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कई बार शासन को ऐसे निर्णय करने पड़ते हैं, जो तात्कालिक रूप से भले ही अलोकप्रिय और कठोर प्रतीत हों, पर वे व्यापक जनहित और भावी विकास के लिए आवश्यक तथा बदलते समय के रुझानों के अनुकूल होते हैं. कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट सरकार ने केरल विधानसभा के पिछले सत्र […]

कई बार शासन को ऐसे निर्णय करने पड़ते हैं, जो तात्कालिक रूप से भले ही अलोकप्रिय और कठोर प्रतीत हों, पर वे व्यापक जनहित और भावी विकास के लिए आवश्यक तथा बदलते समय के रुझानों के अनुकूल होते हैं. कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट सरकार ने केरल विधानसभा के पिछले सत्र में ऐसा ही एक विधेयक- केरल हड़ताल विनियम विधेयक, 2015- प्रस्तावित किया है, जो अभी सदन की चयन समिति के पास विचाराधीन है.

दो दिसंबर को सदन में इस विधेयक को पेश करते हुए राज्य के गृह मंत्री रमेश चेन्निथला ने कहा था कि इसका उद्देश्य ‘अनावश्यक हड़तालों पर रोक लगाना’ है. निश्चित रूप से हड़ताल करना श्रमिकों और कर्मचारियों के अधिकारों में शामिल है, पर इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि अक्सर हड़ताल के तरीकों का उपयोग गैर-जरूरी मांगों और बेजा दबाव बनाने के लिए किया जाता है. इस विधेयक पर अंतिम निर्णय तो केरल विधानसभा को लेना है, पर चेन्निथला के इस तर्क में दम है कि भारतीय संविधान भी निर्बाध अधिकार से परहेज करता है और उन पर समुचित पाबंदियों को जायज मानता है.

केरल की गिनती देश के सुखी-संपन्न राज्यों में होती है तथा शिक्षा और जागरूकता के मामले में भी वह एक अनुकरणीय मिसाल है. ऐसे में छोटे-छोटे मुद्दों पर हड़ताल किये जाने से क्षुब्ध जनता और उद्यमियों के एक बड़े हिस्से से उठी मांग के बाद लाये गये इस कानून को राजनीतिक संकीर्णता के दृष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए. इस संदर्भ में वस्तु-स्थिति की एक झलक पर्यटन उद्योग से जुड़े उद्यमियों की संस्था एसोसिएशन ऑफ टूरिज्म ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन द्वारा की गयी मांग के रूप में देखी जा सकती है, जिसमें इस विधेयक को अविलंब पारित करने का निवेदन किया गया है. इस संस्था ने बताया है कि 2006 में राज्य को दो हजार करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था तथा 2005 से 2012 के बीच 363 हड़ताल आयोजित किये गये थे. रिपोर्टों के मुताबिक, इसी वर्ष केरल में जिला और पंचायत स्तर पर होनेवाले हड़तालों की संख्या 100 पार कर चुकी है. राज्य के राजस्व में पर्यटन का अच्छा-खासा हिस्सा है और यह रोजगार का बड़ा जरिया भी है. हड़तालों की वजह से पर्यटकों को परेशानी होती है और केरल आने की योजना बना रहे लोग हतोत्साहित होते हैं. इसी पर्यटन मौसम में 20 फीसदी कम पर्यटक आये हैं. प्रस्तावित विधेयक में अन्य बातों के अलावा यह भी प्रावधान है कि हड़ताल करने से तीन दिन पहले सूचना देना अनिवार्य होगा. जोर-जबरदस्ती से दुकानों, कार्यालयों, फैक्टरियों या अन्य संस्थाओं को बंद कराना दंडनीय अपराध होगा. वर्ष 1997 और 2000 में केरल उच्च न्यायालय ने अलग-अलग निर्देशों में बलपूर्वक कराये जानेवाली हड़ताल और बंद को गैर-कानूनी घोषित कर दिया था.

बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने भी इन निर्देशों को सही ठहराया था. वर्ष 2013 में कोलकाता उच्च न्यायालय ने भी राज्य प्रशासन को आदेश दिया था कि वह यह सुनिश्चित करे कि हड़ताल और बंद से आम जनजीवन प्रभावित न हो. इस आदेश को निर्गत करते हुए न्यायालय ने अपने और अन्य न्यायालयों के विभिन्न फैसलों के उल्लेख के साथ सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय को भी उद्धृत किया था, जिसमें बंद के आयोजन को असंवैधानिक कृत्य करार दिया गया था. उक्त निर्देश की एक विशेष बात यह थी कि उसमें काम के अधिकार को भी रेखांकित किया गया था. इसका अर्थ यह है कि हड़ताल में हिस्सा नहीं लेनेवाले लोगों के अधिकार को भी बल प्रयोग से छीना नहीं जा सकता. न सिर्फ केरल या बंगाल में, बल्कि देश के विभिन्न राज्यों में अक्सर ऐसा देखा जाता है कि हड़ताल आयोजित करनेवाले संगठन डरा-धमका कर व्यावसायिक संस्थाओं, कार्यालयों, सड़कों आदि को बंद कराते हैं तथा अनिच्छुक कर्मचारियों को भी साथ देने के लिए विवश करते हैं. इससे आम लोगों को भारी असुविधा उठानी पड़ती है और हिंसात्मक गतिविधियों से जान-माल का नुकसान भी होता है. किसी भी आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि ऐसी कारगुजारियां हड़ताल के उद्देश्यों के लिए फायदेमंद होती हैं. न्यायालयों ने अपने विभिन्न आदेशों में या केरल विधानसभा में प्रस्तावित विधेयक में शांतिपूर्ण तरीके से अपनी मांगों के लिए प्रदर्शन करने और किसी मुद्दे पर विरोध जताने के संवैधानिक अधिकार को कायम रखा गया है. केरल में वामपंथी राजनीति और उनके जन- संगठनों का व्यापक जनाधार है.

ऐसे में उनके विरोध के बावजूद बेमतलब और जबरदस्ती होनेवाली हड़तालों पर काबू करने के लिए की गयी केरल सरकार की साहसिक पहल अन्य राज्य सरकारों के लिए बड़ा उदाहरण है. बदलती परिस्थितियों के अनुकूल कायदे-कानून बना कर ही विकास और समृद्धि की आकांक्षाओं को पूरा किया जा सकता है.

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