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सरकार के हास्यास्पद तर्क
प्रधानमंत्री जी, आप कह रहे हैं कि भूमि अधिग्रहण विधेयक में सरकारी परियोजनाओं के लिए ही जमीन ली जायेगी और औद्योगिक गलियारों पर सरकार का स्वामित्व होगा. लेकिन, झारखंड आकर जरा आदिवासियों की स्थिति देख लें. स्वर्णरेखा बहुद्देशीय परियोजना सरकार की है. उसके विस्थापित आज तक मुआवजे और नौकरी के लिए ठोकरें खा रहे हैं. […]
प्रधानमंत्री जी, आप कह रहे हैं कि भूमि अधिग्रहण विधेयक में सरकारी परियोजनाओं के लिए ही जमीन ली जायेगी और औद्योगिक गलियारों पर सरकार का स्वामित्व होगा. लेकिन, झारखंड आकर जरा आदिवासियों की स्थिति देख लें. स्वर्णरेखा बहुद्देशीय परियोजना सरकार की है.
उसके विस्थापित आज तक मुआवजे और नौकरी के लिए ठोकरें खा रहे हैं. कोयला खदानों के विस्थापित लोग आज बदहाल हैं. नौकरी के नाम पर कंपनियों में आदिवासी ठेका मजदूरी तक सीमित हैं. उनकी ज़मीन भी गयी और आत्मनिर्भरता भी. उनकी समृद्ध परंपरा और संस्कृति खत्म होती जा रही है.
आप कह रहे हैं कि सिर्फ आधारभूत संरचनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण होगा. यानी कि अभी जो सरकारी जमीनें हैं, उनमे कहीं इन सबके लिए जगह नहीं है. जो बंजर जमीन पड़ी है उनका क्या उपयोग हो रहा है? कितने कोल्ड स्टोरेज बनाये जा रहे हैं?
जिन किसानों के पास सिंचाई की व्यवस्था है और जिनके गांव सड़क से जुड़े हैं क्या उनकी स्थिति अच्छी है? अगर ऐसा होता तो भरपूर पैदावार और बिक्र के बाद भी बंगाल के आलू किसान आत्महत्या नहीं करते. समर्थन मूल्य बढ़ाने का आपका वादा क्या हुआ?
कहा जा रहा है कि नया कानून कोर्ट मे जाने का हक नहीं छीन रहा. किसान अपने हक के लिए कोर्ट जा सकता है. इससे ज्यादा हास्यास्पद बात क्या होगी. अदालतों में जाकर जमीन के मुकदमे देखिए.
अगर एक मजबूत व्यक्ति किसी कमजोर की जमीन पर दावा कर दे और कमजोर व्यक्ति कोर्ट के द्वारा जमीन वापस पाने की कोशिश करे तो पीढ़ियां गुजर जाती हैं और मुकदमे चलते रहते हैं. अब सोचिए की अगर सरकार कानून के दम पर किसान की जमीन ले लेगी और किसान कोर्ट जायेगा तो क्या होगा आप समझ सकते हैं.
राजन सिंह, ई-मेल से
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