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कहां गायब हो गये गांधीजी के बंदर ?

।। दीपक कुमार मिश्र ।।(प्रभात खबर, भागलपुर) मेज से लेकर घर की दीवार, शो केश, ताखा तथा मेले में एकाधिकार जमाये महात्मा गांधी के तीनों बंदर गायब हो चुके हैं. एक तरह से देखें तो यह ठीक ही हुआ. क्योंकि गांधी जी के ये बंदर अब अप्रासंगिक हो गये हैं. पहले हमने गांधी टोपी छोड़ी. […]

।। दीपक कुमार मिश्र ।।
(प्रभात खबर, भागलपुर)

मेज से लेकर घर की दीवार, शो केश, ताखा तथा मेले में एकाधिकार जमाये महात्मा गांधी के तीनों बंदर गायब हो चुके हैं. एक तरह से देखें तो यह ठीक ही हुआ. क्योंकि गांधी जी के ये बंदर अब अप्रासंगिक हो गये हैं. पहले हमने गांधी टोपी छोड़ी. उसके बाद उनके बंदरों को. आगे किसकी बारी है, शायद आप समझ ही गये होंगे. ‘बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो’ वाले गांधीजी के तीनों बंदर मूर्ति या तसवीर के रूप में माननीयों की मेज, और आम लोगों के घरों के ताखे या शो-केश की शान हुआ करते थे.

बचपन में जब मेला देखने जाते थे, तो बिना कहे दादाजी या पिताजी यह मूर्ति दिलवा देते. उन्हें लगता कि शायद गांधी बाबा का मान मेरा पोता/ मेरा बेटा रखेगा. अगर इन बंदरों की सीख अपने जीवन में उतारेगा, तो कुछ नहीं तो अच्छा इनसान बन ही जायेगा. लेकिन अब ये मूर्तियां गायब हो गयी हैं. मेले में तो देखने को भी नहीं मिलतीं. पाठ्यक्रमों से भी यह प्रसंग लगभग गायब हो गया है. अभी देश की जो दिशा और दशा है, उसमें तीनों बंदर बेमानी हो गये हैं. पता नहीं अपने देश की राजनीति कहां जा रही है? यहां तो सिर्फ बुरा बोलना है, सुनना है और देखना है.

जनता के मुद्दे गायब हो गये हैं. हमारी राजनीति व राजनेताओं की छवि चाय और जलेबी से तय की जा रही है. चाय-जलेबी बेचना हो या खेती-किसानी करना या फिर कोई अन्य काम, कोई काम छोटा नहीं होता. अब हमारे नेताओं को व्यक्तिगत प्रहार के अलावा कुछ सूझता ही नहीं. सूङो भी तो कैसे? देश के अधिकतर प्रमुख दल क हीं न कहीं सत्ता में हैं. कोई देश में, तो कोई प्रदेश में. कमोबेश सभी जगह के हालात एक जैसे हैं. जनसमस्या की बात करना, किसी के बारे में अच्छा बोलना, महंगाई और भ्रष्टाचार पर बोलना, देश के लिए कुछ कहना तो हमारे नेता लोग भूल ही गये हैं. अब तो ‘खूनी पंजा’ से लेकर ‘मामा’ व ‘चायवाला’ की और कलावती से लेकर शाह बानो तक की बात हो रही है. कई राज्यों में विधानसभा का चुनाव प्रचार चल रहा है. लेकिन नेताओं के संबोधन में आलू-प्याज स्थान नहीं पा रहे.

बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो और बुरा मत देखो वाली संस्कृति गायब हो गयी.अब तो बुरा ही बोलना है, बुरा ही सुनना है और बुरा ही देखना है. हमारी मानसिकता ही खराब हो गयी है. एक कहावत है- जैसा सोचेंगे, वैसा ही दिखेगा. गांधी बाबा सहित अन्य नेताओं जिनके बारे में आज तरह-तरह की बातें हो रही हैं, हम उसमें न पड़ें. उन्होंने देश के लिए जो किया, उसकी चर्चा करें. उन लोगों ने देश के लिए किया, अपने लिए कुछ नहीं किया. कम से कम राजनीति में थोड़ी पवित्रता का तो एहसास रहने दीजिए. व्यक्तिगत आक्षेप से ऊपर भी राजनीति है. गांधी बाबा के बंदरों की प्रासंगिकता बने रहने दीजिए, तभी देश बचेगा. याद रखिए, जब देश नहीं रहेगा, तो आपकी इन फि जूल बातों को सुननेवाला भी कोई नहीं होगा.

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