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भारत-चीन दोस्ती का सच

।।डॉ रहीस सिंह।।(विदेश मामलों के जानकार)इस समय एशिया में निर्मित हो रही भू-राजनीतिक स्थितियां ऐसी हैं, जिनमें चीन के लिए जरूरी हो गया है कि वह भारत को साथ लेकर चले. साथ ही वैश्विक अर्थव्यवस्था की गतिविधियों का जो केंद्र अटलांटिक से हट कर हिंद महासागर की ओर आ रहा है, उसका नेतृत्व हथियाने के […]

।।डॉ रहीस सिंह।।
(विदेश मामलों के जानकार)
इस समय एशिया में निर्मित हो रही भू-राजनीतिक स्थितियां ऐसी हैं, जिनमें चीन के लिए जरूरी हो गया है कि वह भारत को साथ लेकर चले. साथ ही वैश्विक अर्थव्यवस्था की गतिविधियों का जो केंद्र अटलांटिक से हट कर हिंद महासागर की ओर आ रहा है, उसका नेतृत्व हथियाने के लिए भी चीन को भारत का साथ चाहिए. ये दोनों जरूरतें चीन को भारत के करीब आने के लिए विवश कर रही हैं. इसके कुछ पक्ष स्पष्ट हैं, लेकिन कुछ धुंधले.

इसका दूसरा पक्ष यह है कि भारत किस उद्देश्य से चीन के करीब आ रहा है? इसका उत्तर आदर्शो या भावनाओं से नहीं, हकीकत के आधार पर तलाशे जाने की जरूरत है. यह भी ध्यान रखना होगा कि भारत की सवा अरब आबादी सिर्फ क्रेता या विक्रेता नहीं है, जो लाभ या हानि के चरों से संचालित हों, बल्कि उनमें एक राष्ट्र भावना है और वे अपनी सुरक्षा के प्रति संवेदनशील हैं. लेकिन भारतीय रणनीति शायद पहले पक्ष को लेकर अधिक उत्सुक है और शेष को इसी के अधीन कर देना चाहती है. सवाल है कि ऐसा क्यों?

चीन के प्रधानमंत्री ली केचियांग के भारत दौरे के दौरान कूटनीतिक और बौद्धिक तबकों में यह चर्चा अधिक रही कि दोनों एशियाई ताकतें ऐसी संभावनाएं तलाशने में सफल होती दिख रहीं, जिनसे वैश्विक अर्थव्यवस्था पर अपना साझा वर्चस्व कायम करने में वे सफल हो सकें. विश्लेषकों द्वारा द्विपक्षीय व्यापार के गौरवशाली आंकड़े भी पेश किये गये, जो दोनों देशों के संबंधों की अनिवार्यता को पुष्ट करते हैं. मसलन, भारत और चीन के बीच 2003-2004 में द्विपक्षीय व्यापार सात अरब डॉलर का था, जो 2012-2013 में 67.8 अरब डॉलर तक पहुंच गया. संभव है कि वर्ष 2015 में यह आंकड़ा 100 अरब डॉलर तक पहुंच जाये. बढ़ते व्यापार को देखते हुए यह सलाह दी जा रही है कि सीमा विवादों को गौण बने रहने देना चाहिए.

इस संदर्भ में कहा गया कि भारत-चीन सीमा विवाद की तरह ही सेनकाकू द्वीप समूह को लेकर चीन व जापान के बीच भी विवाद है, जिससे काफी समय से दोनों के संबंध तनावपूर्ण हैं, फिर भी चीन जापान का सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है. मतलब यह कि बौद्धिक कूटनीतिक वर्ग का बड़ा हिस्सा, विशेषकर वह जो पूंजीवादी दुनिया का भी हिस्सा है, चाहता है कि चीन सीमाओं पर चाहे जो करे, लेकिन हमें उससे व्यापारिक संबंध हर हाल में बनाये रखना चाहिए. यही तो चीन भी चाहता है. तो क्या माना जाये कि भारत में चीन के पैरोकारों की संख्या भारतीय कूटनीति को प्रभावित करने में समर्थ हो गयी है?

इस पर किसी को भी संशय नहीं कि भारत व चीन की अर्थव्यवस्था (जो क्रमश: दुनिया की दूसरे व चौथे नंबर की अर्थव्यवस्थाएं हैं) का आकार इतना बड़ा है, तथा उनमें इतनी क्षमता है, कि वे साझा प्रयासों से वैश्विक अर्थव्यवस्था को न सिर्फ प्रभावित कर सकती हैं, बल्कि उन्हें एक नयी दिशा भी दे सकती हैं. दूसरी तरफ दोनों देशों की संयुक्त आबादी ढाई अरब के आसपास है, जो दुनिया का एक विशाल ट्रेड ब्लॉक तैयार कर सकती है. बाजार का इतना बड़ा आकार मांग और पूर्ति की व्यवस्था को इस तरह संतुलित रख सकती है कि दुनिया के आर्थिक संकटों के बावजूद भारत और चीन की अर्थव्यवस्था पर कोई प्रभाव न पड़े. इस विशाल बाजार का हिस्सा यदि कमोडिटी के साथ-साथ ज्ञान, कौशल, मानव संपदा, तकनीक आदि भी बने, तो तय है कि आनेवाले समय में वैश्विक गतिविधियों का केंद्र हिंद महासागर में होगा. इसे ध्यान में रख कर कहा जाता है कि भारत को अपने सीमा विवादों को भुला कर चीन के साथ साङोदारी की अर्थव्यवस्था विकसित करनी चाहिए. पर यह एक आदर्शात्मक पक्ष है और इतिहास हमें सीख देता है कि चीन संग संबंध बढ़ाने में लाभ-हानि के सभी पहलुओं का आकलन गंभीरता से कर लेना चाहिए.

बहरहाल ली की यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच सीमा विवाद पर खुल कर बात हुई और स्वीकार किया गया कि सीमा पर शांति रहेगी, तो दोनों देश बेहतर प्रदर्शन करेंगे. यह भी तय हुआ कि शांति बनाये रखने के लिए बातचीत जारी रहेगी. इस दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हाल में लद्दाख में हुई चीनी घुसपैठ और ब्रrापुत्र पर चीन द्वारा बनाये जा रहे बांध को लेकर भारत की चिंताओं से चीनी पीएम को अवगत कराया. ली ने इस पर विशेष ध्यान न देते हुए एक नये परिप्रेक्ष्य को सामने रखने की कोशिश की. उन्होंने कहा कि भारत और चीन के संबंध एशिया को नयी ताकत देंगे. ली के इस निष्कर्ष को स्वीकारने में किसी को परहेज नहीं हो सकता, पर भारत की चिंताओं का उचित जवाब न मिलना संशय तो पैदा करता ही है.

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