।। पुष्परंजन।।
(नयी दिल्ली संपादक, इयू-एशिया न्यूज)
श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने ठीक ही किया कि तीन राज्य विधानसभा (प्रोविंसियल कौंसिल) चुनावों के मतदान समाप्त होते ही शनिवार रात न्यूयार्क प्रस्थान कर गये. न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक में उन्हें हिस्सा लेना था. कोलंबो में रविवार को राष्ट्रपति राजपक्षे होते तो उन्हें फालतू में ‘फटा पोस्टर, निकले तमिल नेता’ जैसी ‘चुनावी फिल्म’ सुबह-सुबह देखनी पड़ती. उत्तरी प्रांत की 38 सदस्यीय ‘प्रोविंसियल कौंसिल’ में तमिलों के 30 नेता जीत कर आ जाएं, इस सीन को देखने से अच्छा था कि राष्ट्रपति राजपक्षे देश से बाहर रहें. राजपक्षे से बेहतर कौन जान सकता है कि 38 में 30 सीटों पर ‘इलंगाई तमिल अरासू कटची’ (अंगरेजी नाम- तमिल नेशनल अलायंस यानी टीएनए) का कब्जा हो जाने के क्या दूरगामी परिणाम निकलने हैं. तमिलों के गढ़ ‘नॉर्दर्न प्रोविंस’ में राष्ट्रपति राजपक्षे की पार्टी ‘यूनाइटेड पीपुल्स फ्रीडम अलायंस’ को मात्र सात सीटें हासिल हुई हैं और श्रीलंका मुसलिम कांग्रेस को मात्र एक सीट.
1978 में 13वें संविधान संशोधन के बाद श्रीलंका में प्रांतीय सरकारों का गठन किया गया. इस समय श्रीलंका में नौ प्रांत हैं, जिनमें से तीन प्रांतों सेंट्रल, नार्थ-वेस्टर्न और नॉर्दर्न प्रोविंस में शनिवार को मतदान हुआ था. बाकी के छह प्रांतों के चुनाव 2009 से 2012 के बीच हो चुके हैं. ताजा मतदान में तीन में से दो प्रांतों सेंट्रल और नार्थ वेस्टर्न में राजपक्षे की पार्टी यूनाइटेड पीपुल्स फ्रीडम अलायंस को जीत हासिल हुई है, पर राजपक्षे तीन में से दो प्रांतों में जीत कर भी हारे हुए लगते हैं. तमिल बहुल नॉर्दर्न प्रोविंस में राजपक्षे की पार्टी जीतती, तो पूरी दुनिया के समक्ष यह साबित करना आसान होता कि तमिल नेताओं का कोई जनाधार नहीं है और अलगाववादियों का संहार करके राजपक्षे सरकार ने मानवाधिकार हनन नहीं किया है. राजपक्षे और उनके लोगों ने श्रीलंकाई तमिलों को हराने के लिए घोड़े खोल लिये थे. नकली नोट की तरह, विश्वसनीय अखबार ‘उथायन’ का जाली संस्करण छापा गया, ताकि मतदान से पहले वोटरों को बरगलाया जा सके. बीस रुपये के ‘उथायन’ का फर्जी संस्करण सेना के लोग फ्री में बांटते फिर रहे थे. भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालास्वामी ने कोलंबो में सही कहा कि श्रीलंका के चुनाव आयोग को और ‘मजबूत दांत’ प्रदान करने होंगे. गोपालास्वामी चुनाव पर नजर रखने के लिए अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों के समूह का नेतृत्व कर रहे थे.
उत्तरी प्रांत की राजधानी जाफना में तमिलों का एक चुना हुआ मुख्यमंत्री हो, इसका सपना कई दशकों से वे लोग भी देख रहे थे, जिनका लिट्टे की लड़ाई से लेना-देना नहीं था. 29 जुलाई, 1987 को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और श्रीलंका के राष्ट्रपति जेआर जयवर्धने ने भारत-श्रीलंका समझौता किया था, जिसमें उत्तरी और पूर्वी प्रांतों का विलय कर नार्थ-इस्टर्न प्रोविंसियल कौंसिल बनाने की बात कही गयी थी. यहां प्रांतीय चुनाव के बाद 10 दिसंबर, 1988 को अन्नामलाई वरदाराजा पेरूमल नार्थ-इस्टर्न प्रोविंसियल कौंसिल के पहले मुख्यमंत्री बनाये गये. सवा साल बाद एक मार्च, 1990 को आइपीकेएफ के शांति सैनिक भारत वापसी की तैयारी में थे, तभी पेरूमल ने विधानसभा में एक प्रस्ताव पास करा कर ‘स्वतंत्र इलम’ की घोषणा कर दी. इसके बाद श्रीलंका के तत्कालीन राष्ट्रपति प्रेमदास ने पेरूमल को मुख्यमंत्री पद से बर्खास्त कर नार्थ-इस्टर्न प्रोविंसियल कौंसिल को भंग करने की घोषणा कर दी. तब से तमिल बहुल श्रीलंका का उत्तरी और पूर्वी इलाका राष्ट्रपति के सीधे नियंत्रण में रहा है. सेना के अवकाशप्राप्त अधिकारी नार्थ-इस्टर्न प्रोविंसियल कौंसिल के गवर्नर बनते रहे, जो सीधा राष्ट्रपति को रिपोर्ट करते थे. 31 दिसंबर, 2006 को श्रीलंका की सर्वोच्च अदालत ने पूर्वी और उत्तरी हिस्से के विलय को अवैध करार दिया था. उस समय तक नार्थ-इस्टर्न प्रोविंसियल कौंसिल की राजधानी त्रिंकोमाली थी. 31 दिसंबर, 2006 के बाद उत्तरी प्रांत (नॉर्दर्न प्रोविंस) और जाफना को उसकी राजधानी बनाने की घोषणा कर दी गयी, लेकिन सेना की निगरानी बनी रही.
