।।प्रकाश सिंह।।
(पूर्व पुलिस उच्चधिकारी)
पटना के गांधी मैदान में बीते रविवार को भाजपा की हुंकार रैली के दौरान हुए श्रृंखलाबद्ध बम धमाकों के बावजूद वहां मौजूद लोगों के बीच अफरा-तफरी नहीं मची. ऐसा होता, तो स्थिति और भी भयानक हो सकती थी. हम इस बात से थोड़ी राहत महसू कर सकते हैं. लेकिन, देश में जिस तरह से आतंकवादी हमलों का सिलसिला जारी है, वह राहत महसूस करने की कोई वजह नहीं देता. ऐसी घटना देश के किसी भी हिस्से में हो, उसकी पहली जिम्मेवारी स्थानीय पुलिस-प्रशासन पर आती है.
इस आतंकी हमले के लिए इंटेलीजेंस की चूक को कसूरवार ठहराना गलत है. मेरे ख्याल से यह राज्य सरकार के सुरक्षा तंत्र की नाकामी है. मीडिया में आ रही खबरों का दावा है कि इंटेलीजेंस ने राज्य सरकार को ऐसे हमले की पुख्ता सूचना दी थी. खुफिया एजेंसियां जब सरकार को सूचना मुहैया कराती हैं, खास तौर पर ऐसे मामलों में, तो वह सिर्फ यह नहीं कहतीं कि .कुछ. हो सकता है. खुफिया एजेंसियां यह भी बताती हैं कि कहां पर और कैसे हादसों को अंजाम देने की योजना है और इस योजना में कौन सा समूह शामिल हो सकता है. इंटेलीजेंस इनपुट बताता है कि फलां (क, ख या ग) आदमी, फलां जगह, फलां समय पर ऐसा करनेवाला है. अगर मीडिया की खबर को सही माना जाये, तो इस हादसे के लिए प्राथमिक जिम्मेवारी राज्य सरकार की ही बनती है. बड़ा सवाल यह है कि सूचना के मिलने पर उसने सुरक्षा के क्या इंतजाम किये? राज्य सरकार को गंभीरता से संज्ञान लेते हुए अपने स्थानीय प्रशासन को अलर्ट कर देना चाहिए था, जो इस मामले में शायद नहीं हुआ.
यह अफसोस के साथ कहा जा सकता है कि हिंदुस्तान की मौजूदा पुलिस व्यवस्था शिथिल है. यह एक बड़ा कारण है कि हम देश में हो रहे ऐसे हादसों को रोकने में नाकाम साबित होते हैं. अगर यही हालत रही, तो हमें इसके और भी भयानक नतीजे भुगतने होंगे. देश के नेताओं ने हमारी पुलिस-प्रशासनिक व्यवस्था को अंदर से खोखला कर दिया है. ऐसा लगता है कि खुफिया विभाग और प्रशासन को सिर्फ सरकार एवं नेताओं-मंत्रियों की ही चिंता है, आम जनता की नहीं. अगर किसी जगह का प्रशासन उसको मिली शक्ति और अपने बल-विवेक के बजाय नेताओं के आदेश का इंतजार करेगा, वहां की आंतरिक सुरक्षा को लेकर इस तरह का खतरा बरकरार रहेगा. ऐसे किसी हादसे को रोकने में वह कामयाब नहीं हो पायेगा.
पुलिस सुधार को लागू करने की जिम्मेवारी राज्यों की होती है. हमारे देश का पुलिस-कानून तकरीबन डेढ़ सौ साल पुराना है. इसमें सुधार की ढेरों गुंजाइश है. इसी के मद्देनजर पुलिसिया व्यवस्था में सुधार लाने के लिए समय-समय पर कई समितियों का गठन किया गया और उन्होंने अपना-अपना प्रारूप सरकार को सौंपा. सन् 1977 में पुलिस सुधार आयोग बना. सन् 1998 में रिबेरो समिति का गठन किया गया. सन् 2000 में पद्मनाभैया समिति और दो साल बाद सन् 2002 में मलीमथ समिति बनी. सन् 2005 में 20 सितंबर को देश के विधि विशेषज्ञ सोली सोराबजी की अध्यक्षता में भी एक समिति का गठन हुआ. इसकी अगली कड़ी में सुप्रीम कोर्ट ने 22 सितंबर, 2006 को प्रकाश सिंह (यानी मैं) बनाम केंद्र सरकार मसले परएक ऐतिहासिक फैसला सुनाया. आखिरकार सन् 2006 में 30 अक्तूबर को .मॉडल पुलिस एक्ट-2006. का प्रारूप केंद्र सरकार को सौंपा गया.
