कविता विकास
स्वतंत्र टिप्पणीकार
कई दिनों के बाद एक दिन सुबह-सुबह खिड़की के पास जा खड़ी हुई. कोहरे के झरोखों से जागती अलसाई सुबह में देखा सामने के विशाल हरसिंगार के पेड़ से झड़ कर सफेद फूल जमीन पर पड़े हुए थे.
इन्हीं फूलों से आशुतोष शिव के जटाजूट का शृंगार होता है, इसलिए इन्हें शिवली भी कहा जाता है. कुछ और दूर तक नजर गयी, तो देखा कसबे के किनारे की खाली जगह पर कांस के फूल खिले हुए हैं, मानो शरद की अगुवाई में सफेद गलीचा बिछा हुआ हो. शरदोत्सव अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ आनेवाला है, उसकी धीमी-धीमी पदचाप सुनायी भी देने लगी है और मुझे इसका पता भी नहीं चला. क्षण भर के लिए मन में खुशी की लहर फैल गयी.हम कितने मशगूल हो गये हैं अपने-आप में, अपनी दिनचर्या में और जिंदगी की जद्दोजहद में.
हद तो तब हो गयी जब अपने आसपास के लोगों से मैंने पूछा, ‘क्या उन्हें शीत के आगमन का अनुभव हो रहा है?’ उन्होंने बड़ी बेरुखी से जवाब दिया कि इसमें कौन सी बड़ी बात है, मौसम तो आते-जाते रहते ही हैं. सही है, अपना कोई प्रिय त्योहार या मौसम कब आया और कब गया, इसकी सूचना हमें तब मिलती है जब उससे जुड़ी कोई असाधारण घटना न हो जाये. प्रकृति के सौंदर्य-बोध से जीवन का दर्शन जुड़ा हुआ है. अब तक मन पर छाया हुआ अवसाद का बादल अब छंटने लगा था.
कितना अद्भुत नजर था शरद के आगमन का. ओस से भीगी वसुधा को अपनी ऊष्मा के पुलक स्पर्श से रोमांचित करने के लिए शनैः-शनैः चहुं दिशाओं में मंडराता रहता है. गेंदा, गुलदाउदी, डहलिया, पलास, पैंसी के अनगिनत फूलों में दमदम करता यौवन मधूपों की टोली को आकर्षित कर मानवीय संवेदनाओं को झिंझोड़ती रहती है. कदम-कदम पर अनोखी छटा है और मनुष्य इन सबसे बेखबर मौसम के माहवारीय आवागमन से वास्ता रखता है.
उनसे जुड़ी सुंदरता और परिवर्तन को जीने की कोई लालसा नहीं. सचमुच हम यंत्र मानव गमले में लगे कैक्टस हैं, जिन्होंने अपने यत्र-तत्र कंटीली झाड़ियों की बाड़ उगा रखी है. भला ऐसे में ऋतुओं की मधुर आहट कैसे सुनाई देगी? ठिठक गया है शरद भी हमारे मन के चौखट पर.
गगनचंुबी इमारत के कबूतरखाने जैसे फ्लैट की गज भर बालकनी में शरद की फुहार बन छिटकी गुनगुनी धूप में खड़े होकर देखो, शायद मन पर जमी बर्फ पिघल जाये और तब चौखट पर ठिठका शरद अंदर प्रवेश कर जायेगा. ऐसा हुआ तो जीवन जीने की कला आ जायेगी. जीवन की रिक्तता में भी समग्रता आ जायेगी.
हर मौसम के साथ दुख-सुख जुड़ा है. हमारी अंतश्चेतना उनसे कैसे सामंजस्य बिठाती है, यही तो आत्मबोध है. अगर वसंत के स्वागत में हम पलकें बिछाये रहते हैं, तो शरद का भी दिल से स्वागत करना चाहिए.
प्यार, वात्सल्य और सफलता की अनुभूतियां दिल को खुशियों से सराबोर कर देतीं हैं. सावन की रूमानी फिजा भी आग उगलती महसूस होती है, यदि मन उदास होता है. शायद इसलिए कहा गया है कि असली मौसम तो दिल के अंदर होता है.