प्रभात रंजन
कथाकार
कल मैंने किन्हीं सज्जन के फेसबुक वाॅल पर एक टिप्पणी पढ़ी कि बिना गये, बिना जाने हिंदी लेखक जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की आलोचना करते हैं. यह वैसे ही है जैसे कोई बिना पढ़े किसी पुस्तक की समीक्षा लिख दे. असल में मुझे निजी तौर पर लगता है कि हिंदी के साहित्यिक समाज में अभी भी सबसे ज्यादा कमी पेशेवर नजरिये की है, एप्रोच की है.
हिंद में बरसों से सर्टिफिकेटवाद चलता रहा है. हमारे कुछ मूर्धन्य मिल कर किसी को बड़ा या छोटा लेखक तय कर देते रहे हैं. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल और इस तरह के कई अनेक लिटरेचर फेस्टिवल पेशेवर नजरिये को ध्यान में रख कर आयोजित किये जाते हैं.
यह बात कुछ हद तक सही है कि इन आयोजनों की मूल प्रकृति अंगरेजियत भरी होती है, लेकिन यह बात तो पूरी तरह झूठ होगी कि इसमें हिंदी की उपेक्षा होती है. बल्कि इस बार वहां जाकर, उसमें बतौर लेखक भागीदारी करके यह बात महसूस हुई कि उसमें तो सबसे अधिक स्पेस हिंदी के लिए बनता जा रहा है.
मसलन, इस साल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान दो पुरस्कार प्रदान किये गये. एक कविता के लिए कन्हैयालाल सेठिया पुरस्कार और दूसरे हिंदी के युवा लेखन को बढ़ावा देने के लिए दैनिक भास्कर समूह की ओर से द्वारका प्रसाद अग्रवाल पुरस्कार की शुरुआत की गयी. सबसे बड़ी बात यह है कि ये पुरस्कार लेखकों को जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के सत्रों के दौरान दिये गये. दोनों पुरस्कार अब प्रत्येक वर्ष दिये जायेंगे. क्या यह हिंदी की बढ़त नहीं है?
असल में हिंदी के साहित्यकारों की मुश्किल यह है कि वे बड़े पैमाने पर हो रहे बदलावों को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं.
युवाओं की बढ़ती भूमिका, उनकी रुचियों को पचा नहीं पा रहे हैं. इस समय ऐसे कई युवा लेखक हैं, जिन्होंने अपने लेखन के बल पर अपनी पहचान बनायी है, किसी मठाधीश के आशीर्वाद के कारण नहीं. यह संभव हुआ है जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल और उसके जैसे अन्य आयोजनों के कारण. आज हिंदी साहित्य हिंदी विभागों से बाहर निकल चुकी है. प्राध्यापकों की व्याख्याएं, समीक्षाएं अचानक बेमानी नजर आने लगी हैं. लेखकों-पाठकों के बीच संवाद संभव होने लगा है. हिंदी की जमीन पुख्ता हो रही है, अधिक पेशेवर हो रही है. यह जरूर है कि उसकी वह जमीन दरक गयी है, जो वैचारिक संघर्ष की बुनियाद पर कई दशक से पुख्ता बनी हुई थी.
साहित्य में वैचारिकता होनी चाहिए, लेकिन लेखक के जीवन में भी वह वैचारिकता दिखाई देनी चाहिए. जीवन और लेखन में यह दूरी जितनी बढ़ती गयी है, इस तरह के लेखन में फीकापन दिखाई देने लगा है. बहरहाल, जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में रहते हुए यह बात महसूस हुई कि हिंदी के लेखक का ग्लैमर बढ़ रहा है, उसक बाजार बन रहा है. हम हिंदी वाले इन्हीं बातों का तो रोना रोते थे. आज ये चीजें आ रही हैं, तो भी हम इसी बात का रोना रो रहे हैं.
मुझे अज्ञेय के उपन्यास ‘शेखर: एक जीवनी’ की पंक्तियां याद आ रही हैं- हम बरसों से एक घर बनाते रहे, यह जानते हुए भी कि हम उसमें नहीं रहेंगे. लेकिन महज इस बात से इस बात की महत्ता कम नहीं हो जाती कि हम उस घर में नहीं रहेंगे!