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जुर्म और इंसाफ का कैसा गणतंत्र!

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार रसूखों की दुनिया का बड़ा हिस्सा अपनी रंगीनियों में डूबे रहना चाहता है, वह दुखी और बेहालों को न देखना चाहता है, न सोचना चाहता है. क्या जबरन सताये और फंसाये जा रहे असंख्य लोगों से भरी हमारी समाज-व्यवस्था सिर्फ मुट्ठी भर खुशहालों के बल पर फल-फूल सकती है? सलमान खान की […]

उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
रसूखों की दुनिया का बड़ा हिस्सा अपनी रंगीनियों में डूबे रहना चाहता है, वह दुखी और बेहालों को न देखना चाहता है, न सोचना चाहता है. क्या जबरन सताये और फंसाये जा रहे असंख्य लोगों से भरी हमारी समाज-व्यवस्था सिर्फ मुट्ठी भर खुशहालों के बल पर फल-फूल सकती है?
सलमान खान की सजा और जमानत की खबर से कुछ समय पहले देश के तमाम टीवी चैनल और अखबार भरे हुए थे. उस वक्त मुङो बार-बार पुरानी दिल्ली के मोहम्मद आमिर, केरल के यहया काम्मुकुट्टी और गुजरात के मुफ्ती अब्दुल कय्यूम मंसूरी जैसे लोगों की याद आ रही थी. आमिर से मेरी मुलाकात उनकी रिहाई के कुछ महीने बाद हुई. इधर भी बातचीत और मुलाकात होती रही है.
जनवरी-फरवरी, 2012 में उनकी कहानी कुछेक अखबारों और चैनलों के जरिये सामने आयी. लेकिन खबरिया चैनलों ने उन पर कोई ‘महाबहस’ कराने से परहेज किया. एक विचाराधीन कैदी के रूप में आमिर पूरे 14 साल दिल्ली के तिहाड़ जेल में रहे. उनके आतंकवादी होने के लिए दिल्ली पुलिस पूरे 14 साल सबूत इकट्ठा करती रही, पर अदालत में कुछ भी पेश नहीं कर सकी. तब जाकर उन्हें रिहा किया गया.
पूरी तरह निदरेष होने के बावजूद उनकी रिहाई शायद 14 साल बाद भी नहीं हो पाती, अगर दिल्ली में सक्रिय कुछ मानवाधिकार संगठनों-स्वयंसेवी संस्थाओं और मानववादी वकीलों ने उनके मामले में सक्रिय भूमिका न निभायी होती. इस बीच उनके पिता की मौत हो गयी. मां को लकवा मार गया.
कर्नाटक में विप्रो के युवा इंजीनियर और केरल निवासी यहया काम्मुकुट्टी को पूरे 7 साल जेल में रखने के बाद हमारी व्यवस्था ने पाया कि वे निदरेष हैं और बीते 30 अप्रैल को बाइज्जत रिहा हुए.
गुजरात के मुफ्ती मंसूरी भी पूरे 11 साल जेल में रहने के बाद पिछले वर्ष 16 मई को रिहा हुए. सिर्फ मुसलिम ही नहीं, हिंदू, सिख, और ईसाई सहित विभिन्न समुदाय के दर्जनों बदनसीब हैं, जो कई-कई बरस जेल में रहे और अंतत: बेगुनाह साबित हुए. ऐसे लोगों की संख्या लाखों में है, जो आज भी विचाराधीन कैदी के रूप में जेलों में बंद हैं. इनमें विभिन्न धार्मिक-जातीय समूहों के गरीब हैं, दलित-आदिवासी हैं या अल्पसंख्यक हैं.
आमिर या यहया की कहानी मैंने बेवजह नहीं सुनायी. एक तरफ अरबपति फिल्म स्टार सलमान खान की कहानी है, जिन्हें एक व्यक्ति की जान लेने जैसे बड़े गुनाह (गैर-इरादतन) की सजा सुनाये जाने के बावजूद एक मिनट भी जेल में नहीं रहना पड़ा, दूसरी तरफ आमिर है, जिन्हें किसी जुर्म के बगैर 14 साल जेल में रखा गया.
सलमान के हिट एंड रन से एक की मौत हो गयी थी और कई अन्य जीवन भर के लिए अपंग हो गये. सलमान खान को निचली अदालत ने दोषी माना, सजा भी दी. लेकिन प्रभावशाली और प्रतिभाशाली वकीलों की लंबी-चौड़ी टीम से लैस सलमान को निचली अदालत के फैसले के साथ ही माननीय उच्च न्यायालय से उसी दिन अंतरिम जमानत मिल गयी. बाद में पूरी जमानत के साथ उनकी सजा भी फिलहाल निलंबित हो गयी.
