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न्याय की टूटी आस!

देश की अदालतों में तीन करोड़ से ज्यादा लंबित मामलों के पहाड़ से निपटने में न्यायाधीशों की मुश्किलों का जिक्र करते हुए अगर देश के मुख्य न्यायाधीश की आंखें नम हो जायें, तो समझना चाहिए कि न्याय के सर्वोच्च आसन पर विराजमान न्यायमूर्ति देश की ठप होती न्यायिक व्यवस्था को दुरुस्त कर पाने में खुद […]

देश की अदालतों में तीन करोड़ से ज्यादा लंबित मामलों के पहाड़ से निपटने में न्यायाधीशों की मुश्किलों का जिक्र करते हुए अगर देश के मुख्य न्यायाधीश की आंखें नम हो जायें, तो समझना चाहिए कि न्याय के सर्वोच्च आसन पर विराजमान न्यायमूर्ति देश की ठप होती न्यायिक व्यवस्था को दुरुस्त कर पाने में खुद को लाचार पा रहे हैं. दिल्ली में प्रधानमंत्री की मौजूदगी में हुई राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायाधीशों की बैठक में जजों की नियुक्ति को लेकर सरकार से शीघ्र कदम उठाने का अनुरोध करते-करते सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर का गला रुंध जाना साफ संकेत करता है कि न्यायपालिका में हालात भयावह हो चले हैं.

लोकतांत्रिक व्यवस्था में अदालतें न्याय का मंदिर मानी जाती हैं, जहां हक से बेदखल किये गये हैरान-परेशान लोग न्याय की आखिरी उम्मीद के साथ अपनी फरियाद लेकर पहुंचते हैं. लेकिन, भारत में न्याय मिलने की बेहद सुस्त रफ्तार के कारण आम लोग अब कोर्ट-कचहरी के चक्कर की कल्पना से ही घबराने लगे हैं. ऐसे में ठीक एक साल पहले, अप्रैल 2015 में, मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों की बैठक में तत्कालीन चीफ जस्टिस एचएल दत्तू के शब्द थे- ‘हम पूरी कोशिश करेंगे कि अदालतों में कोई भी मुकदमा पांच साल से ज्यादा न खिंचे.’ बात चीफ जस्टिस के मुंह से निकली थी, इसलिए बीते एक साल में जरूर ही ऐसी कोशिशें हुई होंगी कि सुनवाई की रफ्तार तेज हो. बावजूद इसके, सुनवाई की मौजूदा रफ्तार और केस लड़नेवालों की परेशानियों को जोड़ कर सोचें, तो दिल रोने-रोने को हो ही आयेगा.

एक नागरिक संगठन ‘दक्ष’ का आकलन है कि देश के उच्च न्यायालयों में चल रहे मुकदमे 11 अप्रैल, 2016 तक औसतन 1141 दिन यानी 3 साल से ज्यादा की अवधि पूरी कर चुके हैं. सबसे ज्यादा दिनों (औसतन 1349 दिन) से लंबित मुकदमे इलाहाबाद हाइकोर्ट में हैं.

गुजरात हाइकोर्ट इस मामले में दूसरे नंबर पर है, जहां मुकदमे औसतन 1221 दिनों से लंबित हैं. पटना हाइकोर्ट में दर्ज मुकदमे औसतन 1065 दिनों से लंबित हैं. अचरज की बात यह भी है कि उच्च न्यायालयों में ज्यादा दिनों से लंबित मुकदमों की संख्या, कम दिनों से लंबित मामलों की तुलना में बहुत ज्यादा है. मिसाल के लिए गुजरात हाइकोर्ट में 12 अप्रैल, 2016 तक 15 साल या इससे ज्यादा दिनों से चले आ रहे मुकदमों की संख्या 4,685 थी, जबकि 10 से 15 साल की अवधि से लंबित मामलों की संख्या 85,240. गुजरात हाइकोर्ट में 11,274 मुकदमे 5 से 10 साल की अवधि से लंबित हैं, जबकि 6,940 मुकदमे पांच साल से कम अवधि से. किसी भी हाइकोर्ट में एक मुकदमे की दो सुनवाइयों की बीच में कम-से-कम 70 दिनों का अंतराल चला आ रहा है.

हालांकि, इस संकट के लिए दोष सिर्फ अदालतों पर नहीं मढ़ा जा सकता है. पिछले दिनों सूचना का अधिकार कानून के तहत मांगी गयी जानकारी में केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय ने बताया है कि एक मार्च, 2016 को देश के 24 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के कुल 1056 स्वीकृत पदों में से 465 (करीब 44 फीसदी) रिक्त पड़े हैं. एक आकलन के मुताबिक निचली अदालतों में भी करीब एक चौथाई पद रिक्त हैं. यह स्थिति तब है, जबकि आबादी के अनुपात में भारत में न्यायाधीशों के स्वीकृत पदों की संख्या पहले से काफी कम है. हमारे देश में प्रति दस लाख आबादी पर न्यायाधीशों के मात्र 17 पद स्वीकृत हैं, जबकि विश्वबैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक यह आंकड़ा आॅस्ट्रेलिया में 58, कनाडा में 75, फ्रांस में 80 और ब्रिटेन में 100 है. न्यायिक आयोग की 2014 की रिपोर्ट में अपने देश में भी प्रति दस लाख आबादी पर जजों की संख्या 50 तक बढ़ाने यानी मौजूदा संख्या से करीब तीन गुना करने की सिफारिश की गयी थी.

पिछले कुछ महीनों से अकसर यह सुनने को मिलता है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार के बीच कॉलेजियम प्रणाली और न्यायिक नियुक्ति आयोग को लेकर बने गतिरोध के चलते रिक्त पदों को भरने में देरी हो रही है, जबकि हकीकत यह है कि न्यायाधीशों की रिक्तियों की लगभग यही स्थिति 2012 से पहले से है. चीफ जस्टिस ने ठीक ही कहा, ‘बैठकों और समारोहों में इस पर चर्चा तो खूब होती है, लेकिन कुछ होता नहीं है. केंद्र सरकार कहती है कि वह इस बारे में वचनबद्ध है, लेकिन यह राज्य सरकार की जिम्मेवारी है. जबकि राज्य सरकार कहती है कि केंद्र सरकार को फंड देने दीजिए.’

ऐसे में मुख्य न्यायाधीश ने ठीक ही सावधान किया है कि ‘न्यायपालिका की क्षमता और देश के विकास के बीच गहरा नाता है.’ जाहिर है, अब फैसला विकास को अपना एजेंडा बतानेवाली सरकारों को लेना है. उम्मीद करनी चाहिए कि प्रधानमंत्री के साथ-साथ राज्यों की सरकारें भी इस पर गंभीरता से सोचेंगी. ध्यान रखना चाहिए कि न्यायिक सुधार पर फैसले लेने में देरी से न्यायपालिका पर आम जनता का भरोसा कम होता जायेगा. यह स्थिति देश के विकास की राह अवरुद्ध कर सकती है.

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