डॉ गौरीशंकर राजहंस
पूर्व सांसद एवं पूर्व राजदूत
इस वर्ष भी नेपाल से निकलनेवाली नदियां खासकर, कोसी, बागमती, कमला-बलान और महानंदा उत्तर बिहार में तांडव मचा रही हैं. बाढ़ से बिहार के आठ जिले- पूर्णिया, किशनगंज, अररिया, दरभंगा, मधेपुरा, भागलपुर, कटिहार और सुपौल- बुरी तरह प्रभावित हैं. सैकड़ों गावों में लाखों लोग बाढ़ से खासे प्रभावित हैं. सैकड़ों मकान क्षतिग्रस्त हो गये हैं.
सहरसा और सुपौल जिलों में कोसी का जलस्तर इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि लोग दिन-रात ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि किसी तरह नेपाल से निकलनेवाली कोसी नदी का जलस्तर घट जाये. लेकिन, कोसी के तांडव से लगता नहीं है कि निकट भविष्य में लोगों को कोई राहत मिल पायेगी. कोसी जिस तरह कहर ढहा रही है, उस पर सारी दुनिया की नजर बनी हुई है. खबरें आ रही हैं कि हजारों क्यूसेक पानी नेपाल से कोसी में छोड़ा जायेगा, जिसका अर्थ है कि सुपौल, मधेपुरा, सहरसा, मधुबनी, दरभंगा, खगड़िया और पूर्णिया जिलों में बरबादी आयेगी.
पिछले अनेक वर्षों से उत्तर बिहार के लोग नेपाल से निकलनेवाली नदियों की त्रासदी झेलते आ रहे हैं. दिल्ली, पंजाब और हरियाणा से सालभर की कमाई लेकर मजदूर अपनी बेटियों के विवाह के लिए उत्तर बिहार जाते हैं. अचानक रातों रात-बाढ़ आ जाती है और मिनटों में सालभर की कमाई पानी में बह जाती है. गरीब मजदूरों की बहन-बेटी के विवाह का सपना, सपना ही रह जाता है. दरअसल, बिहार हमेशा से आपदाग्रस्त रहा है. कहीं बाढ़ की त्रासदी, तो कहीं सूखाड़ की मार. इसी कारण सैकड़ों वर्ष पहले अंगरेज जहाजों में बिहारियों को भेड़-बकरियों की तरह ठूंस-ठूंस कर मॉरीशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद, फिजी जैसे देशों में ले गये.
यह अलग बात है कि कालांतर में इन देशों में कई बिहारियों के वंशज बहुत महत्वपूर्ण पदों पर पहुंच गये और उन देशों के राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री तक बन गये. आज भी यदि बिहार में गरीब लोगों को जीविका के साधन उपलब्ध हों, तो वे अन्य राज्यों में नहीं जाना चाहेंगे.
सत्तर के दशक में जब वामपंथियों के उपद्रव के कारण कलकत्ता और उसके आसपास के कारखाने बंद होने लगे, तो पूंजीपतियों ने अपने कारखाने दिल्ली और उसके आसपास गुड़गांव, गाजियाबाद या फरीदाबाद में स्थापित किये. बिहारी मजदूरों के सामने रोजी-रोटी की समस्या खड़ी हो गयी और लाचार होकर वे दिल्ली की ओर भागे. दिल्ली ने खुली बाहों से उनका स्वागत किया, क्योंकि इतने सस्ते मजदूर उन्हें पहले प्राप्त नहीं थे. वर्षों तक दिल्ली में सैंकड़ों कारखाने चलते रहे. बाद में प्रदूषण के नाम पर उनको दिल्ली से हटाया गया. तब दिल्ली-एनसीआर के निर्माण-कार्य में 80 प्रतिशत बिहार के मजदूर थे. अतः बिहारियों का यह कहना सही है कि उन्होंने ही अपने खून-पसीने से दिल्ली और एनसीआर को सींचा है.
जो मजदूर बिहार से दिल्ली आये थे, उन्हें खेती-बाड़ी का पूरा हुनर प्राप्त था. अतः पंजाब और हरियाणा के किसान उन्हें दिल्ली से अपने यहां खेती करने के लिए ले गये और उनकी मदद से उन्होंने खेती की बेशुमार पैदावार बढ़ा ली. वे धनवान हो गये, लेकिन बिहारी मजदूरों को केवल उनकी मजदूरी मिली. बिहारी मजदूरों को जो पैसा दिल्ली, पंजाब या हरियाणा में प्राप्त होता था, उससे वे संतुष्ट थे और उसमें से आधी कमाई अपने परिवार के लिए भेज देते थे.
आज दिल्ली और एनसीआर में 60 लाख से अधिक बिहारी मजदूर काम कर रहे हैं. वे अपने नसीब को कोसते हैं कि उनकी दुर्दशा के लिए नेपाल की उफनती नदियां जिम्मेवार हैं. दिल्ली और एनसीआर में रहनेवाले अभागे बिहारियों के मन में यह बात रह-रह कर कौंध जाती है कि क्या उन्हें इस प्राकृतिक आपदा से कभी राहत मिल पायेगी?