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म्यांमार में व्यक्तिपूजक परंपरा

बहुत लंबी प्रतीक्षा के बाद पड़ोसी देश म्यांमार में आंग सान सू की की अनोखी ‘ताजपोशी’ संपन्न हुई है अौर यह लग रहा है कि जनतंत्र की वापसी की राह कुछ अौर सुगम हो सकी है. ‘अनोखी’ इसलिए, क्योंकि म्यांमार के मौजूदा संविधान के अनुसार सू की खुद राष्ट्रपति नहीं बन सकतीं. उनको इस पद […]

बहुत लंबी प्रतीक्षा के बाद पड़ोसी देश म्यांमार में आंग सान सू की की अनोखी ‘ताजपोशी’ संपन्न हुई है अौर यह लग रहा है कि जनतंत्र की वापसी की राह कुछ अौर सुगम हो सकी है. ‘अनोखी’ इसलिए, क्योंकि म्यांमार के मौजूदा संविधान के अनुसार सू की खुद राष्ट्रपति नहीं बन सकतीं. उनको इस पद से वंचित रखने के लिए ही यह व्यवस्था की गयी है कि कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसका विवाह विदेशी नागरिक से हुआ हो या जिसकी संतानें विदेशी नागरिक हों, इस पद का पात्र नहीं हो सकता.

इस बाध्यता को सू की ने स्वीकारते हुए यह ऐलान बहुत पहले किया था कि मतदान में बहुमत पाने के बाद राष्ट्रपति को वही नामजद करेंगी अौर वह उस राष्ट्रपति से ‘ऊपर’ तथा अधिक शक्तिशाली रहेंगी! असली पेंच यहीं है- सू की प्रतीक रही हैं जनतंत्र का अौर यह कहना कि वह किसी भी संवैधानिक सत्ता से अधिक शक्तिशाली रहेंगी, यह जनतंत्र की आत्मा के अनुकूल नहीं है. दूसरे, जिस व्यक्ति को उन्होंने राष्ट्रपति नामजद किया है, वह कोई करिश्माई, लोकप्रिय नेता नहीं, बल्कि वर्षों से विश्वासपात्र अनुचर के रूप में उनकी सेवा करनेवाला ड्राइवर है. अर्थात् ऐसे व्यक्ति को चुनने के बजाय, जो उनके एकछत्र नेतृत्व को चुनौती दे सके, सू की ने उसे चुना जो उनकी कृपा पर ही पदासीन रह सकता है. यह व्यक्तिपूजक अजनतांत्रिक परंपरा को प्रतिष्ठित कराना नहीं है, तो फिर क्या है?

यह सच है कि म्यांमार में सैनिक तानाशाही से कड़ी लड़ाई लड़ने की बड़ी कीमत सू की ने चुकायी है. न केवल वह दशकों नजरबंद रहीं हैं, बल्कि अपने लाइलाज रोगग्रस्त पति के साथ उनके अंतिम क्षणों में भी वह नहीं रह सकीं. उनके पुत्र बचपन से ही अपनी मां के स्नेह से वंचित रहे हैं. इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि सू की की असाधारण लोकप्रियता के कारण ही बर्बर दमन के बावजूद सेना का प्रतरोध करने का मनोबल जनसाधारण बनाये रख सका है. उन्हें लगता रहा है कि सू की को जिस तरह का अंतरराष्ट्रीय समर्थन प्राप्त है, उसकी अनदेखी जालिम जनरल भी नहीं कर सकते. इस बात का श्रेय भी सू की को देना पड़ेगा कि वह हमेशा एक लंबी लड़ाई के लिए तैयार रही हैं अौर अपने समर्थकों को यह समझाती रही हैं कि मीलों लंबे सफर का पहला कदम ही अभी उठाया जा सका है.

शायद इसी कारण सेना के साथ किसी निर्णायक मुठभेड़ के बजाय उन्होंने परदे के पीछे से ही कठपुतलियों के धागे अपने हाथ में समेट उनके संचालन की रणनीति बेहतर समझी है. परंतु, इस जोखिम से लापरवाह रहना उनके दल के लिए घातक होगा कि जनतंत्र के बीजारोपण के वक्त ही यह संकेत दिया जाये कि राजनीतिक सत्ता का एकमात्र केंद्र सू की हैं. विश्वासपात्र सहयोगी भी सत्ता सुख भोगने के बाद महत्वाकांक्षी होने लगते हैं अौर स्वाधीन होने को छटपटाते हैं. ऐसा न भी हो तो उनको फुसलाना-डराना विपक्षियों के लिए सरल होता है. इससे यह अर्थ न निकालें कि म्यांमार में ऐसा ही कुछ होगा, लेकिन तब भी सतर्क रहने की जरूरत है.

वर्षों से सू की का अतिरंजित महिमामंडन होता रहा है. उनके अहिंसक (गांधी से प्रेरित) सत्याग्रह की सफलता की तुलना नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जूनियर से की जाती रही है, खास कर नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किये जाने के बाद से उनका व्यक्तिगत प्रभामंडल इतना चमकदार रहा है कि उनकी किसी कमजोरी की तरफ ध्यान दिलानेवाला मूर्ख ही नजर आता है. यहां एक उदाहरण काफी रहेगा, जो यह दर्शाता है कि सत्ता से बाहर रहते सू की ने अपने देश की उन जटिल समस्याअों के समाधान के बारे में कोई सुचिंतित विचार प्रकट नहीं किये हैं.

जब अराकान के रोहिंगिया अल्पसंख्यक मुसलमानों पर बौद्ध बहुसंख्यकों ने हिंसक हमले किये, तो सू की की चुप्पी ने बहुतों को निराश किया. यह भुलाना कठिन है कि सू की के नेतृत्व वाले जनआंदोलन के ज्वार में बदलने के पहले बौद्ध भिक्षुअों अौर संघ ने भी फौजी तानाशाही का डट कर विरोध किया था. आनेवाले दिनों में यह देखने लायक रहेगा कि सू की अौर उनकी पार्टी के रिश्ते कट्टरपंथी बौद्धों से कैसे रहते हैं. जहां तक अल्पसंख्यकों के साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का प्रश्न है, अब तक का अनुभव गंभीर आशंकाअों को ही जन्म देता है.

इसके साथ यह सोचना भी नाजायज नहीं कि दिखावे के लिए सू की के पसंद के राष्ट्रपति की नियुक्ति का इस्तेमाल सेना प्रेशर कुकर के सेफ्टी वाॅल्व की तरह करेगी. जनआक्रोष की भाप निकल जाने के बाद हालात फिर से जस-के-तस होने लगेंगे. जब तक सू की अपने सुयोग्य कर्मठ उत्तराधिकारियों की दूसरी पंक्ति सामने नहीं लातीं, तब तक म्यांमार में असली बदलाव नहीं आ सकता.

पुष्पेश पंत

वरिष्ठ स्तंभकार

pushpeshpant@gmail.com

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