दस बरस हो चले, जब एक स्थिर और यशस्वी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार आम चुनावों के बाद यकायक रु खसत हो गयी. इस विदाई से लगभग सभी तबकों को अचंभा हुआ. पर इसके कारणों की पड़ताल जरूरी थी. भाजपा को उसी समय गहन आत्ममंथन की आवश्यकता थी. अफसोस यह है कि शायद आजतक कोई आत्मविश्लेषण पार्टी द्वारा नहीं हुआ, ऐसा उसके कार्यकलापों से जाहिर होता है. उसे यह भी समझ नहीं आ रहा कि एक के बाद एक राज्यों की सत्ता उसके हाथ से फिसलती क्यों जा रही है.
दरअसल पार्टी के दिग्गज न ही जमीन से जुड़े हैं, न ही जमीन की ओर देखते हैं, इसलिए दूसरे उन्हें आसानी से उखाड़ फेंकते हैं. मशक्कत और पसीना बहाने की राजनीति भाजपा के पल्ले नहीं पड़ती. उसके नेताओं का रु झान पांचसितारा बहस-मुबाहिसों की ओर ज्यादा मालूम पड़ता है, जबकि वक्त की जरूरत देखते हुए उन्हें गरीब से गरीब जनता के साथ होना चाहिए था. झारखंड में भाजपा 15 वर्ष पहले जितना मजबूत जनाधार रखती थी, एक सशक्त चिरस्थायी सरकार बन सकती थी, पर राज्य गठन के बाद अंतर्कलह का विलासितापूर्ण अध्याय जो शुरू हुआ, वह जनता के सामने लगातार उसकी छीछालेदर करता रहा. जनता भूख-प्यास से मरती रही और सरकारें मीडिया मैनेजमेंट से काम चलाती रहीं.
पार्टी के पीएम प्रत्याशी नरेंद्र मोदी ने पटना की हुंकार रैली के 50 मिनट के भाषण में हल्की टिप्पणियां ही अधिक कीं, बनिस्बत किसी ठोस कार्ययोजना या जमीन से जुड़े किसी काम की चर्चा के. ऐसे समय में जबकि देश-दुनिया उनकी ओर उत्सुकता से देख रही थी, क्या उन्हें और गंभीर रु ख नहीं रखना चाहिए था? अब भी समय है जनता से जुड़ने का.
डॉ हेम श्रीवास्तव, बरियातू, रांची