28.8 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

दाना के कंधों पर लोकतंत्र की लाश!

दाना माझी का किस्सा अखबारों से सोशल साइट्स तक वायरल है. दुःख, क्षोभ, गुस्सा सब लाइव है, लेकिन इन सबके बीच जो अनुपस्थित है, वह है उस वायरस की चिंता, जो इस मुल्क में रोज दाना माझी पैदा करता है. वे आंकड़ों के घर में रहते हैं, वे बुंदेलखंड में घास की रोटी खाते हैं, […]

दाना माझी का किस्सा अखबारों से सोशल साइट्स तक वायरल है. दुःख, क्षोभ, गुस्सा सब लाइव है, लेकिन इन सबके बीच जो अनुपस्थित है, वह है उस वायरस की चिंता, जो इस मुल्क में रोज दाना माझी पैदा करता है. वे आंकड़ों के घर में रहते हैं, वे बुंदेलखंड में घास की रोटी खाते हैं, विदर्भ में सल्फास, महानगरों की झुग्गियों में जिल्लत और बिहार-झारखंड के बदनसीब इलाकों में मूस. सत्ता के समर्थक उन्हें कांग्रेस राज की पैदाइश बताते हैं, तो विरोधी मोदी जी से सवाल पूछते हैं, और इस तरह वे इस भारतमाता की ऐसी अनचाही औलादें हैं, जिनकी जिम्मेवारी कोई नहीं लेता. महानगरों की झुग्गियों से गांवों की बस्तियों तक वे अनाम पैदा होते हैं, अकारथ जीते हैं और अनजानी मौत कभी भी उन्हें लील जाती है. गांधीजी विकास को आखिरी आदमी तक पहुंचाना चाहते थे, भगत सिंह हर किसान-मजदूर को शोषणमुक्त समाज देना चाहते थे, लेकिन आजादी आयी, तो इन्हें वोट देने का अधिकार भर देकर रह गयी.

दाना माझी से पहले एक दशरथ माझी था, जिसकी पत्नी पानी लाते समय पहाड़ी से गिर कर मर गयी तो उस जिद में उसने पहाड़ काट कर गांव तक पानी की राह बनायी. दाना के बाद उसी के प्रदेश के बालासोर जिले की 80 साल की सालामनी बारिक थी, जिसकी लाश को पोस्टमार्टम तक ले जाने के लिए स्ट्रेचर नहीं मिला तो अस्पताल के दयालु कर्मचारी उसकी बूढ़ी हड्डियां किसी सूखी लकड़ी की तरह तोड़ कर बोरी में भर कर बालासोर ले गये. आखिर पोस्टमार्टम जरूरी था.

और अभी इन खबरों की स्याही सूखने भी न पायी थी कि मध्य प्रदेश के जबलपुर में पनागर तहसील से खबर आयी कि बारिश में रास्ता डूबा, तो खेत के सहारे लाश को श्मशान तक ले जाने की इजाजत दबंगों ने नहीं दी दलितों को और लाश तालाब पार करके ले जानी पड़ी. ऊना में अपने अपमान के बदले जब दलितों ने सिर उठाया, तो दबंगों ने एक गांव में लाश न जलाने दी, श्मशान में और अंतिम क्रिया खेत में करनी पड़ी. किस्से अनंत हैं, और सारे किस्से इतने खुशनसीब होते भी नहीं कि विज्ञापनों से बचे समय और स्पेस में जगह पा सकें.

जिंदगी से मौत तक इस अपमान और पीड़ा के स्रोत कहां हैं? ढाई साल का वर्तमान शासन? साठ साल की कांग्रेस सरकार? उसके पहले का सामंती शासन? ऐसे जिम्मेवारियां तय कर देना लेखकीय संतोष तो दे सकता है, लेकिन न आगे का कोई रास्ता सुझा सकता है, न इन अपमानों और पीड़ाओं का कोई हल कर सकता है.

