।।एम जे वारसी।।
(वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में भाषा विज्ञान के प्रोफेसर)
ईद-उल-अजहा इसलाम धर्म में विश्वास करनेवाले लोगों का एक प्रमुख त्योहार है. पैगम्बर हजरत इब्राहीम के त्याग व बलिदान के प्रतीक ईद-उल-अजहा की तैयारियां पूरे विश्व में जोर-शोर होती हैं. यूं तो मजहब के एतवार से सभी त्योहारों का अपना-अपना महत्व है, पर ईद-उल-अजहा का धार्मिक दृष्टि से एक विशेष महत्व है. इसलाम धर्म माननेवालों के लिए पांच फर्ज हैं, हज उनमें से आखिरी फर्ज है. मुसलमानों के लिए जिंदगी में एक बार हज करना जरूरी है, अगर वह आर्थिक और शारीरिक दृष्टि से संपन्न है. हज पूरा होने की खुशी में ईद-उल-अजहा का त्योहार मनाया जाता है. यह बलिदान का त्योहार भी है. इसलाम में बलिदान का बहुत अधिक महत्व है. कहा गया है कि अपनी सबसे प्यारी चीज अल्लाह की राह में खर्च करो. अल्लाह की राह में खर्च करने का अर्थ नेकी और भलाई के कामों में खर्च करना है.
ईद-उल-अजहा का इतिहास हजरत इब्राहीम खलीलुल्लाह से जुड़ा है. यहूदी, ईसाई और इसलाम तीनों ही धर्म के पैगंबर हजरत इब्राहीम ने कुबार्नी का जो उदाहरण दुनिया के सामने रखा, उसे आज भी परंपरागत रूप से याद किया जाता है. इस त्योहार का महत्व इसलिए भी है कि जब मक्का में हज पूरा हो जाता है, तो अगले दिन ईद-उल-अजहा पड़ती है. इसके अलावा इसी दिन इसलाम के सबसे पवित्र ग्रंथ कुरान को पूरे रूप में घोषित किया गया था, यानी कुरान की आखिरी आयत भी तब तक आ चुकी थी. यह त्योहार हजरत इब्राहिम खलीलुल्लाह की घटना से आरंभ होता है. पैगंबर हजरत इब्राहीम को अल्लाह की जानिब से सपना आया कि ऐ इब्राहीम! अगर तुम मेरे सच्चे बन्दे हो तो अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी मेरी राह में करो. पैगंबर इब्राहीम ने अल्लाह से वादा किया कि वह जरूर अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी देंगे. हजरत इब्राहीम ने सपने के बारे में अपने बेटे को बताया. उनके बेटे ने खुद को खुशी-खुशी कुर्बानी के लिए पेश किया और कहा कि यह अल्लाह की मर्जी है, मैं हाजिर हूं. अल्लाह के हुक्म पर अमल करने इब्राहीम कुर्बानी देने के लिए अपने बेटे इस्माइल को एक पहाड़ी पर ले गये थे. पिता होने के नाते बेटे की कुर्बानी देने में विचलित न हों, इसके लिए उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी. जब वे अपने बेटे को जिबह करने आगे बढ़े, तो उनकी छुरी एक जानवर पर चली, बेटा कुर्बान न हुआ. उन्होंने समझा कि वे अपने बेटे को ही जिबह कर रहे हैं. जिबह करने के बाद जब उन्होंने पट्टी हटायी तो वहां का नजारा देख कर हैरान हो गये. दरअसल अल्लाह हजरत इब्राहीम के अपने प्रति प्रेम और त्याग के जज्बे को परखना चाहते थे. इसलिए उन्होंने इस्माइल की जगह एक भेड़ रख दिया. इससे इब्राहीम की त्याग भावना की परीक्षा भी हो गयी और इस्माइल की जान भी बच गयी. तभी से ईद-उल-अजहा का त्योहार मनाने की परंपरा शुरू हुई. इसलाम धर्म माननेवाले लोग इस त्योहार में जानवरों की कुर्बानी करते हैं. कुर्बानी इनसानी अज्म, हौसले और पक्के इरादे का इम्तिहान है.
ईद-उल-अजहा में कुर्बानी सिर्फ जानवरों की ही नहीं होती, कुर्बानी तो इच्छा, कपट और छलावे की होती है. लोग एक-दूसरे की गलतियों को भूल गले मिलते हैं, एक नयी शुरुआत करते हैं. मुसलिम धर्मावलंबी खुदा की राह में अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी देते हैं. त्योहार ईद के दूसरे व तीसरे दिन भी जारी रहता है. ईदगाहों व मसजिदों में विशेष नमाज पढ़ी जाती है. मुसलमान अपनी कौम और देश के लिए अल्लाह से दुआ करते हैं. ईद-उल-अजहा में गरीबों और मजलूमों का खास ख्याल रखा जाता है. इसी मकसद से ईद-उल-अजहा के सामान यानी कुर्बानी के सामान के तीन हिस्से किये जाते हैं. एक हिस्सा खुद के लिए रखा जाता है, दूसरा हिस्सा अपने रिश्तेदारों और दोस्तों में बांटा जाता है और तीसरा हिस्सा गरीबों एवं जरूरतमंद लोगों में बांट दिया जाता है, ताकि समाज का हर पर्ग इस पवित्र त्योहार को खुशी-खुशी मना सके.
इसलाम में साफ कहा गया है कि कोई व्यक्ति किसी भी धर्म, परिवार, समाज, शहर या मुल्क का रहनेवाला हो, उसका फर्ज है कि वह अपने धर्म, देश, समाज और परिवार की हिफाजत के लिए हर कुर्बानी देने को तैयार रहे. परंतु आज समाज में त्याग और बलिदान की जगह स्वार्थ की भावना व्याप्त हो गयी है. साथ ही दुनिया में इसलाम के खिलाफ फैलायी जा रही मिथ्या बातों से इसलाम के प्रति गलत धारणा पनप रही है. मौजूदा हालात में मुसलिम जगत एक इम्तिहान के दौर से गुजर रहा है. हमें इस परीक्षा की कसौटी पर खरा उतरना है. इसलिए मुसलमानों को ईद-उल-अजहा के मौके पर विश्व में यह संदेश पहुंचाने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि आतंकवाद का इसलाम से कोई रिश्ता नहीं है. आज के बदलते संदर्भ में ईद-उल-अजहा का पैगाम लोगों तक पहुंचाने की बहुत जरूरत है.