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मीडिया के भविष्य पर सवाल

।। डॉ किंशुक पाठक ।। (असिस्टेंट प्रोफेसर, बिहार केंद्रीय विवि, पटना) विश्व के प्रिंट मीडिया जगत के पुरोधा और विख्यात ले-आउट डिजाइनर मारियो गार्सिया का मत है कि 2040 तक दुनिया से प्रिंट मीडिया यानी पत्र-पत्रिकाओं का नामोनिशान मिट जायेगा. यह विश्वव्यापी चिंता का विषय है. इस भविष्यवाणी के तार्किक आधारों की दुनिया भर में […]

।। डॉ किंशुक पाठक ।।

(असिस्टेंट प्रोफेसर, बिहार केंद्रीय विवि, पटना)

विश्व के प्रिंट मीडिया जगत के पुरोधा और विख्यात ले-आउट डिजाइनर मारियो गार्सिया का मत है कि 2040 तक दुनिया से प्रिंट मीडिया यानी पत्र-पत्रिकाओं का नामोनिशान मिट जायेगा. यह विश्वव्यापी चिंता का विषय है. इस भविष्यवाणी के तार्किक आधारों की दुनिया भर में पड़ताल की जा रही है. अस्तित्व की इस चुनौती से जूझते समाचार-पत्रों ने अनेक कारण खोजे हैं, इनकी समीक्षा की है और इस खतरे से बचने के उपाय खोजे जा रहे हैं. वैश्विक स्तर पर माना जा रहा है कि इस बड़ी चुनौती के पीछे सबसे बड़ा कारण मीडिया की वह साख है, जो शुरू से ही इसकी आत्मा रही है. यह आत्मा मीडिया की सत्य और तथ्य की प्रस्तुति पर आधारित साख रही है. व्यावसायिकता के मौजूदा दौर में सत्य के अलावा प्रायोजित समाचारों और विचारों की प्रस्तुति ने प्रिंट मीडिया पर अस्तित्व का बड़ा प्रश्न खड़ा कर दिया है, जिसका निराकरण मीडिया के समक्ष एक गंभीर चुनौती है.

सत्य और तथ्य मीडिया की आत्मा हैं. सच की तह तक पहुंचना और अपने पाठक-श्रोता-दर्शक को पहुंचाना मीडिया का दायित्व रहा है. विश्व स्तर पर इस दिशा में अमेरिका के प्रसिद्घ समाचार पत्र ‘वाशिंगटन पोस्ट’ की पहल अत्यंत महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय है. ‘पोस्ट’ ने तथ्यों की पड़ताल के लिए एक समाचार-प्रयोगधर्मी प्रक्रिया प्रारंभ की है और ‘ट्रथ-टेलर’ नामक सॉफ्टवेयर कार्यक्रम विकसित तथा प्रस्तुत किया है. ‘नाइट फाउंडेशन प्रोटोटाइप फंड’ से सहायता प्राप्त इस कार्यक्रम का लक्ष्य है-मीडिया में सत्य और असत्य की खोज और उसकी प्रस्तुति.

वाशिंगटन पोस्ट के डिजिटल न्यूज एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर ‘कोरी हाइक’ के अनुसार इस विधि के अंतर्गत श्रव्य-दृश्य सामग्री की सत्यता तथा तथ्यपरकता का पता लगाना और पाठकों को सत्य-तथ्य की तह तक पहुंचाना संभव है. इसका उद्देश्य राजनीतिज्ञों, समाजसेवी व्यक्तियों तथा संगठनों से प्रकाशन हेतु प्राप्त विज्ञप्तियों, प्रकाशित सामग्री, भाषणों, वक्तव्यों, उत्तरों आदि में कहे गये असत्य का पता लगाना है. राजनीति में इस ‘ट्रथ टेलर’ से खलबली मचना स्वाभाविक है. वस्तुत: ट्रथ टेलर पत्रकारिता की विश्वसनीयता और साख की दृष्टि से एक ऐतिहासिक कदम और उपलब्धि है. अमेरिका ही नहीं भारत जैसे विकासशील देशों के लिए भी यह सॉफ्टवेयर कार्यक्रम उपयोगी सिद्घ होगा, ऐसी आशा है.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मीडिया की साख तथा गुणवत्ता के विषय में हाल ही में चंडीगढ़ प्रेस क्लब में अपने अभिभाषण में कहा था, ‘संख्यात्मक वृद्घि के अनुपात में गुणात्मक वृद्घि नहीं हो रही है.’ भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मारकंडेय काटजू भी अनेक अवसरों पर प्रेस की गुणवत्ता पर सवाल उठाते रहे हैं. भारत अब कमर्शियल सिनेमा-टीवी के बाद कमर्शियल समाचार-पत्र के युग में प्रवेश कर चुका है. भारत में प्राय: सभी राजनीतिक दलों द्वारा भी अपना खुद का समाचार पत्र प्रकाशित करने के विकल्प की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं.

सवाल है कि क्या इन एफडीआइ द्वारा पोषित और राजनीतिक दलों के निजी समाचार पत्रों की संभावनाओं के बीच भारत में भी स्वतंत्र समाचार-पत्र खत्म हो जायेंगे? फ्रीप्रेसडॉटनेट के अनुसार अमेरिका में दो तिहाई स्वतंत्र समाचार पत्र बंद हो चुके हैं. भारत में भी बड़े कॉरपोरेट मीडिया संस्थान विदेशी पूंजीनिवेश के घोर समर्थक हैं. ऐसे में भारतीय मीडिया संस्थान वैश्विक मीडिया संस्थानों के भारतीय प्रतिनिधि मात्र बन कर रह जायेंगे. मोबाइल पर समाचार पत्रों के पढ़ने की सुविधा ने अमेरिका में समाचार पत्रों की पाठक संख्या में सामयिक रूप से तेज बढ़त दी, लेकिन समूचे मीडिया की अर्थव्यवस्था को काफी क्षति पहुंचायी. बड़ी कंपनियों ने जब मोबाइल संस्करण में ही विज्ञापन देना शुरू किया, तो ऐसे एप्लीकेशन आने शुरू हुए, जो विज्ञापनों को अलग कर देते हैं. इसलिए 2012 में अमेरिका के 1350 में से 400 समाचार-पत्रों ने अपने प्रिंट संस्करण की कीमत बढ़ा कर और इंटरनेट संस्करण को फ्री के बदले पेड बना कर अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार किया.

यूरोप में 2012 में समाचार-पत्रों की आर्थिक और प्रसार की स्थिति में गिरावट जारी रही, क्योंकि इंटरनेट की अत्यधिक गति तथा पहुंच और कम कीमत ने उनके अतिरिक्त अन्य स्नेतों से इतने समाचार उपलब्ध करा दिये हैं कि पाठक पैसा खर्च कर समाचार नही पढ़ना चाहते. कुछ समाचार-पत्रों के बंद होने के बाद जो बचे हैं, वे या तो विज्ञापनों पर चलनेवाले फ्री-पेपर हैं या मजबूत कॉरपोरेट वाले. बचे हुए समाचार-पत्र अपनी कीमतें आराम से बढ़ा रहे हैं. वहीं न्यू मीडिया में ऐसे एप्लीकेशन भी आ रहे हैं, जो समाचार पत्रों के पेड संस्करण को मुफ्त उपलब्ध करा देते हैं. यह समाचार पत्र जगत के लिए विश्वव्यापी चिंता का विषय है.

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