।।हरिवंश।।
– आगे बढ़ने की ऐसी नजीर और कहीं नहीं
एडगर स्नो की विश्वप्रसिद्ध पुस्तक ‘रेड स्टार ओवर चाइना’, कई दशकों पहले पढ़ी थी. विद्यार्थी था. विचारों, वाद और वामपंथ की आभा–आकर्षण की दुनिया पस्त नहीं हुई थी. फैशन, भोग, पैसा ही भगवान, चरित्र कोई चीज नहीं, जैसे मूल्यों से यह नयी दुनिया नहीं बनी थी.
गांव से आया था. अंगरेजी नहीं आती थी. पर ऐसी ही पुस्तकों को पढ़ने के लिए अंगरेजी सीखी. हालांकि हमारी पीढ़ी के पढ़ने तक यह नारा जिंदा था कि ‘अंगरेजी में काम नहीं, देश फिर गुलाम नहीं.’
रोमांचित किया एडगर स्नो की किताब ने. चीनियों के संघर्ष ने. चीनियों के इतिहास, दर्शन, अतीत और संकल्प ने. तब से चीन को लगातार जानने की इच्छा कमजोर नहीं हुई. उम्र बढ़ी. उत्साह–ऊर्जा घटे.
पर, चीन का मोहपाश बना रहा. चीन पर न जाने कितनी किताबें एकत्र कर ली है. पढ़ने, उस रहस्यमय देश को जानने–समझने की साध में. पता नहीं इन्हें कब पढ़ना होगा? कुछ महीनों पहले ही ली, मार्टिन जेक्वेस की किताब ‘ह्वेन चाइना रूल्स द वर्ल्ड’ (जब चीन दुनिया पर शासन करेगा). विश्व में सर्वाधिक बिकी किताबों में से एक. लेखक मानते हैं कि जल्द ही चीन दुनिया पर शासन करेगा.
पर, ऐसा करने में वह पश्चिम के मुल्कों जैसा नहीं होगा. उनके अनुसार आनेवाले समय में दुनिया में चीन का महज आर्थिक प्रभाव ही नहीं होगा, बल्कि सांस्कृतिक असर भी होगा. चीन की पुरानी ताकतवर सभ्यता जब नये रूप में उदित–अवतरित होगी, तब दुनिया में पश्चिम का प्रभाव–आधिपत्य घटेगा और आधुनिकता की नयी परिभाषा लिखी–गढ़ी जायेगी.
इसी तरह जान आसबर्ग की किताब है ‘एंक्शस वेल्थ’ (बेचैन धन). यह पुस्तक चीन के नवधनाढ्यों की नैतिकता और पूंजी यानी धन बोध (मनी एंड मारिलिटी एमांग चाइनाज न्यू रीच) की चर्चा करती है. इस देश को गढ़नेवाली असली सत्ता किसके पास है? चीनी सरकार के पास या चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के पास? जानकार कहते हैं, पार्टी के पास असल ताकत, रणनीति, विजन है.
बताते हैं, पार्टी में अब भी वैसे लोग हैं, जिन्होंने चुपचाप कार्यकर्ता रह कर जीवन झोंक दिया. पार्टी के लिए ही तप, त्याग, साधना और अनवरत कर्म में चुपचाप ये कार्यकत्र्ता खप गये. इन पार्टी कार्यकर्ताओं–नेताओं की नींव पर ही, आधुनिक चीन खड़ा हुआ है, यह भी कुछ चीनी विशेषज्ञ कहते हैं.
यह जानने पर भारत के दलों, कांगेस, साम्यवादी, समाजवादी, जनसंघ, भाजपा, आरएसएस या नक्सल आंदोलन के वे लोग याद आये, जिन्होंने चुपचान अपने विचारों के नाम जीवन होम कर दिया. आज किस दल के पास ऐसे कार्यकत्र्ता हैं. चीनी कम्यूनिस्ट पार्टी के बारे में और जानने की इच्छा हुई, तो रिचर्ड मैगगग्रेगर की पुस्तक ‘द पार्टी’ मिली, जिसमें चीनी कम्युनिस्ट शासकों की गोपनीयता, दुनिया की सूचनाएं (द सीक्रेट वर्ल्ड ऑफ चाइनीज कम्युनिस्ट रूलर्स) हैं.
