रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
तीन दिन पहले (23 सितंबर, 2016) हिंदी के प्रख्यात आलोचक मैनेजर पांडेय के 75 साल पूरे होने के अवसर पर लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग द्वारा आयोजित एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का विषय ‘समाज, साहित्य और आलोचना’ आज के समय में सर्वाधिक महत्वपूर्ण इसलिए है कि जिस समाज को बीसवीं शताब्दी में आइन्सटाइन ने सबसे मूल्यवान शब्द कहा था, वह आज गौण होता जा रहा है. समाज की चिंता अब बहुत कम है. भाषा के बिना समाज और साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती और साहित्य के बिना आलोचना संभव नहीं होती. भारतीय समाज आलोचनात्मक समाज नहीं बन सका. विवेक-चेतना समाज में निरंतर कम हो रही है और ‘आस्था’ का प्रश्न प्रमुख हो उठा है.
भारतीय समाज में आज कहीं अधिक हलचलें हैं. भारतीय समाज और हिंदी समाज में एक साथ कई समाजों की उपस्थिति है. पूर्वोत्तर भारत का समाज, कश्मीर घाटी का समाज, दलित समाज, आदिवासी समाज आज कई मुश्किलों का सामना कर रहा है.
वीरेन डंगवाल ने अपनी एक कविता में लिखा है- ‘पर हमने यह कैसा समाज रच डाला है/ इसमें जो दमक रहा शर्तिया काला है.’ कविता ‘हमारा समाज’ नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के दो वर्ष बाद 1993 में प्रकाशित हुई थी. साहित्य समाज का आईना और दीपक दोनों है.
वह दशा ही नहीं दिखाता, दिशा भी देता है. सार्थक आलोचना किसी रचना की गंभीर पड़ताल करती है और सदैव समाज को ध्यान में रखती है. साहित्य जीवन की आलोचना है और आलोचना समाज-सापेक्ष है. ‘आलोचना की सामाजिकता’ तो आलोचना को प्रासंगिक और अर्थवान बनाती है. राजशेखर ने ‘काव्य-मीमांसा’ में आलोचक के जो चार प्रकार बताये हैं, उनमें ‘तत्वाभिनिवेशी’ (तत्व खोजी) ही प्रमुख है. अकादमिक आलोचना से कहीं अधिक आवश्यक उपयोगी और महत्वपूर्ण है- सामाजिक-सांस्कृतिक आलोचना.
आलोचना प्रशंसा और निंदा नहीं है. गंभीर आलोचना ‘रचना की अर्थवत्ता’ से नहीं ‘रचना की सार्थकता’ से जुड़ी होती है. समाज में अब पहले की तरह सहिष्णुता नहीं रही है. झूठ इतना फैलाया जा रहा है कि सच कहना एक प्रकार का अपराध है. साहित्य और आलोचना झूठ के विरुद्ध और सत्य के संग है. समाज, साहित्य और आलोचना का अंत:संबंध कमजोर पड़ रहा है. अब साहित्य और आलोचना पर बाजार की नजर कहीं अधिक है, क्योंकि उसके लिए मनुष्य मात्र ‘उपभोक्ता’ है. उत्पादक पूंजी के दौर में रचनाशीलता अनुत्पादक पूंजी के दौर की तुलना में कम प्रभावित होती है.
सार्थक लेखकों, रचनाकारों और आलोचकों ने औद्योगिक पूंजी के दौर में ही ‘सर्जनात्मकता’ को लेकर चिंताएं प्रकट की थीं. आज के भारतीय समाज को ‘सर्जनात्मक’ न बने रहने देने के लिए तमाम ध्वंसवादी शक्तियां एकत्र हैं. समाज के कई तबकों में से सबसे पहला, बड़ा और सृजनात्मक तबका किसान और मजदूर का था. पिछले तीन दशक में किसानों और मजदूरों की जो दशा-दुर्दशा हुई है, वह भ्रष्ट, जन-विरोधी रणनीति और लफंगी-लंपट पूंजी के आपसी चुंबन-आलिंगन और रति-क्रीड़ा के कारण है.
पहले जहां ‘समाज’ प्रमुख था, वहां बाद में ‘राज्य’ (स्टेट) प्रमुख हुआ और अब ‘राष्ट्र-राज्य’ के स्थान पर ‘कॉरपोरेट राज्य’ बन रहा है. ‘राज्य’ अपने नागरिक से अधिक महत्व ‘कॉरपोरेट’ को दे रहा है. साहित्य संस्कृति का एक भाग है और बाजार के वित्तीय-मनचली पूंजी ने जिस ‘उपभोक्तावाद’ को जन्म दिया है, उसने उपभोग की संस्कृति विकसित की है. सामाजिक संरचना में हो रहा बदलाव किसी स्वस्थ दिशा में नहीं है. पूंजी मनुष्य के चित्त और मानस को स्वतंत्र नहीं छोड़ सकती. वह जिस व्यवस्था को जन्म देती, विकसित करती है, वह व्यवस्था साहित्य और आलोचना के क्षेत्रों में भी फैलती है.
समाज के संकट की इस घड़ी में लेखक और आलोचक को ही यह तय करना है कि वह समाज के साथ है या उसे विकृत-भ्रष्ट करनेवाली शक्तियों के साथ?
जिस सोशल मीडिया पर सैंकड़ों-हजारों की संख्या में लेखक-आलोचक सक्रिय हैं, उस सोशल मीडिया का समाज से सृजनात्मक रिश्ता नहीं है. बदलाव जमीन पर ही होगा और जमीन लगातार खिसक रही है. आलोचना रचनात्मक समाज से जुड़ कर होती है. जिस समय आलोचना तनिक भी बर्दाश्त नहीं की जा रही हो, उस समय आलोचक को ही यह तय करना होगा कि वह कहां खड़ा है- सत्य के साथ या असत्य के साथ!