कृष्ण प्रताप सिंह
वरिष्ठ पत्रकार
कई दशकों से जेएनयू समेत देश के अनेक विश्वविद्यालय परिसरों के अंदर और बाहर यह गुहार लगाते आ रहे जनकवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ ने गत आठ दिसंबर को शाम साढ़े चार बजे अंतिम सांस ली, तो हिंदी ने अपनी वाचिक परंपरा और प्रगतिशील वाम चेतना का अब तक का अंतिम विद्रोही जनकवि खो दिया.
जनकवि, जो इस अपवंचित राष्ट्र के हलवाहों-चरवाहाें, केवट-कहारों, किसान-मजदूरों, दलितों-वंचितों, स्त्रियों और बच्चों को साथ लेकर उनकी यातनाओं, सपनों व भविष्य के प्रश्नों के समाधान के लिए तमाम पंडों-पुरोहितों, मुल्ला-मौलवियों, महाजनों-जमींदारों और पूंजीपतियों-साम्राज्यवादियों से लड़ता व ‘अपहृत अतीत’ का हिसाब मांगता था. जनकवि, जो आसमान में धान जमाना और भगवानों को धरती से उखाड़ना चाहता था. जनकवि, जिसकी कविताओं में पितृसत्ता, धर्मसत्ता और राजसत्ता के हर छद्म व पाखंड के खिलाफ बेहद तीखी घृणा है. जनकवि, जिसे अपने लिए कोई फंड, प्रकाशन, पुरस्कार, रोजगार, सरकार की नजरे-इनायत या साहित्यिक प्रमोटर नहीं चाहिए था.
जनकवि, जो अपने छंदों व लय की तरह ही मुक्त था, कविताएं लिखता नहीं, कहता, गाता था और जिसने अपनी कविताएं कभी खुद कागज पर नहीं उतारीं. भले ही इस कारण उसकी ढेरों अवधी कविताएं हमेशा के लिए खो गयीं और स्नेही मित्र उसकी सैकड़ों रचनाओं में से कुछ को ही लिपिब़द्ध कर ‘नयी खेती’ नाम के संग्रह में प्रकाशित कर पाये. जनकवि, जिससे मिलना एक परंपरा से मिलना था.
तीन दिसंबर, 1957 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के ऐरी फिरोजपुर गांव में जन्मे करमा देवी व रामनारायण यादव के बेटे रमाशंकर यादव के विद्रोही जनकवि बनने की एक रोचक दास्तान है.
बचपन में ही विवाह के बाद वह शांति देवी नामक बालिका का पति बन गया था. शांति पढ़ने जाती थी, जबकि वह भैंसें चराता था. लोग मजाक उड़ाते थे कि उसका गौना होगा और शांति उसके घर आयेगी, तो उसका अनपढ़ होना सह नहीं पायेगी और उसे छोड़ कर चली जायेगी.
क्या पता, शांति के छोड़ जाने का भय था या उसके प्रति जन्मा सहज मानवीय अनुराग, चरवाहे रमाशंकर ने पढ़ाई शुरू की, तो पीछे मुड़ कर नहीं देखा. बीए के बाद धनाभाव के कारण एलएलबी नहीं कर पाया, तो नौकरी कर ली. लेकिन पढ़ाई की तड़प 1980 में नौकरी छुड़वा कर उसे जेएनयू खींच लायी. उसे हिंदी में एमए करना था, लेकिन जेएनयू के माहौल में रमा, तो तीस से ज्यादा वसंत तक उसी का बना रहा. अलबत्ता, छात्र के नहीं, विद्रोही जनकवि के रूप में उसे कर्मस्थली बना कर. उसके हाॅस्टलों, पहाड़ियों और जंगलों में आय के किसी सुनिश्चित स्रोत के बगैर छात्रों के अयाचित सहयोग से गुजर करता रहा.
काबिलेगौर यह कि इतने विघ्नों व बाधाओं के बावजूद यह विद्रोही अपनी राह पर चला तो बस चलता ही गया. नितिन ममनानी ने हिंदी व भोजपुरी में विद्रोही की कविता पर ‘आइ एम योर पोएट’ शीर्षक से वृत्तचित्र बनाया, तो मुंबई के अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में उसे अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाश्रेणी में सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र का पुरस्कार मिला था.