।। राजेंद्र तिवारी।।
(कारपोरेट संपादक प्रभात खबर)
आजकल जम्मू-कश्मीर फिर चर्चा में है. नरेंद्र मोदी ने जम्मू की सभा में संविधान के अनुच्छेद 370 पर पुनर्विचार करने की जरूरत बतायी और कहा कि इसका आकलन होना चाहिए कि इससे जम्मू-कश्मीर के लोगों को कोई फायदा हुआ या नहीं. इसी के साथ शुरू हो गयीं ऊलजुलूल चर्चाएं. अपने देश की सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोई भी नेता अपने हितों के लिए कुछ भी बयान दे देता है और उसके अनुयायी व विरोधी दोनों ही पिल जाते हैं एक-दूसरे पर. तमाम तरह के झूठ तथ्य के तौर पर पेश किये जाने लगते हैं. इस समय 370 के बहाने कश्मीर के साथ भी यही किया जा रहा है. सोशल साइटों पर एक पोस्ट बहुत तेजी से शेयर हो रही है. बहुतेरे लोग इसे सच्चाई मान रहे हैं, लेकिन इसमें तथ्य के तौर पर दी गयीं अधिकतर बातें गलत हैं. पोस्ट इस प्रकार है-
जानिए आर्टिकल 370
-जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के पास दोहरी नागरिकता है.
-जम्मू-कश्मीर का ध्वज अलग होता है.
-जम्मू-कश्मीर की विधानसभा का कार्यकाल 6 वर्षो का होता है, जबकि अन्य विधानसभाओं का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है.
-जम्मू-कश्मीर के अंदर भारत के राष्ट्रध्वज या राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान अपराध नहीं होता है.
-उच्चतम न्यायालय के आदेश जम्मू-कश्मीर में मान्य नहीं होते हैं.
-भारत की संसद को जम्मू-कश्मीर के संबंध में अत्यंत सीमित क्षेत्र में कानून बना सकती है.
-जम्मू-कश्मीर की कोई महिला यदि किसी अन्य राज्य के व्यक्ति से विवाह कर ले, तो महिला की नागरिकता समाप्त हो जायेगी. इसके विपरीत यदि वह पाकिस्तान के किसी व्यक्ति से विवाह कर ले, तो उसे भी कश्मीर की नागरिकता मिल जायेगी. और,
-धारा 370 की वजह से कश्मीर में आटीआइ व आरटीइ लागू नहीं है.
-सीएजी को अधिकार नहीं है. भारत का कोई भी कानून लागू नहीं होता.
-कश्मीर में महिलाओं पर शरीयत कानून लागू है.
-पंचायत के अधिकार नहीं हैं.
-कश्मीर में चपरासी को 2500 रुपये ही मिलते हैं.
-कश्मीर में अल्पसंख्यको (हिंदू- सिख) को 16} आरक्षण नहीं मिलता.
अब जानिए कि सच्चई क्या है. अनुच्छेद 370 की वजह से जम्मू-कश्मीर को विशेष अधिकार नहीं मिले, बल्कि विशेष अधिकार विलय पत्र की शर्तो में हैं और इसकी वजह से अनुच्छेद 370 है. जम्मू-कश्मीर में दोहरी नागरिकता नहीं है, बल्कि दूसरे राज्यों की तरह वहां भी वहां के नागरिक राज्य के वाशिंदे हैं. उनके पासपोर्ट पर भी भारतीय ही लिखा होता है. पाकपरस्त अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी की मांग है कि उनकी नागरिकता कश्मीरी लिखी जाये, लेकिन भारत सरकार इसे नहीं मानती लिहाजा गिलानी पासपोर्ट स्वीकार नहीं कर रहे. दूसरे राज्यों की तरह जम्मू-कश्मीर का भी अलग राज्य चिह्न् है. वहां विधानसभा का कार्यकाल 6 वर्ष का है. इसे अजूबा नहीं माना जा सकता क्योंकि राज्यसभा सदस्यों का कार्यकाल भी 6 साल का होता है. वहां भी राष्ट्रीय प्रतीकों व राष्ट्रीय ध्वज का अपमान अपराध होता है, लेकिन जिस संदर्भ में ऊपर कहा गया है कि यह अपराध नहीं होता, उस संदर्भ के पीछे की बातें भी देखनी चाहिए. उच्चतम न्यायालय के आदेश जम्मू-कश्मीर में भी उतने ही प्रभावी हैं जितने कहीं और. संसद वहां के लिए कानून बनाने का अधिकार रखती है, लेकिन उसे लागू करने के लिये वहां के विधानमंडल का अनुमोदन जरूरी है. सूचना का अधिकार कानून वहां शुरुआत से ही लागू है.