फिर चीन के उस आदमी के बारे में पढ़ने की जिज्ञासा हुई, जिसे हार्वर्ड के विद्वान 20वीं सदी में पूरी दुनिया पर असर डालनेवालों में सबसे बड़ा नाम मानते हैं, देंग सियाओपेंग. कहते हैं, मौजूदा चीन उनकी परिकल्पनाओं की देन है. कभी माओ ने, जिसे रूई के गठ्ठर में एक सूई (निडिल इनसाइड ए वाल ऑफ कॉटन) कहा था, उन पर ढूंढ़ी हार्वर्ड के ही प्रोफेसर इजरा एफ वोगेल की किताब ‘देंग सियाओपेंग एंड द ट्रांसफारमेशन ऑफ चाइना.’ चीन पर अनेक किताबें हैं, पर एक विशिष्ट किताब मिली.
ली कुआन यी से बातचीत के आधार पर तैयार. सिंगापुर का कायाकल्प करनेवाली ली के टक्कर का राजनेता आज दुनिया में कोई दूसरा नहीं. इस पुस्तक (2013 का प्रकाशन) की भूमिका लिखी है, हेनरी ए किसिंगर (अमेरिका के चर्चित पूर्व विदेश मंत्री) ने. ली से बातचीत की है, दुनिया के जाने–माने तीन प्रोफेसर अध्येताओं ने.
इसमें चीन, अमेरिका समेत मौजूदा दुनिया (भारत पर भी) के संबंध में ली से बातचीत है. जो भारत को महान बनाने का ख्वाब देखते हैं, उनके लिए भी जरूरी किताब. चीन, अमेरिका या दुनिया किधर अग्रसर हैं? कल (यानी भविष्य की तसवीर कैसी है? भविष्य का चीन कैसा होगा? इसी पुस्तक में भारत के भविष्य के बारे में भी उल्लेख है, इस पर एक अलग लेख प्रभात खबर में छप चुका है. (देखें दिनांक-28.04.13, पेज-1, शीर्षक था, ‘घिर गया है देश!’)
ली के चीन पर विचार पढ़ते हुए भी चीन के बारे में निजी धारणा ही पुष्ट हुई. चीन, आज का चमत्कार है! मानव इतिहास में कोई दूसरी नजीर नहीं. देखते–देखते 30-35 वर्षो में एक देश, दुनिया की महाशक्ति बन जाये? नेपोलियन ने कहा था, सोये रहने दो इन्हें, जगेंगे, तो दुनिया पर राज करेंगे. जहां अफीम के नशे में सोये–डूबे रहने की बात की जाती थी, उस मुल्क ने अपनी नियति बदल दी.
असंभव को साकार किया. अपनी धुन, संकल्प, पौरुष, कर्मठता और कर्म से? आप–हम (भारत) आलोचना करते रहें, पर दुनिया में हम हाशिये पर हैं. चीन की आवाज गूंजती है, तो दुनिया के कोने–कोने में ध्वनित होती है. भारत चीखता भी है, तो हमारी अपनी गली (सीमा) में ही हमारी गूंज दम तोड़ देती है, क्यों?
संक्षेप में सिंगापुर गढ़नेवाले ली के ही विचार हम समङों, चीन के बारे में. उनसे पूछा गया कि क्या चीनी नेता अमेरिका को पीछे छोड़ कर एशिया और संसार की नंबर एक महाशक्ति बनना चाहते हैं?
ली कहते हैं, हां! क्यों नहीं? चीनी लोगों ने एक चमत्कार से ही एक गरीब देश को ‘आर्थिक चमत्कार’ (इकोनॉमिक मिरेकल) में बदल दिया है. आज चीन, दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. इसी रास्ते नंबर एक होने पर अग्रसर. गोल्डमैन सचेस ने भविष्यवाणी की है कि अगले 20 सालों में चीन, विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का देश होगा. अमेरिका के रास्ते चीन ने भी अंतरिक्ष में इंसान भेजा है. उपग्रह को मिसाइल से मार गिराने की तकनीक विकसित की है.
चीन के पास पिछले 4000 वर्षो की संस्कृति है. 130 करोड़ लोगों की आबादी है. लोग भी अत्यंत प्रतिभाशाली हैं. प्रतिभा का एक बड़ा भंडार है, चीन के पास. इसलिए वे एशिया, फिर दुनिया में नंबर एक होने की ख्वाहिश क्यों न पालें या रखें? चीन, आज दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़नेवाली अर्थव्यवस्था है.
