डॉ कर्मानंद आर्य
सहायक प्राध्यापक, केंद्रीय विवि, गया
यह तो आज आम बोलचाल में एक जुमला-सा बन गया है कि दुनिया लगातार और तेजी से बदल रही है. लेकिन, यह बदलाव किस रूप में हो रहा है, यह जानना जरूरी है. साथ ही यह सोचना भी जरूरी है कि ‘ग्लोबल विलेज’ और ‘उदारीकरण’ के मौजूदा दौर में जो बदलाव आ रहा है, वह कितना स्थायी है?
हालांकि, इस प्रश्न पर कुछ लोग प्रतिप्रश्न कर सकते हैं कि क्या कोई बदलाव नितांत स्थायी होता है? लेकिन एक हाल के दशकों में आया एक बदलाव तो कम से कम यही संकेत कर रहा है. और वह है आर्थिक असमानता की खाई, जो तमाम दावों के विपरीत लगातार चौड़ी ही होती जा रही है.
गरीबी उन्मूलन के लिए काम करनेवाली अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संस्था ऑक्सफैम ने ताजा आंकड़ों और शोध के आधार पर दावा किया है कि दुनिया के एक फीसदी सबसे अमीर लोगों के पास शेष निन्यानबे प्रतिशत आबादी के बराबर संपत्ति है. एक ऐसे समय में, जब हमारे-आपके आसपास रहनेवाली एक बड़ी आबादी रोज खाने और जीने के लिए नाको चने चबा रही है, क्या हमें या आपको कभी लगता है कि गरीबों, दरिद्रों के पक्ष में खड़ा होना होगा, उनकी बेहतरी के लिए सचमुच कुछ काम करना होगा.
उनकी बेहतरी कैसे होगी, इसका कोई कारगर फाॅर्मूला विकसित करना होगा? इतना तो तय है कि अब केवल रस्म अदायगी से काम नहीं चलेगा, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि गरीबों के बारे में सोचेगा कौन? क्या गरीब? दरिद्रों के पक्ष में खड़ा होगा कौन? क्या खुद दरिद्र? उनकी बेहतरी के लिए फार्मूला विकसित कौन करेगा? क्या उनके शोषक? क्या समाज का वह तबका इनके लिए सोचेगा, जो माई-बाप है, जो नीति का नियंता है, जिसकी संपत्तियां दिन-दूनी, रात-चौगुनी बढ़ रही है? या खाता-पीता लेखक, जो सिर्फ पैसे कमाने और सम्मान पाने के लिए लिख रहा है? क्या वही, जो सदियों से कहता है कि हमें गरीबों, दरिद्रों के पक्ष में खड़ा होना है, हमें उसकी हिफाजत करनी है, लेकिन कभी नहीं सोचता कि उसकी गाढ़ी कमाई में उन गरीबों का भी कुछ हिस्सा है?
जरा गौर कीजिए, आखिर वे कौन लोग हैं, जो मैकाले और उसकी शिक्षा पद्धति का विरोध करते हैं? वे कौन लोग हैं, जो मंचों पर जो बोलते कुछ और हैं, लेकिन अपने निजी जीवन में ठीक उसका उल्टा व्यवहार करते हैं? आखिर वे कौन हैं, जो पर उपदेश कुशल बहुतेरे का नारा लगाने में माहिर हैं? जरा सोचिए, वे शहर के कौन चंद लोग हैं, जो रोज अखबार की खबरों में छाये रहते हैं? कुछ घटता है तो वे वहां होते हैं. वे संस्कृति की दुहाई देते हैं?
कहते हैं संस्कृति का लगातार क्षय हो रहा है. क्या वे कभी यह भी सोचते हैं कि जिसे वे घोर अंधकार कह रहे हैं, वह वास्तव में उजाले की तरफ एक कदम है. दुनिया निरंतर आगे बढ़ रही है. आज हम जिन लड़कियों को भली लड़कियां कहते हैं, वस्तुतः उनका भला उन्होंने नहीं, अपितु उन लड़कियों ने किया है, जिन्हें समाज कभी बिगड़ी हुई लड़कियां समझता रहा है.
तो समाज को बरगलानेवाले लोगों पर हम कब तक आंख मूंद कर भरोसा करते रहेंगे? समाज में विषमता की बढ़ती खाई को पाटने के लिए किसी समाधान के बारे में कब सोचेंगे?