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व्यवस्था की बेरुखी की शिकार शिक्षा
प्रो योगेंद्र यादव सहसंस्थापक, स्वराज अभियान विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के सामने विरोध प्रदर्शन में खड़े-खड़े मेरा मन अतीत में घूमने लगा. शायद माहौल का असर था. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ सहित कई छात्र संगठन एमफिल और पीएचडी की छात्रवृत्ति बंद करने के आदेश का विरोध करने के लिए धरने पर बैठे थे. उनके […]
प्रो योगेंद्र यादव
सहसंस्थापक, स्वराज अभियान
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के सामने विरोध प्रदर्शन में खड़े-खड़े मेरा मन अतीत में घूमने लगा. शायद माहौल का असर था. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ सहित कई छात्र संगठन एमफिल और पीएचडी की छात्रवृत्ति बंद करने के आदेश का विरोध करने के लिए धरने पर बैठे थे. उनके समर्थन में बोलते हुए मैं अपने छात्र जीवन के बारे में सोचने लगा.
मैं ग्यारहवीं में था जब मुझे ‘राष्ट्रीय प्रतिभा छात्रवृत्ति’ (एनटीएस या नेशनल टेलेंट स्कॉलरशिप) मिली. उन दिनों हर महीने 250 रुपये मिलते थे, साथ में किताब खरीदने के सालाना 300 रुपये. अपने छोटे शहर से बाहर दिल्ली महानगर में आकर एमए की पढ़ाई मैंने इसी स्कॉलरशिप के सहारे की.
कभी-कभार घर से पैसे लाने पड़ते थे, लेकिन स्कॉलरशिप से गुजारा चल जाता था. दिल्ली आकर तो एक मित्रमंडली बन गयी थी, जो सब एनटीएस धारक थे. जब 1978 में मुझे स्कॉलरशिप शुरू हुई, तब एक नये लेक्चरार को 1000 रुपये के करीब मासिक वेतन मिलता था. यानी पहली तनख्वाह का एक-चौथाई हिस्सा देश की सर्वश्रेष्ठ स्कॉलरशिप में मिल जाता था.
तीस साल बाद मुझे एनटीएस की खबर लेने का मौका मिला. इस स्कॉलरशिप को चलानेवाली संस्था एनसीइआरटी ने मेरे आग्रह पर इसकी समीक्षा के लिए एक समिति बनायी और मुझे उसमें शामिल कर दिया. तीस साल में इस स्कॉलरशिप की संख्या बढ़ गयी थी. इसकी परीक्षा पूरे देश में राज्य और राष्ट्रीय दोनों स्तर पर हो रही थी. तीस साल में जहां लेक्चरार की तनख्वाह तीस-पैंतीस गुना बढ़ चुकी थी, वहीं एनटीएस सिर्फ 500 रुपये मासिक पर अटकी हुई थी.
कमिटी में जब इसको बढ़ाने की बात आयी, सब बाबू लोगों ने इसका विरोध किया, पैसे की कमी का तर्क दिया. किसी तरह कमिटी ने स्कॉलरशिप राशि बढ़ाने का प्रस्ताव माना, और मंत्रालय ने इस प्रस्ताव को मंजूर किया.
आज एनटीएस में बीए/बीएससी में 2000 रुपये और एमए में 3000 रुपये मासिक दिये जाते हैं. पिछले 40 साल में जहां लेक्चरार की तनख्वाह पचास गुना बढ़ी है, वहीं विद्यार्थियों की स्कॉलरशिप सिर्फ आठ से बारह गुना बढ़ी है.
अब किसी साधारण परिवार का बच्चा सिर्फ स्कॉलरशिप के सहारे हॉस्टल में रह कर पढ़ने की सोच भी नहीं सकता.यह कहानी सिर्फ राष्ट्रीय प्रतिभा छात्रवृत्ति की नहीं है. देश भर में छात्रवृत्तियों का यही हाल है. अपने आप को जनकल्याणकारी, समाजवादी और न जाने क्या कुछ कहनेवाले इस देश में एक प्रतिशत विद्यार्थियों को भी स्कॉलरशिप नहीं मिलती. जिन्हें मिलती भी है, तो इतनी कम कि न्यूनतम खर्च भी नहीं निकलता. अमेरिका जैसा घोर पूंजीवादी देश हमसे कई गुना ज्यादा फीसदी बच्चों को पूरे खर्चे की स्कॉलरशिप देता है.