50 सालों पहले कोई कल्पना नहीं कर सकता था कि चीन इस रफ्तार से आगे बढ़ेगा? एक चमत्कारिक बदलाव. जिसका पूर्वानुमान या आभास किसी को नहीं था. आज चीन के लोगों की आकांक्षाएं और उम्मीदें आसमान छू रही हैं. हर चीनी आज एक मजबूत और संपन्न चीन देखना चाहता है.
एक ऐसा संपन्न व समृद्ध देश, विकसित मुल्क, तकनीकी रूप से सक्षम वतन, जो अमेरिका, यूरोप व जापान की तरह हो. नियति लिखने का यह जाग्रत एहसास या बोध ही चीन की अद्भुत ऊर्जा स्नेत है (यह पढ़ते हुए हमें पंडित नेहरू का इतिहास प्रसिद्ध वह भाषण याद आया, जब भारत आजाद हुआ था. आधी रात को दिया गया भाषण, ‘नियति से मुठभेड़’ पर आज हम कहां और चीन कहां?).
चीन का साफ इरादा है कि वह दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बने. दुनिया के सभी देशों की चीन के प्रति नीति में यह एहसास भी साफ झलकता है. खासतौर से चीन के पड़ोसी देशों में. अब चीन के प्रति हर देश अपनी नीति बदल रहा है, ताकि चीन के मूल स्वार्थ–हित पर कहीं चोट न हो. चीन, अत्यंत सहजता से, साधारण कदम उठा सकता है कि वह 130 करोड़ लोगों का अपना बाजार, जिन मुल्कों के प्रति नाराजगी है, बंद कर दे.
अन्य उभरते मुल्कों के विपरीत चीन, चीन ही बनना–रहना चाहता है, वह पश्चिमी देशों के क्लब के एक और मानद सदस्य के रूप में अपनी पहचान या स्वीकार नहीं चाहता.
चीनी लोगों के दिमाग में उपनिवेशवाद के पहले के दिनों की तसवीर–स्मृति है. इसके बाद जो शोषण और अपमान चीन ने झेला, वह भी उनकी स्मृति में है. चीनी मानस या जीवन संस्कृति में चीन का अर्थ है ‘मध्यकाल का चीनी राजवंश’. उस चीनी शासन या दौर की स्मृति, जब अपने इलाके–क्षेत्र में उनका (चीन) आधिपत्य था. अन्य देश या शासक, जो उनसे जुड़े थे. उनके बीच श्रेष्ठता और अनुयायी का रिश्ता था.
अन्य देश चीन की विनती, चिरौरी की भूमिका में थे. तब जागीरदार या मातहत नजराना या उपहार या भेंट या खिराज लेकर चीनी दरबार में उपस्थित होते थे. उदाहरण स्वरूप, ब्रूनी के सुल्तान का प्रकरण. चार सौ वर्ष पूर्व ब्रूनी के सुल्तान सिल्क लेकर चीनी बादशाह को नजराना देने चीन पहुंचे, पर वहीं उनकी मौत हो गयी. आज चीन में उनका मकबरा (समाधि या रौजा) है.
आज एक सवाल है कि औद्योगिकृत और महाबली चीन दक्षिण–पूर्व एशिया के देशों के लिए उतना ही भद्र, सौम्य या सदासशय होगा, जितना 1945 के बाद अमेरिका ने इस इलाके के देशों के प्रति रखा है? ली कहते हैं, इस सवाल के उत्तर में सिंगापुर आश्वस्त नहीं है. न ही ब्रूनी, इंडोनेशिया, मलयेशिया, फिलीपींस, थाईलैंड, वियतनाम.. वगैरह? हम तो चीन को आज आत्ममुग्ध और कठोर कदम उठाने की इच्छा रखनेवाले देश के रूप में देख रहे हैं. अमेरिका की चिंता है कि चीन जब उनकी ताकत को टक्कर देगा, तब वे किस तरह का संसार ‘फेस’ (सामना) करेंगे? एशिया के अनेक छोटे–मझोले देश भी चिंतित हैं.
