आज सरकारी दफ्तरों, स्कूलों, अस्पतालों व अन्य सरकारी संस्थानों की दुर्दशा पर लोग अमूमन फब्तियां कसते हैं और संस्थानों पर अपने तरीके से गुस्से का इजहार करते हैं. ऐसा करनेवालों में आज के सजग युवाओं से लेकर तकरीबन हर आयुवर्ग के लोग शामिल हैं, चाहे वे व्यवसायी, ठेकेदार, निजी पेशेवर हों या फिर आम लोग.
हैरानी की बात यह है कि आज जो लोग इस व्यवस्था को कोस रहे हैं, उनमें से अधिकांश कल तक इसी व्यवस्था के अंग थे या अंग बनने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे थे. आज भी बेरोजगारों की बड़ी तादाद इसी व्यवस्था में प्रवेश पाने की जद्दोजहद में है. यही नहीं, प्रतिष्ठित लोक सेवाओं के माध्यम से बीते वर्षो में अधिकारी, कर्मचारी के रूप में नियुक्त होनेवाले तथा व्यवस्था परिवर्तन एवं ईमानदारी के संकल्प के साथ पत्र-पत्रिकाओं मे लंबे-चौड़े साक्षात्कार देनेवाले भी आज इसी बदहाल व्यवस्था के कर्ता-धर्ता हैं. प्रश्न है- व्यवस्था दोषी है या इसे बनानेवाले हम और हमारी सरकार? आखिर इसका असली नियंता है कौन?
यह गहन विमर्श का विषय है. लेकिन यहां कहना होगा कि आजादी के इतने वर्षो बाद भी हम ‘अंडर द टेबल’ वाली संस्कृति से उबर नहीं पाये हैं. चढ़ावे से काम कराने की हमारी मूल प्रवृत्ति नहीं बदली है. नतीजा सूचनाधिकार, राइट टू सर्विस जैसे तमाम कानूनों के अस्तित्व में होने के बावजूद आज सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार का ग्राफ तेजी से बढ़ा है. पैसे देकर किसी भी काम को करा लेने की कुधारणाओं ने आज हमारे आत्मसंयम व व्यवस्था के खिलाफ लड़ने की पूरी परिभाषा बदल दी है. विडंबना है कि न तो हमें सरकारी स्कूल भाता है, न ही अस्पताल और न कोई सरकारी संस्थान, फिर भी इन्हीं संस्थानों में हम अपना भविष्य तलाशते हैं.
रवींद्र पाठक, जमशेदपुर