।। एमजे अकबर वरिष्ठ पत्रकार।।
कब और क्यों राजनेता पाला बदलते हैं? इसका एकपक्षीय, लेकिन आसान जबाव ‘पैसा’ नहीं है. हमारे पास राजनेताओं की नैतिकता को लेकर निश्चित तौर पर दोषी मानने के स्पष्ट कारण हैं. लेकिन विधायकों की वफादारी खरीदने के लिए धन एकमात्र कारण होता, तो व्यापक स्तर पर अस्थिरता देखने को मिलती. ऑस्कर वाइल्ड के मुताबिक, ज्यादातर राजनेता सभी चीजों का विरोध कर सकते हैं, लेकिन लालच का नहीं. दलबदल कभी-कभार का खेल है, क्योंकि पैसा सिर्फ एक बार ही दिया जाता है. अन्य पेशेवरों की भांति राजनेता भी सेवानिवृत्ति के बाद के फायदे को तरजीह देते हैं. पिछले हफ्ते जब वाम मोरचे के तीन और कांग्रेस के तीन विधायकों ने पाला बदला और तृणमूल कांग्रेस के चौथे उम्मीदवार को राज्यसभा भेज दिया, तो वे कुछ महत्वपूर्ण कारणों की ओर इशारा कर रहे थे और यह सार्वजनिक जीवन में पैसे से ज्यादा महत्वपूर्ण है. उन्होंने एक राजनीतिक संदेश दिया कि बंगाल में वाम मोरचा मर रहा है और कांग्रेस कोमा में है.
माकपा अब भी जिंदा है. हालांकि, उसकी सेहत अच्छी नहीं है, लेकिन अब वाम मोरचे का मृत्यु पत्र लिखने का समय आ गया है. यह प्रमुख और जूनियर साङोदारों के बीच का गंठबंधन है, जिसने आधुनिक इतिहास में खुद को असाधारण राजनीतिक मशीन के तौर पर गढ़ा. माकपा अभी भी अपने दम पर लाल झंडे को फहराने की ताकत रखती है, लेकिन इसमें शामिल छोटे दलों ने न केवल वाम मोरचे की ताकत में वृद्धि की, बल्कि मत प्रतिशत में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया और वे दल आज राजनीतिक रूप से हाशिये पर पहुंच गये हैं. आरएसपी के दो विधायकों दशरथ तिर्की और अनंत अधिकारी ने वाम मोरचे को छोड़ दिया. ये ऐसी पार्टी से थे जो कभी क्रांति के साथ ही समाजवाद के रास्ते पर चलने का दावा करती थी. तीसरे विधायक सुनील मंडल फारवर्ड ब्लॉक के हैं, एक ऐसा दल जो नहीं जानता कि वह क्यों मौजूद है. महत्वपूर्ण यह भी है कि ये सभी अनुसूचित जाति और जनजाति समुदाय के नेता हैं. शोषित जब वाम किले को छोड़ दे, तो समङिाये कि उसका प्राचीर खाली हो गया.
कांग्रेस भी गंभीर संकट में है. उसे मालदा की सीट जो कि वाम मोरचे के उभार के दौरान भी कांग्रेस के पास रही, गंवानी पड़ी. ऐसा गनी खान चौधरी और उनके परिवार के प्रभाव के चलते मुमकिन हुआ. लेकिन अब वे नहीं हैं. उनके भाई विधायक अबु नासेर ने पार्टी के पक्ष में मतदान नहीं किया. उनके सहयोगी व पड़ोसी विधायक इमानी बिश्वास ने भी ममता बनर्जी के पक्ष में मतदान किया. यह विद्रोह बंगाल में कांग्रेस को आगामी आम चुनाव में एक सीट तक समेट देगा. उभरते राजनीतिक समीकरणों को समझ पाने की क्षमता यदि आप में है, तभी इस बदलाव को भांप सकते हैं. ममता बंगाल की सत्ता में नयी आयी हैं, और अगले कुछ वर्षो तक रहेंगी. लेकिन वामपंथी अब ज्यादा समय तक विपक्ष में नहीं रह पायेंगे. ऐसा इसलिए नहीं, क्योंकि उनके संगठन में विस्फोट हो गया है. कैडर व्यवस्था पर खड़ी पार्टी हार के सदमे से निकलने पर कभी भी कार्यकर्ताओं में जोश पैदा कर सकती है. समस्या यह है वैचारिक सवालों पर पार्टी की तरफ से दिये जा रहे बयानों में कुछ भी नयापन नहीं दिखता. बंगाली मतदाताओं ने लंबे अरसे तक स्थानीय किस्म के समाजवाद को देखा है और वे अब कुछ नया सुनना चाहते हैं. ममता बनर्जी ने लोकलुभावन नीतियों और घोषणाओं के अलावा और कुछ वादा नहीं किया है. उनके लिए चुनौती है कि जो कहा है उसे करके दिखायें, लेकिन उनके पास समय है. उतना नहीं जितना खुद ममता या उनकी पार्टी सोचती है, लेकिन इतना कम भी नहीं जितना वामपंथी मान बैठे हैं. फिलहाल वे सुरक्षित हैं. हालांकि, वामपंथी जब सत्ता में थे, तो खतरा ममता से था. विपक्ष में हैं, तो खतरा भाजपा की ओर से है.
कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में नरेंद्र मोदी की सफल रैली का यही मतलब है. कुछ समय पहले तक भाजपा नेता इन्डोर स्टेडियम ही भरा देख एक-दूसरे को बधाई देते. इस चुनावी मौसम में यह मैदान केसरिया झंडों से अटा पड़ा था, जहां कभी लाल झंडों की, तो अब ममता के हरे झंडों की भरमार होती है.
ममता बनर्जी के लिए भाजपा चिंता का कारण नहीं है. लेकिन वामपंथी यदि खुद को फिर से खड़ा नहीं कर पाये तो अपनी जगह गंवा सकते हैं. हम किसी नाटकीय बढ़त की बात नहीं कर रहे हैं. भाजपा को बंगाल में अधिक सीट नहीं मिलेगी. लेकिन उसके मत प्रतिशत में जरूर वृद्धि होगी. राजनीतिक दल सेना की तरह धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं. मुश्किल दौर में सेनापति सेना को एकजुट नहीं करता तो हार बरबादी के कगार पर ले जा सकती है. लेकिन कोई भी बढ़त चरणबद्ध तरीके से ही संभव है. वामपंथी, तर्को पर फलते-फूलते हैं, इसलिए उन्हें यह बात आसानी से समझ लेनी चाहिए.
स्थानीय कांग्रेस ने बंगाली मतदाताओं के साथ अपने जुड़ाव को खो दिया है. कांग्रेस कभी इस पाले में, तो कभी उस पाले में खेलने की जुगत भिड़ा रही है. एक तरफ राज्य सभा चुनाव में वामपंथियों से हाथ मिला लिया. साथ ही, हताशा में वह किसी भी शर्त पर चुनावी गंठबंधन के लिए ममता को निजी संदेश भी भेज रही है. कहावत है कि भिखारी विकल्प नहीं चुन सकता. इन दोनों दलों के विधायकों को यदि यह भरोसा होता कि उनकी पार्टी के जीतने की गुंजाइश है, तो कोई दल-बदल नहीं होता.