लोकतंत्र के भीतर पूरा सांस्थानिक ढांचा विधि आधारित शासन-व्यवस्था को गतिमान रखने के लिए खड़ा किया जाता है. इसलिए, देश में लोकतंत्र की निरंतरता के बीच समय-समय पर यह प्रश्न पूछा जाता रहना चाहिए कि हमलोग विधि आधारित शासन दे पाने में कितने सफल साबित हो रहे हैं? विधि-व्यवस्था की सेहत का एक अनुमान थानों में दर्ज होनेवाले अपराधों की संख्या से लगाने का चलन है. इसी क्रम में अदालतों में चल रहे फौजदारी के मुकदमों की संख्या और दोषसिद्धि की दर आदि की भी गणना की जाती है. सरकारी कामकाज का गणित यह मान कर चलता है कि अपराधों की संख्या में आयी गिरावट प्रशासन के चाक-चौबंद होने का प्रमाण है.
मिसाल के लिए, एक समय उत्तर प्रदेश की सरकार ने अपने कामकाज की प्रशंसा में एक नारा इस तर्क के साथ गढ़ा था कि यूपी में चूंकि अपराध बहुत कम है इसलिए यूपी के शासन में बड़ा दम है. बहरहाल, भारतीय राज्य-व्यवस्था के सामाजिक चरित्र को देखते हुए कहा जा सकता है कि अपराधों की ‘संख्या’ में कमी के आधार पर विधि-व्यवस्था के दुरुस्त होने के निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं. मानवाधिकार संबंधी सैकड़ों रिपोर्टो का निष्कर्ष है कि कई मामलों में पुलिस प्राथमिकी तभी दर्ज करती है जब मामला तूल पकड़ ले या पीड़ित किसी रसूखदार का पल्ला पकड़ के पुलिस के पास जाये.
आधिकारिक अनुमानों के मुताबिक वर्ष 2012 में देश में 60 लाख संज्ञेय अपराध के मामले दर्ज हुए, तो करीब इतने ही मामलों को दर्ज ही नहीं किया गया. जाहिर है, इससे न्याय पाने का भरोसा टूटता है. सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यों वाली बेंच ने यह फैसला सुना कर कि पुलिस के लिए संज्ञेय अपराधों की प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य होगा, विधि-व्यवस्था पर जनता के भरोसे को बहाल रखने की दिशा में जरूरी कदम उठाया है. लेकिन, पुलिस संज्ञेय अपराधों की प्राथमिकी अनिवार्य तौर पर दर्ज करे, इसके लिए व्यवहारिक कदम भी उठाने होंगे. पुलिस-बल की संख्या बढ़ाना और पुलिस को अपने कार्य-व्यवहार के प्रति संवेदनशील बनाना ऐसे ही कुछ व्यवहारिक उपाय हैं. इस दिशा में नागरिक-संगठनों के प्रयासों को सांस्थानिक तौर पर जगह देना भी एक समाधान हो सकता है.