।।प्रभात कुमार रॉय।।
(राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद के पूर्व सदस्य)
विश्व के दो महाद्वीपों के दो शहरों में अलकायदा आतंकवादियों ने दो दहशतगर्द आक्रमणों को अंजाम दिया है. अफ्रीकी देश केन्या की राजधानी नैरोबी के एक शॉपिंग मॉल में अलकायदा आतंकवादियों ने हमला कर कई लोगों मार डाला. इस हमले ने मुंबई में 26/11 के भीषण आतंकवादी हमले की स्मृतियों के ताजा कर दिया. दूसरा हमला पाकिस्तान के पेशावर में एक चर्च में आत्मघाती आतंकवादियों ने अंजाम दिया. अपने चट्टानी लौह सीने पर हजारों दहशतगर्द जख्मों को बर्दाश्त कर चुके संपूर्ण भारत की हार्दिक संवेदना और गहन सहानुभूति केन्या और पाकिस्तान के उन तमाम गमजदा परिवारों के साथ है, जिन्होंने इन भीषण हमलों में अपनों को खो दिया है.
नैरोबी में आक्रमण को अंजाम देनेवाला गिरोह अल-शबाब वस्तुत: अलकायदा से प्रेरित सोमाली मुजाहिद गिरोह है. अल-शबाब विगत काफी वक्त से अलकायदा से जुड़ने अथवा न जुड़ने को लेकर अंदरूनी कशमकश का शिकार रहा. आखिरकार वह अलकायदा के नेटवर्क से जुड़ने में कामयाब हो गया. उसके बाद उसने पहली बड़ी दहशतगर्द वारदात को केन्या में अंजाम दिया. नैरोबी में शॉपिंग मॉल पर हमले का संदेह एक ब्रिटिश मूल की मुसलिम महिला पर जताया जा रहा है, जिसका नाम सामंथा बताया गया है. इसका पति जेरिमेन लिंडसे नामक आत्मघाती मुजाहिद दहशतगर्द था, जिसने लंदन में धमाके करके एक यात्री बस को एवं ट्यूबट्रेन के एक डिब्बे को उड़ा कर 52 नागरिकों को मार दिया था. ‘व्हाइट विडो’ नाम से कुख्यात सामंथा अल-शबाब की प्रवक्ता भी रही है. इस गिरोह को शिकवा-गिला रहा है कि केन्या की सेना उस संयुक्त अफ्रीकी सेना में क्योंकर शामिल हुई है, जो सोमालिया को कट्टरवादी मुसलिम तंजीम के कब्जे से बचाने की निरंतर जंगी कोशिशें अंजाम दे रही है. इन हमलों को अंजाम देकर अलकायदा ने पूरे विश्व, खासकर अमेरिका को अपनी ताकत का एहसास करा दिया है.
अमेरिकी हुकूमत की आत्मकेंद्रित विदेश नीति के कारण ही अलकायदा अस्तित्व में आया. तेल की पिपासा में अमेरिका ने इराक पर आक्रमण किया और दस वर्षो के गृहयुद्ध के पश्चात बरबाद इराक को अपने हाल पर छोड़ कर अमेरिका उसे अलविदा कह गया. इस गृहयुद्ध के दौरान ताकतवर बने अलकायदा लड़ाके रोजाना एक बड़ा बम धमाका करके सैकड़ों इराकी नागरिकों की जान ले रहे हैं. अमेरिका की साम्राज्यवादी लालच के कारण ही एशिया, अफ्रीका और अरब देशों में अलकायदा अपना ताकतवर नेटवर्क फैला चुका है.
अरब स्प्रिंग के दौर में उभरे मिस्र के ऐतिहासिक इंकलाब को अमेरिकी नीतियों ने अजब-गजब भटकाव में डाल दिया है. वहां की लोकतांत्रिक शक्तियों पर अमेरिका की मदद पर टिकी हुई मिस्र की फौज की कुदृष्टि पड़ चुकी है. गृहयुद्ध के कगार पर खड़े मिस्र में अमेरिकी कूटनीतिज्ञ मुसलिम ब्रदरहुड और फौज के मध्य कोई शांतिपूर्ण समाधान निकालने के लिए कतई उत्सुक नहीं प्रतीत हो रहे हैं. यदि संकटग्रस्त मिस्र में गृहयुद्ध होता है, तो वहां भी इराक की तरह अलकायदा को ताकतवर बनने से अमेरिका रोक नहीं सकेगा.
अमेरिका 2014 में तालिबान का खात्मा किये बिना अफगानिस्तान को अलविदा कह देने का मंसूबा बना रहा है. ऐसा हुआ, तो अफगानिस्तान पहले की तरह तालिबान के आधिपत्य में जा सकता है. तालिबान को पाक फौज की परोक्ष हिमायत हासिल रही है. तब क्या अफगान तालिबान के हाथों स्वयं अमेरिका सुरक्षित रह पायेगा, क्या अमेरिका अपने विध्वंस के लिए फिर से तैयार हो रहा है?
अमेरिका अपने तात्कालिक आर्थिक और सामरिक हितों की गिरफ्त में फंस कर प्राय: तानाशाह ताकतों की सक्रिय हिमायत करती रहा है. इनमें सऊदी अरब की शेख हुकूमतों से लेकर अनेक देशों की फौजी हुकूमतें शामिल रही हैं. पाकिस्तान की फौजी हुकूमतों का समर्थन और सहायता सदैव अमेरिका करता ही रहा है, इनमें जनरल अयूब खान, जनरल याहिया खान, जनरल जिआ-उल-हक, जनरल मुशर्फ की हुकूमतें बाकायदा शामिल रही हैं. लोकतांत्रिक भारत के स्थान पर पाकिस्तान को अमेरिकी कूटनीतिज्ञों ने कहीं अधिक अपना समझा और माना है. कश्मीर को हड़पने के तमाम मंसूबों को पाक हुकमरानों ने जेहादी आतंकवाद के बलबूते सदैव आगे बढ़ाया है. कश्मीर में विगत 25 वर्षो से जारी रहे जेहादी आतंकवाद की ओर से निरंतर आंखें मूंदे रखना और यहां सक्रिय जेहादियों को किसी किस्म की कार्रवाई से एकदम रखना आतंकवाद के प्रति अमेरिका की पाखंडपूर्ण दोहरी नीति का प्रबल परिचायक है.