इन देशों की बेचैनी है कि चीन कहीं पुन: अपने उस साम्राज्यशाही प्रताप की वापसी न चाहे? जो कई शताब्दियों पहले चीनी शासन का प्रताप था. कहीं पुन: इस नये उदित महाबली चीन को बीती शताब्दियों की तरह पास–पड़ोस के देशों को नजराना न देना पड़े. चीन के इस आधिपत्य की संभावना से एशिया में बेचैनी है. वह (चीन) उम्मीद करते हैं कि चीन जैसे–जैसे और ताकतवर हो, सिंगापुर उसका सम्मान करे (यह ली कह रहे हैं, याद रखें).
वे यानी चीनी, हमें यानी सिंगापुर को कहते हैं कि देश बड़े हों या छोटे, एक समान हैं. हम आधिपत्यवादी (हेजिमोन) नहीं हैं, पर जब हम (ली कहते हैं यह) कुछ करते हैं, तो वे चीनी कहते हैं, आपने 130 करोड़ लोगों को नाखुश कर दिया.. यह कहने का अर्थ, आशय या संकेत साफ है, अपनी हैसियत या जगह पहचान–जान लें.
चीनी लोगों का निष्कर्ष है कि मजबूत और समृद्ध भविष्य के लिए उनके पास बड़ी जमात है, अत्यंत उच्च शिक्षित (हाइली स्किल्ड), पढ़े–लिखे चीनी लोग या मानव संपदा. इनके बल बिना संघर्ष, झगड़े के पहले वे चीन को ताकतवर बनाना चाहते हैं. फिलहाल अपने को मजबूत और संपन्न बनाने के क्रम में चीन, अमेरिका से संघर्ष वगैरह में नहीं उलझेगा.
चीन धैर्य से, तर्कसंगत तरीके से लगातार उस विचार या रास्ते पर चल रहा है, जो विचार–सपने–कल्पना चीनी टेलीविजन सीरियल में हैं, ‘द राइज ऑफ ग्रेट पावर्स’ (महाशक्तियों का उदय–उत्थान). इस सीरियल को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने ‘प्रोड्यूस’ (बनाया) किया है. भारत के राजनीतिक दलों से देश के संबंध में किसी ऐसे बड़े सपने के बारे में पूछे? चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने यह सीरियल इसलिए बनाया, ताकि चीन के बौद्धिक वर्ग में ‘महान चीन’ को गढ़ने–बनाने को लेकर बहस हो सके.
एक खाका बन सके. चीनी जनता एक सामूहिक सपने से प्रेरित हो सके. एक सपने से बंध सके. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा तैयार यह सीरियल आज हर चीनी का सपना है (काश! भारत के किसी दल के पास पूरे भारत के लिए इस तरह का कोई सपना होता). ली आगे बताते हैं कि जर्मनी और जापान की मूल समस्या यह थी कि वे अपने उदय के साथ ही, उस वक्त जो विश्व का सत्ता समीकरण था, उसको, उन्होंने चुनौती दे दी.
एक तरह से ठेठ भारतीय ग्रामीण लहजे में कहें, तो अपनी बढ़ती ताकत का अहंकार जापान–जर्मनी संभाल नहीं सके. पर चीनी इस तरह मूर्ख और नासमझ नहीं हैं. उन्होंने यह गलती नहीं की. जानबूझ कर.. उनकी दृष्टि में कुल जीडीपी (ग्रास डोमेस्टिक प्रोडक्ट यानी समग्र घरेलू उत्पाद), ताकत और सत्ता के संदर्भ में निर्णायक है, न की प्रति व्यक्ति जीडीपी.
यानी प्रति व्यक्ति आय से ज्यादा महत्वपूर्ण है, देश के लिए समग्र घरेलू उत्पाद का सर्वाधिक होना और दुनिया में छा जाना.. सैन्य क्षमता में हाल के कुछ वर्षो में चीन, अमेरिका के स्तर पर नहीं पहुंचेगा, पर बहुत तेजी से उन साधनों को विकसित कर रहा है, जिससे वह अमेरिकी सेना के ताकत का मुकाबला कर सके. चीन समझता है कि उसका विकास निर्यात पर निर्भर है, ऊर्जा, खाद्यान्न व रा मेटेरियल (कच्चे सामान) पर. चीन को आज समुद्र में भी खुला रास्ता चाहिए.
