प्रकृति ने झारखंड को सब कुछ दिया है, लेकिन इसका सदुपयोग यहां की सरकार नहीं कर पा रही. पलामू टाइगर रिजर्व आज आर्थिक संकट झेल रहा है. कभी यहां के आसपास के 200 गांव इसी पर आश्रित थे, लेकिन आज स्थिति उलट है. विभागीय आवंटन बंद है.
विभाग वन विकास निगम से कर्ज लेने की सोच रहा है. इस स्थिति के लिए दोषी कौन है? पलामू टाइगर रिजर्व को यहां की सरकार पर्यटन की दृष्टि से लाभकारी बना सकती थी, लेकिन झारखंड गठन के बाद किसी भी सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया. यहां तक की विभाग का स्थायीकरण तक नहीं हुआ है.
इसके 250 से अधिक कर्मी हैं. 39 वर्षो से पलामू टाइगर रिजर्व परियोजना एक–एक साल की अवधि विस्तार पर चल रही है. ऐसे में जाहिर है कि कर्मियों में असंतोष की भावना जागेगी. इस अभयारण्य की इस स्थिति के लिए विभाग व सरकार दोनों परोक्ष रूप से दोषी हैं. वैश्विक जैविक संतुलन के लिए हर जीव–जन्तु का होना जरूरी है. ऐसे में देश–विदेश में कई अभयारण्य व आरक्षित वन बनाये गये.
पलामू टाइगर रिजर्व 1974 में बाघ परियोजना के अंतर्गत गठित प्रथम नौ टाइगर रिजर्व में से एक है. 1026 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला यह अभयारण्य खूबसूरत घाटियों व पहाड़ियों के लिए भी मशहूर है. यहां बाघ, हाथी, तेंदुआ, गौर, सांभल व चीतल को संरक्षित किया जाता है.
बावजूद इसके विस्तार पर ध्यान नहीं दिया गया. ऐसे में जबकि भारत के कई अन्य अभयारण्य को विश्व धरोहर में शामिल कर लिया गया है. पलामू टाइगर रिजर्व आज अपनी बदहाली को देख रहा है. ऐसे मुद्दों पर राजनीति से इतर सभी दलों को एकजुट होकर सोचना चाहिए.
झारखंड अलग होने के बाद लगा कि शायद अब पलामू टाइगर रिजर्व के दिन फिरेंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. झारखंड की पहचान आज देश में भ्रष्टाचार और बार–बार सरकार बनने व गिरने के लिए होती है.
इस पहचान को हमें बदलना होगा. यहां की सरकार को केंद्रीय मदद के साथ पलामू टाइगर रिजर्व को दुरुस्त करने पर जी–जान से लगना होगा. अब भी वक्त है जीव–जंतुओं को संरक्षित करनेवाले इस अभयारण्य को सरकार संरक्षण दे, तभी इसका विकास होगा.