इसी कड़ी में पुलिस सुधार को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में सख्त निर्देश दिये थे. लेकिन राज्य सरकारों ने उस निर्देश का अनुपालन करने के बजाय स्थिति को और भी खराब कर दिया. इसी खराबी का परिणाम है कि इंडियन मुजाहिदीन के मास्टर माइंड यासीन भटकल को गिरफ्तार करने के लिए भी बिहार पुलिस हिचक रही थी. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की आंतरिक सुरक्षा की नीतियों में दूरदर्शिता की कमी नजर आती है. वे आतंकवादियों व माओवादियों, दोनों के प्रति शिथिल नजर आते हैं. ऐसे में पुलिस सुधार, आतंकवाद और नक्सलवाद से निबटने के लिए पुख्ता इंतजामात करने की गुंजाइश कम हो जाती है.
राजनीति और आंतरिक सुरक्षा दो बिल्कुल अलग-अलग चीजें हैं. हमारे देश में राजनीतिक वर्ग शासन से ज्यादा वोट की चिंता में मशगूल नजर आता है. यह समस्या किसी एक राज्य की नहीं है. जाहिर है, ऐसे में आंतरिक सुरक्षा जैसे सवाल पीछे छूट जाते हैं. इससे जनतंत्र के बुनियादी तत्व कमजोर हो जाते हैं. जब तक ऐसे हादसे नहीं होते, तब तक तो सबकुछ ठीक रहता है, हादसों के बाद यह परेशानी परिलक्षित हो जाती है. जब प्रशासनिक व्यवस्था राजनीति के प्रभाव में आती है, तो वह अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करने की क्षमता गंवाने लगती है. ऐसे हादसों को रोकने के लिए पेशेवर दक्षता की जरूरत होती है. हमारे देश की बड़ी समस्या है कि हमारी पुलिस ऐसी चुनौतियों से निबटने के लिए न पूरी तैयार है, न ट्रेंड. न सक्षम. ऐसे हादसे प्राय: तैयारी के स्तर पर कमी के कारण ही होते हैं. जब कोई हादसा होता है, तब पुलिस के आधुनिकीकरण की बात होती है, उनकी संख्या बढ़ाने, उन्हें नये उपकरण, ज्यादा शक्ति देने की बात होती है, लेकिन कुछ दिनों के बाद हादसों की ही तरह, इन घोषणाओं को भी भुला दिया जाता है. अगला हादसा होने के बाद ही पुलिस-प्रशासन की नींद टूटती है. बिहार में जिस तरह से पिछले एक साल में दो आतंकी हमले हुए हैं, उसके आईने में इस सच्चई को पढ़ा जा सकता है. जाहिर है अगर बोधगया के आतंकी हमले के बाद सुरक्षा तंत्र को चाक-चौबंद किया जाता, तो शायद इस हमले को रोका जा सकता था.
यह कहना पूरी तरह से सही नहीं होगा कि बिहार आतंकवाद का एक नया निशाना है या बनने जा रहा है. लेकिन, इतना जरूर है कि बिहार में जिस तरह के हालात हैं, उसके मद्देनजर सुरक्षा-व्यवस्था की दृष्टि से वह बहुत कमजोर नजर आता है. बिहार में आतंकवाद का पूरा मॉड्यूल विकसित हो गया है, लेकिन उसके खिलाफ कोई बड़ी कार्रवाई न तो केंद्र सरकार, न ही राज्य सरकार के तरफ से की गयी है. हां, इंडियन मुजाहिदीन के मास्टरमाइंड यासीन भटकल को बिहार से गिरफ्तार किया गया, लेकिन भटकल की गिरफ्तारी खुश होकर बैठने की कोई वजह नहीं है, बल्कि यह एक चिंतित करनेवाला तथ्य है कि बिहार में आतंकवाद इस तरह विस्तार पा रहा है. इस पर जल्द से जल्द कठोर कार्रवाई करने की जरूरत है.
(बातचीत : वसीम अकरम)