प्रभात रंजन
कथाकार
साल 2015 में किताबों की दुनिया में बहुत हलचल रही. इस साल सबसे अधिक बहस गंभीर बनाम लोकप्रिय साहित्य की रही. ऐसा लगा कि पहली बार लोकप्रिय साहित्य ने बढ़त बनायी.
बरसों से हिंदी के आलोचकों ने ऐसा मानक तैयार किया था, जिसमें ऐसी किताबों के लिए हिकारत भरी नजर होती थी, जो पाठकों की पसंद को ध्यान में रख कर लिखी जाती थीं. लेखकों और पाठकों के बीच हिंदी के सार्वजनिक वितान में आलोचकों ने एक बड़ी दीवार खड़ी कर दी थी, जो इस साल टूटती हुई नजर आयी.
आलोचकों ने लोकप्रियता के स्थान पर वैचारिकता को मूल्य की तरह स्थापित कर रखा था, जिसके पैमाने पर किताबों को तौला-परखा जाता रहा. यह महज संयोग नहीं है कि जिस साल पठनीयता के पैमाने पर किताबों को देखा-परखा गया, उस साल आलोचना की एक भी ऐसी किताब नहीं आयी, जिसमें किसी नयी दृष्टि के दर्शन हुए हों. अलबत्ता कहानियों, किस्सागोई, संस्मरण आदि विधाओं में कई उल्लेखनीय किताबें आयीं.
हिंदी में कभी भी अनुवाद को उसका उचित मुकाम नहीं दिया गया. लेकिन 2015 ऐसा रहा, जिसमें अनुवाद की किताबों ने पाठकों, बुद्धिजीवियों की पुस्तक सूचियों में अपना जरूरी स्थान बनाया. अनुवाद की तीन किताबों का उल्लेख विशेष रूप से करना जरूरी समझता हूं.
चीनी भाषा के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लेखक मो यान के उपन्यास का अनुवाद आया ‘हम, तुम और वो ट्रक’ के नाम से, जिसका अनुवाद जाने-माने विद्वान पुष्पेश पंत ने किया. अपने विषय और अनुवादक के कारण यह किताब खासी चर्चा में बनी रही. अनुवाद की दूसरी किताब, जिसका जिक्र जरूरी लगता है, वह बांग्ला भाषा का उपन्यास ‘दोजखनामा’ है.
यह निस्स्संदेह इस साल हिंदी में आयी सबसे अनूठी किताब रही. रबिशंकर बल के इस उपन्यास में गालिब और मंटो अपने-अपने कब्र से बातचीत करते हैं और इसी बहाने दोनों की जीवनियां भी सामने आती हैं. तीसरी किताब है ‘जोसेफ एंटन’, जो अंगरेजी के प्रसिद्ध लेखक सलमान रुश्दी की आत्मकथा का अनुवाद है. अंगरेजी में यह बहुचर्चित रही, हिंदी में भी इसके अनुवाद को उपलब्धि की तरह देखा जाना चाहिए.
बहरहाल, किताबों की ऑनलाइन बिक्री ने किताबों की पारंपरिक दुनिया को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है. अब बेस्टसेलर की चर्चा खूब होने लगी है. बिक्री के पैमाने पर किताबों को रखने-देखने से सकारात्मक बात यह होगी कि हिंदी में लेखक पुनः केंद्र में आयेंगे, चर्चा में आयेंगे.
लेकिन यह सवाल पूरे साल गूंजता रहा कि क्या श्रेष्ठ साहित्य की जरूरत खत्म हो गयी है? क्या गंभीर विषयों पर गंभीर लेखकों का जमाना लद गया है? बहरहाल, जब नयेपन को बड़े पैमाने पर स्वीकृति मिलने लगती है, तो यह सवाल नये सिरे से प्रासंगिक हो जाता है.
हालांकि, ऐसे सवालों के जवाब समय के साथ मिल जाते हैं. इस समय बाजार केंद्र में आ रहा है, जिसका रोना हिंदी के लेखक-प्रकाशक बरसों से रोते रहे हैं कि हिंदी किताबों का बाजार नहीं है. अब बाजार बन रहा है, तो इस बात को लेकर हाय-तौबा नहीं मचायी जानी चाहिए कि यह क्यों बन रहा है. नये के स्वीकार से ही पुराने को विस्तार मिलता है.