प्रभात रंजन
कथाकार
केंद्र सरकार के दो साल पूरे हुए. हाल में ही एक विद्वान ने एक बात कही, जिसने सोचने पर मजबूर कर दिया. उन्होंने कहा कि जब से सरकार आयी है, हिंदी का जोर बढ़ गया है. हिंदी में कामकाज को बढ़ावा मिला है और हिंदी में लिखनेवाले बढ़े हैं. अब हिंदी के प्रति नजरिया बदलता जा रहा है.
सोशल मीडिया में हिंदी का जोर तो पहले से ही तेज था, लेकिन अब वह और भी तेज हो गया है. हिंदी किताबों का बाजार पहले से ही बढ़ रहा था, वह हर साल बढ़ता ही जा रहा है. बाजार में हिंदी का स्पेस पहले से बढ़ रहा था, वह और भी बढ़ा है. अब सवाल यह है कि इसमें सरकार की क्या भूमिका है! बहरहाल…
एक बात की तरफ ध्यान दें, तो हिंदी को कभी गर्व की भाषा नहीं माना जाता रहा है. अभी हाल में ही एक पत्रकार ने अपने लेख में बड़ी अच्छी बात लिखी कि हिंदी पढ़ कर आप प्रधानमंत्री तो बन सकते हैं, लेकिन आइएएस नहीं बन सकते. यह हिंदी का वह दर्द है, जो आजादी के बाद से बना हुआ है. लेकिन, इसमें कोई शक नहीं कि जब से यह सरकार सत्ता में आयी है, हिंदी को लेकर नजरिया बदल रहा है. हिंदी धीरे-धीरे अब गर्व की भाषा बनती जा रही है.
एक और कारण भी मुझे लगता है. इस सरकार के आने से अचानक से राष्ट्रवाद को लेकर, देशभक्ति को लेकर जो माहौल बना है या बन रहा है, उसके मद्देनजर यह बात कही जा सकती है कि भारत जैसे बहुलतावादी देश में कट्टर राष्ट्रवाद को उचित नहीं ठहराया जा सकता है.
लेकिन, इस राष्ट्रवाद के कारण ही हिंदी भाषा के प्रति नजरिया बदल रहा है. याद करने की बात है कि स्वाधीनता संग्राम के दौरान जब राष्ट्रवाद अपने चरम पर था, तब देश के नेता हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देते थे. ऐसी भाषा, जो राष्ट्र की आकांक्षाओं को आवाज देने में सबसे समर्थ है. एक ऐसी भाषा, जो पूरे देश को एक सूत्र में जोड़े रख सकती है. लेकिन, आजादी के बाद जो राजनीति शासन सत्ता में आया, उसने हिंदी को शासन की भाषा में समर्थ नहीं पाया. हमारी सरकार ने हिंदी को हमेशा दोयम दर्जे की भाषा के रूप में देखा.
ऐसा नहीं है कि केंद्र सरकार हिंदी को बढ़ावा देने के लिए कुछ कर रही है या हिंदी को वह लोगों के ऊपर थोप रही है, लेकिन एक मजबूत प्रधानमंत्री के हिंदी में बोलने से हिंदी वालों में आत्मविश्वास बढ़ा है, वे हीन भावना से मुक्त हुए हैं. मेरे एक मित्र ने कहा कि इससे पहले देश के दो प्रधानमंत्री ऐसे हुए हैं, जो बाकायदा हिंदी के कवि थे- विश्वनाथ प्रताप सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी. हिंदी तब गर्व की भाषा, आत्मसम्मान की भाषा क्यों नहीं बनी? शायद उसका कारण यह था कि उनके शासन काल में राष्ट्रवाद को लेकर ऐसा बल नहीं था.
इस राष्ट्रवाद के कारण ही लोगों में हिंदी के प्रति प्यार उमड़ा है. आज अलग-अलग क्षेत्रों के लोग हिंदी में काम कर रहे हैं, सिर्फ हिंदी बोल नहीं रहे हैं, बल्कि हिंदी में लिख रहे हैं, खुद को अभिव्यक्त कर रहे हैं. हिंदी का परिदृश्य इतना व्यापक कभी नहीं था. एक मजबूत हिंदीभाषी प्रधानमंत्री के शासनकाल में हिंदी वालों में अपने मजबूत होने का एहसास पैदा हुआ है. आजादी के करीब 70 सालों बाद पहली बार ऐसा महसूस हो रहा है कि हिंदी अब शर्म की भाषा नहीं रह गयी है.
राष्ट्रवाद के अपने खतरे हो सकते हैं, मजबूत शासन की अपनी सीमाएं हो सकती हैं, लेकिन मुझे लगता है कि हिंदी की जमीन को मजबूत बनाने में इस सरकार के होने की भूमिका रही है, प्रछन्न रूप में ही सही. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है.