हमारे यहां सरकारी स्कूलों की फीस तो न के बराबर है, लेकिन मां-बाप बच्चों को जिन प्राइवेट स्कूलों में भेजना चाहते हैं उनकी फीस तक भी स्कॉलरशिप से नहीं भरी जा सकती. शिक्षा में भी बाजार का क्रूर कानून लागू है. जिसकी जेब में जितना पैसा है, वह अपने बच्चों के लिए उतनी ही अच्छी शिक्षा (और फिर नौकरी) खरीद सकता है. आरक्षण पर बहुत बहस होती है, लेकिन देश की पूरी शिक्षा व्यवस्था के अमीर बाप के बच्चों के लिए इस आरक्षण पर बहस नहीं होती.
संख्या की दृष्टि से देश की सबसे बड़ी छात्रवृत्ति योजना है मीन्स-कम-मेरिट स्कॉलरशिप. पिछली सरकार के दौरान अभूतपूर्व विस्तार के बावजूद इसमें कक्षा नवीं से बारहवीं तक पढ़नेवाले लगभग छह करोड़ बच्चों में से चार लाख जरूरतमंद बच्चों को स्कॉलरशिप दी जाती है. सिर्फ 500 रुपये प्रतिमाह. बाकी जितनी भी योजनाएं हैं, वह ऊंट के मुंह में जीरा जैसी हैं.
अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लिए अनेक स्कॉलरशिप योजनाएं हैं, कुछ एकल लड़की के लिए तो कोई अल्पसंख्यक या विस्थापित के लिए. लेकिन सब को जोड़ दो तो एक प्रतिशत विद्यार्थी को भी नहीं मिलती स्कॉलरशिप. जो स्कॉलरशिप सबसे कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए है, उसकी राशि उतनी ही कम है! जिस स्तर पर इसकी जरूरत सबसे ज्यादा होती है, यानी स्कूल के बाद घर छोड़ कर कॉलेज में बीए/ मेडिकल/इंजीनियरिंग की पढ़ाई के वक्त, वहीं स्कॉलरशिप की संख्या सबसे कम है.
इस नियम के दो अपवाद हैं. एक तो विज्ञान और तकनीक विभाग द्वारा युवा वैज्ञानिकों को प्रोत्साहन देनेवाली ‘इंस्पायर’ स्कॉलरशिप, जो अकसर आइआइटी जैसी संस्थाओं में पढ़नेवाले विद्यार्थियों को मिलती है.
देश के शासक अपने बच्चों का ख्याल रखते हुए इस स्कॉलरशिप में 6,650 रुपये मासिक देते हैं. दूसरा अपवाद है पीएचडी के लिए जूनियर और सीनियर रिसर्च फेलोशिप, जिसमें टेस्ट पास करनेवालों को 17,000 रुपये से 20,000 रुपये मासिक मिलते हैं.
यूजीसी के विरुद्ध चल रहा धरना इसी से संबंधित है. कोई पांच साल पहले यूजीसी ने फैसला किया कि जो विद्यार्थी इस टेस्ट को पास न कर पाएं लेकिन एमफिल और पीएचडी में दाखिले की शर्तें पूरी करते हों, उन्हें गुजारे के लिए 5,000 रुपये मासिक की ‘नॉन-नेट’ स्कॉलरशिप दी जायेगी.
शुरू में इसे केवल केंद्रीय विश्वविद्यालयों और फिर कुछ चुनिंदा राज्य विश्वविद्यालयों में लागू किया गया. लेकिन इसका विस्तार करने का वक्त आया, तो यूजीसी ने बिना कारण बताये इस योजना को बंद कर दिया. अब सरकार एक कमेटी बिठा कर टाइम काटने का खेल खेल रही है.
मजे की बात यह है कि इस मसले पर बनी कमेटी को इस स्कॉलरशिप की राशि बढ़ाने का काम दिया गया था, उलटे उसने इसे बंद कर दिया. और शर्म की बात यह है कि जिस बैठक में यूजीसी ने यह फैसला लिया, उसी बैठक में आयोग ने अपने सदस्यों के हर मीटिंग में बैठने के भत्ते को 2,000 रुपये से बढ़ा कर 5,000 रुपये कर लिया!
इतने साल से इस सवाल पर सरकारों की बेरुखी को देखते-देखते मैं एक निष्कर्ष पर पहुंचा हूं. यह किसी व्यक्ति या पार्टी या सरकार की बेरुखी का सवाल नहीं है. यह इस व्यवस्था की बेरुखी और संवेदनहीनता का सवाल है.
इसे भीतर से सुधारा नहीं जा सकता, इसे बाहर से तोड़ना पड़ेगा. यूजीसी के सामने चल रहा धरना इस संघर्ष की शुरुआत हो सकता है. इस संघर्ष को शिक्षा में समान अवसरों के संघर्ष में बदलना होगा.
(अनुवाद : सोनी कुमारी)
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