।। कृष्ण प्रताप सिंह।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
देश की दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां, भाजपा और कांग्रेस, लोकसभा चुनाव में मतदाताओं को लुभाने के लिए इन दिनों विकास के जो अलग-अलग सपने बांट रही हैं, वे वस्तुत: अलग-अलग न होकर एक ही हैं. उनमें सिक्के के दोनों पहलुओं जितनी भिन्नता भी नहीं है. मनमोहन सिंह की सरकार अपनी विदाबेला में पिछले दस साल में जन-जन को छूने और जनजीवन को बदल कर रख देने का दावा कर रही है, तो उसका नेतृत्व कर रही कांग्रेस उसमें राहुल के युवाजोश की छौंक लगा रही है. दूसरी ओर भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि कांग्रेस ने पिछले दस वर्षो में देश में जो बंटाधार किया है, उनका अनूठा गुजरात मॉडल ही उसका एकमात्र सही इलाज है.
दोनों पक्षों की समरूपता का बड़ा प्रमाण यह है कि उनमें कोई भी वर्तमान आर्थिक नीतियों में परिवर्तन की बात नहीं कहता. यह भी नहीं स्वीकारता कि इन्हीं नीतियों ने विकास और भ्रष्टाचार के रिश्ते को चोली दामन का रिश्ता बना दिया है. इतना अटूट कि वह इन नीतियों के रहते टूटनेवाला नहीं. तभी तो इस विकास ने भ्रष्टाचार को अपना अनिवार्य उत्पाद सिद्ध करके उसकी अजेयता पर ऐसी आमसहमति बना दी है, जिसके चलते देश में कोई भी विकास कार्यक्रमों में व्याप्त भ्रष्टाचार के पूरी तरह खत्म हो सकने को लेकर आश्वस्त नहीं है.
गैरबराबरी व गरीबी के पैमानों को लेकर इन पार्टियों की असाधारण एकता तो देख कर भी नहीं देखती कि विकास की किसको, कितनी और कैसी जरूरत है और जो विकास हो रहा है, उसका लाभ किसके खाते में, कितना और कैसे जा रहा है? पिछले 15 वर्षो में कैसे अमीरों की संपत्ति 12 गुनी बढ़ जाती है और विकास दर, सेंसेक्स के उतार-चढ़ाव और अर्थव्यवस्था के बूम की भाषा न समझ पानेवाले आम लोग जबरन थोप दी गयी अनैतिक स्पर्धा से अभिशप्त होकर पिछड़ते जाते हैं?
ऐसे में यह कौन देखे कि देश का कितना बड़ा वर्ग इस रोजगारहीन, कहना चाहिए रोजगारछीन, विकास से लाभान्वित होने के बजाय पीड़ित है. इसी के चलते कालेधन की समानांतर अर्थव्यवस्था रक्तबीज हो गयी है और सत्ता के सारे निगरानी तंत्रों को मुंह चिढ़ाती हुई गांधीजी के दरिद्रनारायणों का जीना दूभर किये हुए है. शीर्षस्तर के भ्रष्टाचार ने देशवासियों के दीर्घकालिक हितों की चिंता को इतिहास की बात बना डाला है और निचले स्तर के भ्रष्टाचारी शीर्ष के उदाहरण से अपनी कारस्तानियों को सही ठहरा रहे हैं. जैसे आजादी, वैसे ही विकास भी शासक वर्गो-दलों का हथियार बन गया है, जिसे वे अपने हित में इस्तेमाल कर रहे हैं और चाहते हैं कि जनता भूल जाये कि ऐसा विकास अंगरेजों के समय में भी कम नहीं हुआ. उन्होंने अपने समय में रेल व डाक तार जैसे बड़े तंत्र विकसित किये. लेकिन केंद्रीकरण की नीतियों के चलते आम लोग उनके लाभों में हिस्सेदारी नहीं पा सके.
अब फिर से वैसे ही केंद्रीकरण का पोषण करनेवाली नीतियों को सर्वानुमति से आगे कर दिया गया है, जिनके रहते देश में सचमुच स्वर्ग उतर आये तो भी जनसाधारण के हाथ तो खाली ही रहनेवाले हैं. मुनाफाखोर बहुराष्ट्रीय कंपनियां अव्वल तो इस देश को सोने की चिड़िया बनायेंगी नहीं. लेकिन उन्होंने ऐसा चमत्कार कर भी दिखाया तो उस चिड़िया को वे अपने ही आंगन में उड़ायेंगी. अपने द्वारा नियंत्रित सरकारों की मार्फत वे उस पर जनता को उतना ही अधिकार देंगी, जितने से वह जिंदा रह कर उनकी उपभोक्ता बनने के योग्य रहे.
इतना ही नहीं, इन दोनों ही पार्टियों को भ्रष्टाचार के नीतिगत समाधान से एक जैसा परहेज है, जबकि उसके कानूनी या प्रशासनिक उपचार पर उनकी सहमति उन विधेयकों को कानून बनाने में भी देखी जा सकती है, जो पात-पात को सींचिबो, बरी-बरी को लोन सरीखे हैं और भ्रष्टाचार की जनक नीतियों पर प्रहार करने के बजाय झूठ-मूठ के कोड़ों से उसे डराना चाहते हैं. वे उस सांसद-निधि को फलने-फूलने देने पर भी एक राय हैं, जिसकी निगरानी का कोई सुविचारित तंत्र नहीं है और जिसने हमारी राजनीति को भ्रष्ट बनाने में अग्रणी भूमिका निभायी है.
पिछले दो दशक में देश को नाना अनर्थो के हवाले कर देनेवाले भूमंडलीकरण के विषफल सामने आने के बाद भी कांग्रेस उसके पार जाने को तैयार नहीं है. राहुल सिस्टम बदलने की बात करते हैं, पर बताते नहीं कि वह इन नीतियों के रहते कैसे बदल सकता है? मोदी को भी किसी ने यह कहते नहीं सुना कि वे आये तो मनमोहन की अनर्थकारी नीतियों को पलट देंगे. शातिराना देखिए, मोदी हों या राहुल, ढेर सारे इरादे जताते और वादे करते हुए चालाकी से छिपा जाते हैं कि तथाकथित विकास के साथ गैरबराबरी और भ्रष्टाचार वे मुफ्त देते रहेंगे!