शिक्षा का अधिकार कानून वहां लागू होने जा रहा है. वैसे एक सवाल मैं पूछना चाहता हूं कि जिन राज्यों में शिक्षा का अधिकार लागू है, वहां क्या इसके प्रावधानों को अब तक पूरी तरह लागू किया जा सका है? कश्मीर में महिलाओं पर कतई शरीयत का बंधन नहीं है. कश्मीर में पंचायतें मजबूत हैं और वहां नियमति चुनाव भी होते हैं. इस पोस्ट में और भी कई चीजें शरारतन लिखी गयीं हैं, जैसे वहां चपरासी को 2500 रुपये मिलते हैं. अनुच्छेद 370 की वजह से पाकिस्तानियों को कश्मीर की नागरिकता मिल जाती है. जम्मू-कश्मीर की महिलाएं यदि जम्मू-कश्मीर से बाहर के व्यक्ति से शादी कर लें, तो वह जम्मू-कश्मीर का वाशिंदा नहीं रह जातीं. हम आपको बता दें कि 2002 में वहां की सरकार ने बाहर शादी करनेवाली महिलाओं को राज्य का वाशिंदा बरकरार रखने का कानून बनाया था. यह कानून मेरी जानकारी में वापस नहीं लिया गया है. आरक्षण को लेकर केंद्र के प्रावधान वहां भी लागू हैं.
एक तथ्य और. चूंकि हम अविभाजित जम्मू-कश्मीर को अपने देश का हिस्सा मानते हैं, लिहाजा पाक अधिकृत कश्मीर के हिस्से में पड़ने वाली 25 विधानसभा सीटें चुनाव न हो पाने की वजह से शुरू से रिक्त हैं. यही नहीं, उस हिस्से के और उस हिस्से में गये लोगों को भी तकनीकी रूप से अपना नागरिक मानना हमारी मजबूरी है. यही वजह है कि पीओके का कोई व्यक्ति यदि इस हिस्से की लड़की से शादी करता है, तो उसे राज्य के वाशिंदे वाले हक मिलते हैं. इन्हें ही पाकिस्तानी कहा जा रहा है. एक और बात, पीओके से भाग कर इधर आये शरणार्थियों को भी सरकार कोई मदद नहीं कर पा रही है, क्योंकि अपने ही राज्य में कोई शरणार्थी कैसे माना जा सकता है?
और अंत में..
फेसबुक पर एक सज्जन ने बहुत मजेदार पोस्ट शेयर की है. पढ़िए-
नरेंद्र मोदी ने नेल्सन मंडेला के बारे में क्यों कुछ नहीं कहा है. लेकिन मैं कल्पना कर सकता हूं कि अगर वे कहते तो क्या कहते : मित्रो, हमें खेद है कि नेल्सन मंडेला दुनिया में नहीं रहे. उनके काले रंग से हमें कोई बैर नहीं था. हम वोटों की राजनीति नहीं करते हैं. मित्रो, हमारे देश में काले और गोरे हमेशा से भाई-भाई की तरह रहते चले आ रहे हैं. तुलसीदासजी ने भी इसका वर्णन किया था. सीताजी ने कितने ही प्रेम से ग्रामवधुओं को समझाया था रामचिरत मानस में- सांवरो सो प्रीतम गोर सो देवरवा. आज भी महमूद गाता है : हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं. और दूसरी तरफ शाहरु ख गोरा होने की क्र ीम खुल कर बेचता है. यह है हमारी सेक्युलर परंपरा. दोनों अपना राग अलापने के लिए आजाद हैं, बावजूद इसके कि दोनों मुसलमान हैं. हम वोटों की राजनीति नहीं करते. माताओ और बहनो, हमें मंडेलाजी के ईसाई होने पर भी कोई आपत्ति नहीं है. हमें केवल यह चिंता रहती है कि ईसाई धर्म के पादरी विदेश से आकर हमारे भोलेभाले हिंदू समाज को स्कूल और अस्पताल बना कर गिरजे ले जाते हैं. हमें बेवकूफ बना कर वे जिंदा नहीं रह सकते.. दोस्तो, कुछ लोग यह अफवाह फैला रहे हैं कि मंडेलाजी कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित थे. हम इस बात का खंडन करते हैं. वे ऐसा कभी नहीं कर सकते थे. मित्रो, यह तो भारत के तथाकथित वामपंथ की शरारत मालूम होती है. अवसर आने पर हम उन्हें भी ठिकाने लगायेंगे..