते हैं.
हिंदू शास्त्र और शास्त्रीय परंपरा विरोधाभासों और मतांतरों से भरी पड़ी है. 19वीं सदी में ही ज्योतिबा फूले और पेरियार की रचनाएं अकसर दकियानूसी हिंदू धर्म, जिसकी पैरोकारी हिंदुत्व ब्रिगेड करता है, के विरुद्ध निंदा तक जा पहुंचती थीं. ऐसी अनेक लघु परंपराएं और पौराणिकताएं हैं, जो दक्षिणपंथी अतिवादियों की हिंदू धर्म की संहिताबद्ध परिभाषा के विरुद्ध हैं. क्या वे उनके नाश की भी कोशिश करेंगे?
पुस्तक की भूमिका की शुरुआत डॉनिगर मुल्ला नसीरुद्दीन के एक किस्से से करती हैं, जो इस प्रकार है- किसी ने मुल्ला नसीरुद्दीन को जमीन पर कुछ ढूंढ़ते हुए देखा. उसने पूछा, ‘मुल्ला, तुमने क्या खो दिया है?’. मेरी चाबी, मुल्ला ने कहा. अब दोनों घुटने के बल बैठ कर उसे ढूंढ़ने लगे. थोड़े समय के बाद उस आदमी ने पूछा, ‘तुमने उसे किस जगह गिराया था?’ ‘मेरे घर में.’ ‘तो फिर यहां क्यों ढूंढ़ रहे हो?’ ‘यहां मेरे घर से अधिक रोशनी है.’ यह सूफी दृष्टांत न सिर्फ भारतीय राज्य, बल्कि उस हिंदू धर्म की दशा का सार भी बताता है, जिसे असहिष्णु धर्माध एक कट्टर और संहिताबद्ध धर्म बनाने पर तुले हुए हैं.