मलाका की खाड़ी पर उसकी निर्भरता उसे पता है. इसलिए वह वहां पहुंच कर भी अपनी स्थिति सुदृढ़ कर रहा है.
चीनी लोगों का आकलन है कि उन्हें 30 या 40 या 50 वर्ष चाहिए, शांतिपूर्वक, चुपचाप काम करते रहने के लिए, ताकि वे अपना चीनी सिस्टम मजबूत कर सकें. इसे साम्यवादी व्यवस्था से बदल कर पूरी तरह बाजार व्यवस्था में ले जा सकें. जर्मनी और जापान की तरह उन्हें गलती करने से बचना चाहिए.
इन दोनों मुल्कों में सत्ता, महत्व और संसाधनों के लिए पिछली शताब्दी में जंग हुई और दो बड़े विश्वयुद्ध हो गये.. रूस की भूल थी कि उन्होंने रक्षा व सेना पर भारी खर्च किया, उसकी अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गयी. ऐसा लगता है कि चीनी नेतृत्व को एक एहसास है कि अगर वे हथियारों की होड़ में अमेरिका से मुकाबला करते हैं, तो वे लूजर (गंवाने वाले) होंगे. खुद को खराब हाल में पहुंचा लेंगे. इसलिए उन्होंने 40-50 वर्षो तक धैर्य से खुद के नवनिर्माण की योजना बनायी है.
स्पर्धा में रहने के लिए चीन ने खासतौर पर अपने युवा लोगों को शिक्षित करने में ऊर्जा लगायी है. सबसे प्रतिभाशाली छात्रों को वे विज्ञान और टेक्नोलाजी में चुन कर लेते हैं. इसके बाद प्रतिभा के आधार पर अर्थशास्त्र, बिजनेस मैनेजमेंट और अंगरेजी पाठ्यक्रम के लिए चीनी युवाओं को प्रशिक्षित करते हैं.
इसलिए ली ने चीन को पीसफुल राइज (शांतिपूर्ण तौर तरीके से उदय या उत्थान) की संज्ञा दी. पर, चीन का यह उत्थान स्तब्धकारी है. आप जानते हैं, चीनियों ने मुझसे पूछा कि आप इसे क्या कहेंगे? ली ने लिखा है कि मेरा जवाब था, पीसफुल राइज आर इवोल्यूशन आर डेवलपमेंट (शांतिपूर्ण उदय या पुर्नजागरण या विकास). एक प्राचीन शौर्य, शान और प्रतिष्ठा का नये रूप में आविर्भाव या उदय. यह चीनी सभ्यता, कभी महान थी. अब वह पुन: आधुनिक रूप में महानता की ओर है.
ली बताते हैं कि एक चीनी नेता (उम्र 70 के दशक में) ने मुझसे पूछा कि आपको यकीन है कि हम शांतिपूर्ण तौर तरीके से उभर रहे हैं? मेरा जवाब था, हां! मैं मानता हूं पर मेरा एक केवियट (चेतावनी) है. आपकी पीढ़ी (संदर्भ–चीनी नेता) ने जापान के खिलाफ युद्ध किया है, द ग्रेट लीफ फारवर्ड (माओ का आंदोलन) में हिस्सेदारी की है, सांस्कृतिक क्रांति में हिस्सा लिया है, गैंग ऑफ फोर (माओ के बाद सत्तारूढ़ लोग) का मुकाबला किया है.
अंतत: ओपेन डोर पॉलिसी (आशय–साम्यवाद) के तहत आप लोगों ने बंद दरवाजे को बाजार व्यवस्था के लिए खुला बनाना भी किया. आप चीनी नेताओं को पता है कि रास्ते में अनेक अवरोध है.
गड्ढे व फंदे है. पर अब चीन के सामने ऐसे अवरोध नहीं हैं, इसलिए अब स्कैटर्ड (बिखराब–प्रसार–फैलाव) गति से चीनी विकास की यह यात्रा बिना खतरे के होगी. इसके लिए जरूरी है कि देश के अंदर स्थायित्व हो. बाहरी मोरचों पर शांति रहे. फिर ली ने कहा, उस चीनी नेता से कि आपलोग चीन के उदय और गौरव का जो गर्वबोध और राष्ट्रीयता का अहं नयी चीनी पीढ़ी में भर रहे हैं, वह बहुत विस्फोटक है.
