विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
सोशल मीडिया पर आजकल प्रधानमंत्री के नाम लिखा एक पत्र काफी चर्चित है. पत्र-लेखक ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखा है, ‘आप कृपया सारी योजनाएं बंद कर दीजिए, सिर्फ संसद भवन जैसी कैंटीन हर दस किमी पर खुलवा दीजिए और नाम रख दीजिए ‘मोदी ढाबा’. सारे लफड़े खत्म.
29 रुपये में भरपेट खाना मिलेगा. अस्सी प्रतिशत लोगों का घर चलाने का सरदर्द खत्म. ना सिलेंडर लाना, ना राशन की जरूरत. चारों तरफ खुशियां ही खुशियां रहेंगी. फिर हम कहेंगे सबका साथ, सबका विकास. सबसे बड़ा फायदा न एक रुपये किलो गेहूं देना पड़ेगा, न जेटलीजी को यह कहना पड़ेगा कि मिडिल क्लास लोग अपने हिसाब से घर चलायें..’
कुछ अरसा पहले संसद की इस कैंटीन को लेकर काफी चरचा हुई थी. मांग की गयी थी कि करोड़पति सांसदों को दी जानेवाली यह सब्सिडी समाप्त कर दी जाये. ऐसी बातें अकसर उठती रहती हैं, पर अकसर इन्हें चुपचाप दफना दिया जाता है. पर प्रधानमंत्री को लिखे इस पत्र के पीछे छिपे दर्द को न दफनाया जाना चाहिए, न भुलाया जाना चाहिए. सब्सिडी के संदर्भ में भारत सरकार द्वारा टीवी चैनलों पर दिखाया जानेवाला एक विज्ञापन याद आ रहा है.
इसमें स्वयं प्रधानमंत्री देश की जनता से यह अपील करते दिखाये गये हैं कि सुविधा-संपन्न लोग स्वेच्छा से सब्सिडी वाले सिलेंडर लौटा दें. इससे मैं देश के एक ऐसे घर में सुरक्षित आंच पहुंचाऊंगा, जहां लकड़ियों-गोबर की आग पर रोटी पकायी जाती है. इस भावुक अपील का असर हुआ है, लाखों लोग सब्सिडी वाले सिलेंडर लौटा रहे हैं. मुङो लगता है सोशल मीडिया वाले संसद की कैंटीन वाले संदेश को भी इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए. और देखना चाहिए की हमारे कितने सांसद यह घोषणा करते हैं कि वे संसद की सब्सिडी वाली कैंटीन का खाना नहीं खायेंगे, एक रुपये में चाय नहीं पियेंगे, डेढ़ रुपये में दाल नहीं खायेंगे, एक रुपये की चपाती नहीं लेंगे..
आजादी के बाद से लेकर आज तक गरीबी मिटाने के वादे और दावे सरकारें करती रही हैं. पर कुछ ठोस परिणाम सामने नहीं आ रहे. इस बीच गरीबी की कई परिभाषाएं दी गयीं; गरीबी रेखा को ऊपर-नीचे करके देश में गरीबों की संख्या घटायी-बढ़ायी जाती रही, पर न गरीबी घटी और न ही गरीब और अमीर के बीच की दूरी कम हुई. आंकड़े जरूर बदलते रहे, पर स्थितियां नहीं बदलीं. मुङो लगता है स्थितियां बदलने का एक मौका अब सरकार के पास है.
संसद जैसी कैंटीन देश भर में खुलवाने का प्रस्ताव भले ही अव्यावहारिक लगे, (यह प्रस्ताव नहीं, व्यंग्य है) पर हाल ही में सामने आये सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के नतीजे प्रधानमंत्री मोदी के लिए एक अवसर बन कर आये हैं. इन नतीजों को सरकार को गंभीरता से लेना चाहिए और इनके आधार पर अपनी आर्थिक नीतियों को एक नया आकार देना चाहिए.
सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के नतीजों से स्पष्ट है कि हमारी सारी आर्थिक नीतियां जिन आंकड़ों पर आधारित हैं, वे आंकड़े सही स्थिति नहीं बता रहे. सही स्थिति यह है कि अबतक की सारी गणनाओं में गरीबी की जो स्थिति बतायी जाती रही है, वह वास्तविकता से कहीं कम है.
यह अकारण नहीं है कि भूख और आवास से जुड़ी लोक-नुभावन योजनाएं मतदाताओं को आसानी से भरमाती रही हैं. इसीलिए सब्सिडी का मुद्दा हमारी राजनीति का महत्वपूर्ण अंश बना हुआ है. लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं है. भूखे को रोटी देना जरूरी है, पर इससे कहीं अधिक जरूरत इस बात की है कि भूखे को रोटी कमाने लायक बनाया जाये.
राजनीति में इन दिनों एक शब्द चल रहा है-एम्पॉवरमेंट. इसका अर्थ है सशक्त बनाना. दुर्भाग्य से, हमारी राजनीति के शब्दकोश में या तो यह शब्द कहीं खो गया है या फिर इसके अर्थ बदल गये हैं.
लोक-लुभावन वादों से सत्ता में आना और फिर दावों के सहारे उपलब्धियां गिना कर सत्ता-सुख भोगना ही जैसे हमारी राजनीति का अर्थ रह गया है.
अच्छे दिन के सपने दिखाकर नयी सरकार सत्ता में आयी है, पर पिछले एक साल से अधिक के अपने कार्यकाल में उसका ज्यादातर समय वर्तमान स्थितियों के लिए पिछली सरकारों को कोसने में ही बीता है.
जुमलों से चुनाव तो शायद जीते जा सकते हैं, पर उनके सहारे सुशासन नहीं दिया जा सकता. अब तक नयी सरकार मुख्यत: जुमले ही उछालती रही है. प्रधानमंत्रीजी हर दस किलोमीटर पर भले ही संसद जैसी कैंटीनें न खोलें, पर उन्हें, जल्दी ही, यह तो करके दिखाना ही होगा कि ग्रामीण भारत की दयनीय स्थिति को बदलने के लिए वे ईमानदारी से कुछ करना चाहते हैं.
नयी सरकार ने अब तक गरीबी के संदर्भ में जो किया है, वह भरोसा नहीं दिलाता. पच्चीस सालों में भारत का पुराना वैभव लौटे या न लौटे, अपने कार्यकाल के बाकी चार सालों में नयी सरकार को ग्रामीण भारत की बेहतरी का करिश्मा दिखाना ही होगा.