दिल्ली के कुख्यात बीएमडब्ल्यू केस में तीन पुलिस सिपाहियों सहित कुल छह गरीबों को कुचल कर मौत के हवाले करनेवाले अमीरजादे संजीव नंदा को अंतत: राहत मिल गयी. देश के एक बड़े अखबारी समूह ने ‘नो वन किल्ड जेसिका’ जैसा सफल खबरिया-अभियान न चलाया होता, तो जेसिका लाल के हत्यारे मनु शर्मा को भी शुरू के दौर में अदालत से राहत मिल ही गयी थी. मीडिया की उस सक्रियता से कुपित शर्मा परिवार ने बाद में मीडिया क्षेत्र में भारी निवेश किया और अब वह एक अखबारी समूह और कई चैनलों का मालिक है.
हमारे लोकतंत्र में नंदा, सलमान या शर्मा और आमिर, यहया या सोनी सोरी के बीच का फर्क सिर्फ इस एक या दो मामले तक सीमित नहीं है. यह हमारी ‘लोकतांत्रिक दिनचर्या’ का हिस्सा है, हमारे विशाल गणतंत्र का जाना-पहचाना सच! बीते सात-आठ दिनों में दो और बहुचर्चित फैसले आये. हैदराबाद की मशहूर कंपनी सत्यम के कुख्यात घोटालेबाज उद्योगपति रामलिंगा राजू को, तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जे जयललिता को न्यायालय ने निदरेष घोषित किया.
सलमान सहित इन तीनों महानुभावों को न्यायालय से मिली मुंहमांगी राहत पर हम कोई सवाल नहीं उठा रहे हैं. हम तो सिर्फ तुलना करना चाहते हैं, देश की अदालतों में होनेवाले हजारों आम फैसलों का इन खास फैसलों के साथ! तिहाड़ जेल में दर्जनों ऐसी विचाराधीन कैदी हैं, जो ऑफिसियल सीक्रेट एक्ट (ओएसए) के उल्लंघन के नाम पर गिरफ्तार किये गये थे.
इनमें ज्यादा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गरीब मुसलमान हैं, जिन्हें पता तक नहीं कि ‘ओएसए’ क्या होता है और उनका गुनाह क्या है! पुलिस वालों ने अपनी डायरी में आतंकी या खुराफाती की गिरफ्तारी की इंट्री दिखाने के मोह में आमिर की तरह इनमें कइयों को सड़क चलते यूं ही गिरफ्तार किया. बाद में इन्हें आतंकी या उग्रवादी साबित करने की विफल कोशिश होती रही. लेकिन आमिर की तरह इनमें ज्यादातर लोग भाग्यशाली नहीं थे.
उन्हें न तो अच्छे वकील मिले और न उनके मामले मानवाधिकार संगठनों के सामने आ सके. वैसे भी इन दिनों मानवाधिकार की बात करनेवालों को हमारी सत्ता-व्यवस्था की तरफ से फौरन उग्रवादियों-आतंकियों का मददगार कह दिया जा रहा है! ऐसे में हजारों निदरेष आमिर या आनंद या रामाशीष आज भी देश की जेलों में बंद हैं.
छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, कश्मीर की जेलें ऐसे कैदियों से भरी पड़ी हैं. एक आंकड़े में देश की जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों की संख्या करीब तीन लाख बतायी गयी है. कई बड़ी जेलों में बंद सभी श्रेणी के कैदियों में विचाराधीन कैदियों की संख्या तकरीबन 65 फीसदी तक है.
कुछ साल पहले राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने देश की कुछ प्रमुख जेलों में विचाराधीन कैदियों के बारे में सर्वेक्षण किया था. उसके नतीजे स्तब्ध करनेवाले हैं. दिल्ली की तिहाड़ जेल के मुलाहिजा वार्डो में 97.3 फीसदी कैदी विचाराधीन श्रेणी के पाये गये. दादरा-नागर और हवेली में यह आंकड़ा 94.83 फीसद था.
मणिपुर में 93.99 फीसदी, जम्मू कश्मीर में 89.9 फीसदी, नागालैंड में 82.08 फीसदी, कर्नाटक में 79.53 फीसदी कैदी विचाराधीन थे. सबसे कम विचाराधीन कैदी जिस राज्य की जेलों में पाये गये, वह था तमिलनाडु, जहां मात्र 32.78 फीसदी कैदी विचाराधीन थे.
इन आंकड़ों में हमारे लोकतंत्र, खासतौर पर हमारी अपराध-न्याय-व्यवस्था की एक खौफनाक तसवीर उभरती है. इस तसवीर के समानांतर दूसरी तसवीर भी है-तेजी से बढ़ते खरबपतियों-अरबपतियों और करोड़पतियों की. अपेक्षाकृत समृद्ध और सुखी लोगों की दुनिया.
इस दुनिया का बड़ा हिस्सा अपनी रंगीनियों में डूबे रहना चाहता है, वह दुखी और बेहालों को न देखना चाहता है, न सोचना चाहता है. क्या जबरन सताये और फंसाये जा रहे असंख्य लोगों से भरी हमारी समाज-व्यवस्था सिर्फ मुट्ठी भर खुशहालों के बल पर फल-फूल सकती है?

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