चीन की रणनीति साफ है. चीन के नेता यह एहसास करा चुके हैं कि चीन का महाशक्ति के रूप में उदय अवश्यंभावी है. अब दुनिया के अन्य देशों को तय करना है कि वे चीन के मित्र रहना चाहते हैं या शत्रु? दक्षिण–पूर्व एशिया के देशों को चीन अपनी आर्थिक व्यवस्था में समाहित कर रहा है.
क्योंकि चीन का बाजार बड़ा है और उसकी क्रयशक्ति बड़ी है. अंतत: जापान और दक्षिण कोरिया, चीन के बाजार में समाहित हो जायेंगे. यह काम बिना ताकत के कर सकने की स्थिति में अब चीन पहुंच गया है. ली की नजर में बिना बताये चीन की रणनीति का जोर इस पर है कि चीन कैसे अपना असर या प्रभुत्व अपनी अर्थव्यवस्था के बल बढ़ाये? फिलहाल वे अपनी विदेश नीति में डिप्लोमेसी का प्रयोग अधिक करना चाहते हैं.
ताकत का कम. ली कहते हैं कि 2030 तक 70-75 फीसदी चीनी शहरों में रहेंगे. छोटे शहरों में, बड़े महानगरों में और मेगा महानगरों में. उनका जीवन, मोबाइल फोन, इंटरनेट, सेटेलाइट टीवी से संचालित होगा. वे अत्यंत सूचना संपन्न होंगे. चीनियों को यह भी पता है कि तेज औद्योगिकीकरण से हर साल एक करोड़ से अधिक चीनी नये शहरों में बसेंगे, जिन्हें आज की तारीख में चीनी बना रहे हैं.
इस तरह चीन से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण सवालों और भविष्य पर ली ने अत्यंत गहराई और संपन्न दृष्टि से विचार किया है.
यह किताब पढ़ कर भारत के बारे में अनेक सवाल खड़े होते हैं. कहां खड़ा है, हमारा मुल्क? कहां है, हमारा नेतृत्व? कहां है, नेतृत्व की वह चमत्कारी क्षमता, जो पूरे देश को एक सपने से बांधे–जोड़े? कहां है, वह राष्ट्रीय ताकत का बोध? कहां है, अपने देश के लिए आत्मगौरव और फख्र? हमारी युवा पीढ़ी में चीनी युवा पीढ़ी की तरह देशभक्ति है? उग्र राष्ट्रीयता है? हमारी संस्थाएं किस हाल में हैं? महाशक्ति के रूप में चीन के उदय के सामने हम कहां खड़े हैं? ली से पूछा गया कि मौजूदा राष्ट्रपति सी जिनपिंग के बारे में आपके क्या विचार हैं? इस सवाल पर ली की टिप्पणी थी कि हू जिनताओ से अधिक कठिन जीवन जिनपिंग का रहा.
उनके पिता निलंबित थे और वह भी. पर जिनपिंग ने इसे चुनौती के रूप में लिया और खामोशी से चीन के दक्षिण प्रांतों में काम करते हुए, संघर्ष करते हुए, सामना करते हुए, फूजियान प्रांत के सचिव पद तक पहुंचे. फिर वे अपने बल शंघाई पहुंचे. फिर वहां से बीजिंग. यानी राजनीति में एक कार्यकत्र्ता से शिखर तक. उनकी जीवन यात्रा आसान नहीं है. जीवन के अनुभवों ने उन्हें कठोर और सहनशील बनाया होगा. वह संकोची हैं. कम बोलते हैं. ऐसा नहीं कि वे आपसे बोलेंगे नहीं, बल्कि वह अपनी पसंद और नापसंद जाहिर नहीं करेंगे. उनके चेहरे पर हमेशा एक प्रसन्नता भरी मुस्कुराहट होगी. चाहे आपने उन्हें खुश या नाखुश करनेवाली कोई भी बात कही हो. पर उनकी आत्मा फौलादी है. हू जिनताओ से अधिक.