25 साल बाद श्रीलंका के इस तमिल लैंड में दूसरी बार चुनाव हुआ है. संभव है कि उत्तरी प्रांत का पहला निर्वाचित मुख्यमंत्री सुप्रीम कोर्ट के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश के विघ्नेश्वरन को बनाया जाये. कनगा सभापति विघ्नेश्वरन श्रीलंकाई तमिलों के उन प्रमुख नेताओं में से हैं, जो बंदूक के बगैर अपना राजनीतिक लक्ष्य पूरा करना चाहते हैं. विघ्नेश्वरन ने संकल्प किया है कि वे नार्दर्न प्रोविंस को अधिक स्वायत्तता दिलाने के वास्ते केंद्र से लड़ेंगे. सबसे बड़ी दिक्कत तमिल इलाकों में श्रीलंकाई सेना की जबरदस्ती को लेकर है. श्रीलंका से आतंकवाद को समाप्त हुए चार साल हो गये हैं, लेकिन अब भी पूर्वी और उत्तरी हिस्से में सेना की जबरदस्त मौजूदगी है. अपनी जमीन व व्यवसाय से बेदखल तमिलवंशी शरणार्थी कैंपों में टिके हैं, दूसरी ओर इनकी हजारों एकड़ जमीनों पर फार्म हाउस, फैक्ट्रियां, बाजार बना कर सेना और सरकार के लोग चांदी काट रहे हैं. तमिलों की जमीन-जायदाद की वापसी और उन्हें वहां फिर से बसाना टीएनए के ‘मैनीफेस्टो’ का मुख्य एजेंडा रहा है.
आगामी 15 से 17 नवंबर तक श्रीलंका में कॉमनवेल्थ शिखर सम्मेलन होना है. इस सम्मेलन के जरिये दो साल तक कॉमनवेल्थ की अध्यक्षता की जिम्मेवारी श्रीलंका को दी जायेगी. कॉमनवेल्थ सदस्य देश दुविधा में है कि मानवाधिकार हनन की कालिख से पुते श्रीलंका को क्यों अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए. जुलाई, 2012 में श्रीलंका ने ‘सबक लेने और सामंजस्य स्थापना आयोग’ (एलएलआरसी) की रिपोर्टो के आधार पर जो राष्ट्रीय कार्ययोजना देश के समक्ष रखी थी, उसे भी पूरी तरह लागू नहीं किया है. श्रीलंका मानवाधिकार हनन और लिट्टे से युद्ध के दौरान लाखों तमिलों की हत्या की जिम्मेवारी से मुक्त नहीं हुआ है.
22 मार्च, 2012 को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार संगठन में श्रीलंका के विरुद्ध अमेरिका की पहल पर प्रस्ताव रखा गया था. राजपक्षे खुंदक में हैं कि प्रस्ताव के समर्थन में 24 देशों के साथ भारत ने क्यों वोट किया था. चीन, रूस समेत 15 देश यह मानने को तैयार नहीं हैं कि वहां लाखों जानें गयी हैं, पर चुनाव परिणाम दुनिया को फिर से सोचने पर विवश करेगा कि यहां तमिलों के साथ अन्याय हुआ है. श्रीलंका के प्रांतीय चुनाव की प्रतिध्वनि तमिलनाडु में भी सुनाई दे रही है. द्रमुक नेता एम करुणानिधि ने ‘टीएनए’ को जीत पर बधाई दी है. तय मानिये कि ‘नॉर्दर्न प्रोविंस’ के जनादेश से तमिलनाडु का चुनावी समीकरण भी बदलेगा!