।। विश्वनाथ सचदेव।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
एक निजी टीवी चैनल को दिये गये राहुल गांधी के साक्षात्कार के नफे-नुकसान का आकलन राजनीतिक गलियारों में लगातार हो रहा है. लेकिन एक निष्कर्ष जो बड़ी आसानी से निकाला जा सकता है, वह यह है कि यदि राहुल गांधी द्वारा पहला साक्षात्कार देने का उद्देश्य उन्हें चरचा में लाना था, तो कांग्रेस की यह रणनीति पूरी तरह सफल रही. यह शायद पहली बार है जब देश की चुनावी राजनीति लगभग पूरी तरह मुद्दों के बजाय व्यक्ति-केंद्रित हो गयी है. सच तो यह है कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार ने इस रणनीति को वैसा बना दिया है. एक पार्टी के रूप में भाजपा की राजनीति की डोर जिनके हाथों में है, वे ताकतें ऐसा ही चाहती हैं. उन्हें लगता है यह रणनीति ज्यादा कारगर सिद्ध होगी. इसी नीति के चलते पार्टी के बजाय अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को अधिक महत्व दिया गया. रणनीति बनी कि चरचा में मोदी ही रहने चाहिए, और पिछले दो-तीन महीनों में वे इसमें कामयाब भी रहे. मोदी अचानक लौह पुरुष बन गये और विकास पुरुष भी. मीडिया पर मोदी छा गये. शायद यही सब देखते हुए कांग्रेस ने भी कुछ बदलाव की सोची होगी. बहरहाल, अब स्थिति यह बनी है कि देश भर में चरचा इस बात की है कि राहुल गांधी ने क्या कहा, क्या नहीं कहा. उनके जवाबों के आधार पर उनकी योग्यता-क्षमता को आंकने की कोशिशें हो रही हैं.
जहां तक इस बहुचर्चित साक्षात्कार का सवाल है, बड़ी बेबाकी से सवाल पूछे गये थे. राहुल ने बेबाकी से जवाब देने की कोशिश भी की. बावजूद इसके कि सवाल अनपेक्षित नहीं थे और अकसर पहले भी उठते रहे हैं, जवाबों में भी कुछ खास नया नहीं था. पर यह पहली बार था जब कांग्रेस का युवराज कहे जानेवाले राहुल गांधी ने ईमानदार लगनेवाले लहजे में स्पष्टता से अपनी बात रखने की कोशिश की. उनसे जो कुछ पूछा गया, उन्होंने जवाब देने की पूरी कोशिश की. प्रश्नों को अनदेखा करने अथवा घुमा-फिरा कर जवाब देने की राजनीति शायद उन्हें अभी आती भी नहीं. देश की राजनीति से जुड़े बुनियादी नीतिगत सवाल कुछ खास पूछे भी नहीं गये. हालांकि पूछे जाने चाहिए थे. देश प्रधानमंत्री पद के कांग्रेस के अघोषित उम्मीदवार की सोच के बारे में अब भी बहुत कुछ नहीं जानता. संसद में उनकी चुप्पी और कांग्रेस को सुधारने की उनकी घाषित व्यस्तता के चलते, आज भी शिक्षा, रोजगार, उद्योग, संसाधन-विकास, वैदेशिक संबंधों और विस्तार के साथ जनता तक नहीं पहुंचे हैं. फिर भी, इस साक्षात्कार में वे पहली बार कई मुद्दों पर खुल कर बोले हैं. उन पर चरचा होनी चाहिए.
चरचा हो ही रही है, पर दुर्भाग्य से वह एक खास सवाल के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गयी है. सवाल सांप्रदायिक दंगों से जुड़ा है. मुद्दा महत्वपूर्ण है, इसमें कोई संदेह नहीं, लेकिन और भी गम हैं जमाने में. 1984 में कांग्रेस शासन में दिल्ली में जो कुछ हुआ अथवा 2002 में नरेंद्र मोदी के शासन में जो कुछ गुजरात में हुआ वह हमारे हाल के इतिहास का कलंक हैं. उसे हम अनदेखा नहीं कर सकते. लेकिन बात जब आगे बढ़ने की हो रही हो तो निगाह अगली राहों पर भी होनी चाहिए. इसलिए, मुझे लगता है, राहुल गांधी को साक्षात्कार को सिर्फ इस मुद्दे तक समेटना गलत है.
राहुल ने 1984 के दिल्ली के दंगों के बारे में जिस स्पष्टता से बात की वह काबिल-ए-गौर है. उनके इस दावे से मतभेद हो सकता है कि तब कांग्रेस सरकार ने दंगों को रोकने का पूरा प्रयास किया था, लेकिन उनका यह स्वीकारना ईमानदारी दरसाता है कि उसमें कांग्रेस के कुछ लोगों का हाथ हो सकता है. एक सवाल उनसे यह भी पूछा गया था कि 1984 और 2002 के दंगों में क्या अंतर देखते हैं. उत्तर में उन्होंने गुजरात के दंगों को सरकार द्वारा प्रायोजित बताया था. भाजपा इसी बात से नाराज है और इसका जोरदार विरोध भी कर रही है. लेकिन सांप्रदायिकता के इस गंभीर मुद्दे पर नरेंद्र मोदी से एक टीवी कार्यक्रम में इस बारे में सवाल पूछा गया तो वे उस लाइव प्रोग्राम से उठ कर चले गये थे. इसके विपरीत, अपने इस पहले टीवी साक्षात्कार में राहुल गांधी ने इस बारे में सवाल पूछे जाने पर बड़ी स्पष्टता के साथ कांग्रेस के कुछ नेताओं की लिप्तता की बात स्वीकारी. यह अपरिपक्वता नहीं, राजनीतिक साहस का उदाहरण है.
हालांकि राजनीतिक साहस पर्याप्त नहीं है. राजनीतिक सूझ-बूझ भी जरूरी है. और जरूरी यह भी है कि राहुल व्यवस्था बदलने जैसे सामान्य जुमलों से कुछ आगे बढ़ें. स्पष्ट करें कि व्यवस्था बदलने का मतलब क्या है और यह मतलब साधने के लिए क्या और कैसे कदम उठाये जायेंगे. मनरेगा, आरटीआइ, लोकपाल बिल से जुड़ी बातें करना गलत नहीं, लेकिन यह काफी नहीं है. राहुल को देश के सामने खड़े बुनियादी सवालों के जवाब देने हैं. एक अर्थपूर्ण मुखरता की अपेक्षा है उनसे.