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राजनीति पर नीति को दें प्राथमिकता

संसद का शीतकालीन सत्र आज से शुरू हो रहा है. अगले साल होनेवाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर अगर यूपीए सरकार इस सत्र को विधायी क्रियाकलापों को अंजाम देने के लिए बचे अंतिम अवसर के तौर पर न देख कर राजनीतिक दावं खेलने के आखिरी मौके के तौर पर देखे, तो इसमें हैरानी नहीं होनी चाहिए़ […]

संसद का शीतकालीन सत्र आज से शुरू हो रहा है. अगले साल होनेवाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर अगर यूपीए सरकार इस सत्र को विधायी क्रियाकलापों को अंजाम देने के लिए बचे अंतिम अवसर के तौर पर न देख कर राजनीतिक दावं खेलने के आखिरी मौके के तौर पर देखे, तो इसमें हैरानी नहीं होनी चाहिए़ इसका इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि इस सत्र में प्रस्तावित 12 बैठकों में करीब तीन दर्जन विधेयकों को निबटाने का इरादा सरकार जाहिर कर चुकी है. यह मान भी लें कि संसद का कामकाज इस बार हंगामों की भेंट नहीं चढ़ेगा, तब भी यह काम आसान नहीं होगा.

2012 में सालभर में सिर्फ 22 विधेयक ही पारित किये जा सके थ़े पिछले सत्र में यह आंकड़ा 12 पर पहुंचा था. लोकपाल समेत दूसरे अहम विधेयकों को इस अफरा-तफरी में निबटाने की सरकारी मंशा कई सवाल छोड़ जाती है. संसदीय परंपरा किसी विधेयक पर गंभीर बहस की मांग करती है. लेकिन, ऐसा लगता है कि यहां असल लक्ष्य उपलब्धियों की लंबी सूची बनाना या कम से कम अपनी भली नीयत का प्रदर्शन करना है. वैसे, सरकार की राह असान नहीं होनेवाली. भाजपा समेत दूसरी विपक्षी पार्टियों ने सत्र शुरू होने से पहले ही सरकार को घेरने के संकेत दे दिये हैं.

बांग्लादेश के साथ भूमि-सीमा समझौते के लिए संविधान संशोधन विधेयक हो, या फिर महिला आरक्षण विधेयक- इन्हें पारित कराने के लिए बहुमत जुटाना सरकार के लिए आसान नहीं होगा. हालांकि, तेलंगाना राज्य के गठन से संबंधित विधेयक और सांप्रदायिक हिंसा निरोधक बिल को अभी तक संसद की कार्यवाही की सूची में शामिल नहीं किया गया है, लेकिन संकेत मिल रहे हैं, कि सरकार इन्हें भी इसी सत्र में पेश कर सकती है.

जहां, तेलंगाना में रायलसीमा के दो जिलों को जोड़ने के मंत्रियों के समूह के फैसले पर विवाद होना तय है, वहीं सांप्रदायिक हिंसा विधेयक पर पहले ही भाजपा और कई राज्य सरकारों ने अपना विरोध प्रकट कर दिया है. सरकार अगर विधायी कार्य को लेकर वाकई गंभीर है, तो उसे सत्र की समयावधि बढ़ाने के विपक्ष के सुझाव पर गौर करना चाहिए. देखना यह है कि हमारे राजनीतिक दल राजनीति के ऊपर नीति को प्राथमिकता देने का संयम दिखा पाते हैं या नहीं.

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