देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण सुधार के रूप में लाये जा रहे वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) में तंबाकू पर मात्र 28 फीसदी कर के प्रस्ताव से कुछ नयी चिंताएं उपजी हैं. जीएसटी कौंसिल के इस रुख से कुछ तंबाकू उत्पादों की कीमतें घट जायेंगी, जो बड़ी आबादी के स्वास्थ्य के लिहाज से खतरनाक हो सकती है.
तीन हजार से अधिक टॉक्सिक रसायन और कैंसरकारी 25 तत्वों से युक्त तंबाकू की लत का शिकार हर तीसरा व्यक्ति समय से पहले काल-कवलित हो जाता है. इस खतरनाक उत्पाद के उपभोक्ताओं की संख्या के लिहाज से भारत दुनिया का दूसरा बड़ा देश है, जहां व्यस्क आबादी का करीब 35 फीसदी हिस्सा यानी 27.5 करोड़ लोग इसके लत की जद में है. एक अध्ययन के अनुसार, 10 फीसदी अवयस्क भी तंबाकू का सेवन करते हैं. हर साल 10 लाख से अधिक लोग तंबाकू से होनेवाली बीमारियों से मर जाते हैं.
ऐसी बीमारियों का खर्च एक लाख करोड़ रुपये से अधिक है, जो कि हमारे सकल घरेलू उत्पादन का 1.16 फीसदी है. ध्यान रहे, इसका बड़ा भाग सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली द्वारा वहन किया जाता है. इन भयावह आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि तंबाकू जैसे उत्पादों से राजस्व कमाने की पूरी समझ पर गंभीरता से सोच-विचार करने की जरूरत है. तंबाकू पर कराधान का मुख्य ध्यान सिगरेट उद्योग पर होता है, जबकि चबाये जानेवाले तंबाकू, बीड़ी, गुटखा, पान मसाला आदि कई कारणों से अधिक कर के दायरे से बाहर हैं या इनके कारोबारी कर चोरी करते हैं.
कुछ शोध बताते हैं कि करीब 90 फीसदी तंबाकू उत्पादों पर कर नहीं चुकाया जाता है और 70 फीसदी तक इसका उपभोग भी बिना कर चुकाये होता है. ऐसे में कर को 28 फीसदी तक सीमित रखना उचित नहीं कहा जा सकता. पहले इसे कम-से-कम 40 फीसदी रखने का सुझाव आया था.
विचार इस पर भी किया जाना चाहिए कि यदि तंबाकू के उत्पादन और सेवन को काफी हद तक सीमित किया जा सके, तो देश को कई स्तरों पर इसके लाभ मिल सकते हैं. कर चोरी की समस्या कम होगी, इलाज का बोझ कम होगा और स्वस्थ आबादी देश के तीव्रतर विकास का आधार बन सकेगी. इसलिए इस मुद्दे को सिर्फ कराधान और कर दरों के संकीर्ण संदर्भ में ही देखना उचित नहीं है.