क्योंकि हू, सी की तरह उतार–चढ़ावों का मुकाबला किये बगैर ऊपर तक पहुंचे थे. ली कहते हैं, मैं उन्हें नेल्सन मंडेला जैसे लोगों के समूह में रखना चाहूंगा. एक आदमी, जिसमें अद्भुत भावनात्मक स्थिरता है, जो अपने निजी दुर्भाग्य या दुखद घटनाओं से अपना निर्णय प्रभावित नहीं होने देना चाहता.
ली ने कहा कि दूसरे शब्दों में कहें, तो चीन के राष्ट्रपति सी जिनपिंग प्रभावी हैं. असरदार हैं. ली की बात पढ़ते हुए पग–पग पर भारत के नेता और भारत के मौजूदा स्थिति का स्मरण होता है. चीन के प्रति ली के संक्षिप्त विचार छापने का मकसद भी यही है कि हर भारतीय अपने देश के बारे में भी इस संदर्भ में सोचे कि यही चीन हमारा पड़ोसी है और हमारा मुकाबला भी इसी से है.
ली के आकलन में एक महत्वपूर्ण बात है कि चीन की युवा पीढ़ी में उग्र राष्ट्रवाद कूट–कूट कर भरा है. उनका एक ही सपना है, चीन को महान बनाना. आज भारत में, भारत कहां है? देश को शुक्रगुजार होना चाहिए, जम्मु कश्मीर उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मुजफ्फर हसन अतर का, जिन्होंने हाल में एक ऐतिहासिक फैसला दिया है. जिस पर पूरी भारतीय राजनीति खामोश है (देखें टाइम्स ऑफ इंडिया-12.10.2013).
न्यायमूर्ति मुजफ्फर साहब ने साफ कहा कि भारतीय संविधान में धर्मनिर्पेक्षता के उल्लेख ने भारतीयों को बांट दिया है. उनके अनुसार हमारे यानी भारतीय संवैधानिक दर्शन में सिर्फ एक वाद है, वह हैं भारतवाद. इसके अलावा जितने अन्य वाद है, वे भारतवाद के घोषित शत्रु हैं.
जम्मु–कश्मीर उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायधीश के अनुसार कोई भी व्यक्ति, जो हिंदू राष्ट्रवादी होने का दावा करता है, मुस्लिम राष्ट्रवादी होने का दावा करता है, सिक्ख राष्ट्रवादी होने का दावा करता है, बौद्ध राष्ट्रवादी होने की चर्चा करता है या क्रिश्चियन राष्ट्रवादी होने की बात करता है, वह सिर्फ भारतवाद के खिलाफ काम ही नहीं कर रहा, बल्कि भारत जो एक विचार है, उसके खिलाफ वह काम कर रहा है.
न्यायमूर्ति अतर ने आगे कहा कि भारतीय संविधान में, सबको हर तरह के अधिकार प्राप्त हैं. जिसके तहत हर आदमी को अपने धर्म और विश्वास के अनुसार आचरण–व्यवहार करने और जीने का अधिकार प्राप्त है. फिर इसके बाद संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिर्पेक्षता (सेक्यूलरिज्म) के उल्लेख की जरूरत नहीं थी.
इस उल्लेख से जनता के बड़े हिस्से में गहरी प्रतिक्रिया है और इसने भारत के लोगों को अलग–अलग कबूतरखाने में बांट दिया है. अलग–अलग वादों में भी. न्यायधीश महोदय के अनुसार एक अत्यंत गंभीर और खतरनाक संभावनाओं से अधिक डरावना प्रसंग है कि इससे भारत के विचार के मूल बुनियाद पर ही खतरा है.
इससे हाशिये पर बैठी ताकतें अलग–अलग वादों या खेमों में शरण लेती हैं, भारतवाद के तहत नहीं. विद्वान न्यायाधीश के शब्दों में भारत, हिंदू नहीं है, मुस्लिम नहीं है, सिक्ख नहीं है, बौद्ध या क्रिश्चिन भी नहीं है, भारत वह देश या मुल्क है, जिसके लिए लाखों लोगों ने अनवरत लड़ाई लड़ी, संघर्ष किया और कुरबानी दी है.
क्या हम भारतीय अपने–अपने धर्मों, जातियों और क्षेत्रों को अपने निजी जीवन की सीमा में बांध कर, कभी देश के लिए सोचेंगे? एक होंगे चीनियों की तरह. कम से कम आधुनिक चीन के उदय, ताकत, चमत्कार और प्रभाव देख कर.