टीबी के सबसे ज्यादा मरीज भारत में

दाना माझी की पत्नी टीबी से मरी थी. विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े बताते हैं कि दुनियाभर में 96 लाख लोग टीबी से पीड़ित हैं, जिनमें से एक-चौथाई से अधिक करीब 25 लाख लोग भारत में हैं. इम्पीरियल कॉलेज, लंदन का हाल में आया अध्ययन बताता है कि असल में यह संख्या 50 लाख तक हो सकती है, जाहिर है सभी केस दर्ज भी नहीं किये जाते. इस अध्ययन टीम का हिस्सा रहीं डॉक्टर निर्मला अरिन अमीनपथी कहती हैं कि टीबी संक्रामक बीमारियों में दुनिया की सबसे बड़ी जानलेवा बीमारी है. लेकिन हिंदुस्तान में हम इसके सही परिमाण के बारे में भी नहीं जानते हैं, जबकि यह देश इस बीमारी का सबसे बड़ा शिकार है. आखिर क्यों है ऐसा? ‘जरनल ऑफ ग्लोबल इन्फेक्शंस डिजीज’ में जून, 2011 में छपे लेख में गुरसिमरत के संधू इसके कारणों की पड़ताल करते हुए कहते हैं- कई राज्यों में खराब प्राथमिक ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएं, अनियंत्रित निजी डिस्पेंसरियां, गरीबी, राजनीतिक इच्छा शक्ति का अभाव और भ्रष्ट तंत्र.

कालाहांडी जैसे भूख से जूझते इलाके में कुपोषण आम है. निजीकरण के इस दौर में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र मौजूद होकर भी गैर-मौजूद हैं और सरकारी अस्पताल से बिना घूस दिये एंबुलेंस मिलने की कल्पना भी नहीं की जा सकती. तो उसकी पत्नी का मरना लाजिमी था, वह इस तंत्र में पैसे के बिना पत्नी को स्वस्थ करना चाहता था, जो अब खुल कर कहता है कि सुविधा उसे मिले जो भुगतान कर सके.

अमीरी-गरीबी के फासले पर शर्म कहां!

अपने टैक्स के पैसों की चिंता करता नव धनाढ्य और मध्यवर्ग न विदर्भ की आत्महत्याओं पर चिंतित होता है, न छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के पलायन पर, न दाना माझियों के दुर्भाग्य पर. उसे विकास चाहिए यानी सुंदर सुरक्षित घर, शानदार ऐशगाहें और सारी सुविधाएं, बस अपने लिए. इस विकास में यह चिंता कैसे शामिल हो सकती है कि गांव-गांव स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाई जाएं. हां, वे भुगतान कर सकते हैं, इसलिए उन्हें पंचसितारा होटलों जैसे निजी अस्पताल चाहिए, और वे उग रहे हैं रोज-ब-रोज, दूसरी तरफ वायरल बुखार भी किसी गरीब बच्चे की मौत के लिए पर्याप्त कारण हो सकता है.

इस व्यवस्था में जो दबंग है, सुविधाएं उसके लिए हैं. जमीन उसकी, सरकार उसकी, गांव उसके, शहर उसके और जो नहीं हैं, उन्हें झेलने हैं दबाव गांव से शहर तक. गरीबी तो खराब शिक्षा, खराब भोजन फिर अविकसित देह-दिमाग फिर दोयम दर्जे के रोजगार फिर गरीबी… यह दुष्चक्र चलता ही जा रहा है वर्षों से. जनता की सरकारों से उम्मीद थी कि यह खत्म होगी, सरकारी स्कूल, अस्पताल, सब्सिडी सब इसी उद्देश्य के लिए होते हैं और जब उन्हें फालतू खर्च बता कर सरकारें धन्नासेठों को व्यापार की सुविधाएं उपलब्ध करानेवाली एजेंसी में तब्दील हो चुकी हैं, तो जाहिर है कि दाना माझियों के कंधे थक जायेंगे उनका बोझ ढोते-ढोते, पर हमें शर्म नहीं आयेगी.

अशोक कुमार पाण्डेय

स्वतंत्र लेखक

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें