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लड़की की शादी के कैसे-कैसे मानदंड!
क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार वे लोग दिल्ली से कुछ घंटों की दूरी पर रहते हैं. पूरा परिवार उच्चशिक्षित है. शहर छोटा है और घर बहुत बड़ा. घर में सभी सुविधा मौजूद है. लड़का इंजीनियर है और एक बहुराष्ट्रीय निगम में काम करता है. लड़के की शादी की उम्र हो चुकी है. रिश्ते आते रहते हैं. […]
क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
वे लोग दिल्ली से कुछ घंटों की दूरी पर रहते हैं. पूरा परिवार उच्चशिक्षित है. शहर छोटा है और घर बहुत बड़ा. घर में सभी सुविधा मौजूद है. लड़का इंजीनियर है और एक बहुराष्ट्रीय निगम में काम करता है. लड़के की शादी की उम्र हो चुकी है. रिश्ते आते रहते हैं. पिछले दिनों एक रिश्ता आया. लड़की संस्कृत में एमए और बीएड थी.
लड़के की मां ने लड़की की पढ़ाई के बारे में सुनते ही कहा कि हमें ऐसी लड़की चाहिए, जिसकी पढ़ाई ऐसी हो कि नौकरियों की कोई कमी न रहे. संस्कृत में एमए के लिए नौकरियां कहां हैं? यह वही संस्कृत भाषा है, जिसको हम बचाना तो चाहते हैं, मगर उसे पढ़ना नहीं चाहते.
याद रहे कि हमारा कोई भी धार्मिक उत्सव इस भाषा के बिना पूरा नहीं होता. सो, यदि संस्कृत परिवार की आय नहीं बढ़ा सकती, तो उसे पढ़नेवाली बहू नहीं चाहिए. 30-40 साल पहले जब औरतें ज्यादा नौकरी नहीं करती थीं, तब कहा जाता था कि मां मैथ्स और साइंस जरूर पढ़ी लिखी हो, जिससे कि बच्चों को पढ़ा सके. ट्यूशन आदि पर पैसे खर्च न हो.
दूसरी घटना भी इससे मिलती जुलती है. एक लड़की सीए कर रही है. जैसा कि हम जानते हैं कि सीए करने में कई बार बच्चों को कई वर्ष लग जाते हैं. बहुत से बच्चे मजाक में कहते हैं कि सीए का मतलब ही है- कम अगेन. माता-पिता का कहना है कि सीए तो शादी के बाद भी किया जा सकता है.
लड़की ने बड़े बेमन से हामी भरी है. लड़की के माता-पिता ने एक सीए लड़के से ही बात चलायी. मगर लड़के ने बात आगे ही नहीं बढ़ने दी. कहा- सीए पूरा कर लिया होता, तो शादी भी करता. पता नहीं कितना टाइम लग जाये. लड़के की बात सुन कर लड़की के माता-पिता बहुत निराश हुए.
इन दो घटनाओं को सुन कर लग रहा है, जैसे कि लड़कियां क्या पढ़ें, कौन सी नौकरी करने के योग्य बनें, इस बारे में अब ससुराल वाले ही तय करेंगे. लड़कियों को अपने पैरों पर खड़ी करने की वकालत करनेवालों का ध्यान शायद इस ओर कभी गया ही नहीं.
एक दिन ऐसा आयेगा कि लड़की के तमाम गुणों, दहेज में मिलनेवाली मोटी रकम और इन सबसे ऊपर बढ़िया पैसे कमानेवाली लड़की को ही भावी दूल्हे आसानी से मिलेंगे. शादी के पुराने मानदंडों के मुकाबले ये नये मानदंड बने हैं. इन पर कोई सवाल भी नहीं उठाता है. क्या कल ऐसा भी होगा कि जो लड़की नौकरी नहीं करती होगी, उसकी शादी ही नहीं होगी?
क्या अब ऐसा होगा कि जो लड़कियां पढ़ी-लिखी तो होंगी, मगर नौकरी न करती होंगी, तो उन्हें बताया जायेगा कि वे तो शादी के लायक ही नहीं हैं. शिक्षा, आत्मनिर्भरता और अपनी आजादी का पाठ पढ़ते-पढ़ते नौकरी कब दहेज का बड़ा हिस्सा बन बैठी, पता ही नहीं चला. जैसे-जैसे समय बदलता है हर रोज दहेज में नयी चीजें जुड़ती जाती हैं और वे बड़ी जल्दी स्वीकार भी कर ली जाती हैं.
समाज के चलन के नाम पर कहीं विरोध के स्वर भी सुनाई नहीं देते. दहेज रोकने के नाम पर 498ए जैसी कठोर धाराएं हैं, मगर शायद ही कोई दहेज देते-लेते वक्त इसके बारे में सोचता है. और अब नौकरी जैसी चीज, जो औरत के सशक्तिकरण के लिए बेहद जरूरी मानी जाती है, वह भी इसमें आ जुड़ी है. दहेज कहां जाकर रुकेगा, कौन बता सकता है!
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