।। अरविंद मोहन ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
– कांग्रेस कर्नाटक में सत्ता पाने के साथ कुछ सीख भी लेना चाहती है, तो यही सीख सबसे महत्वपूर्ण है कि लोग भ्रष्टाचार से ऊब गये हैं. वे उसके भ्रष्टाचार को भी बरदाश्त नहीं करेंगे.
इस पर हैरान होने की जरूरत नहीं है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद इसे कांग्रेस की जीत से ज्यादा भाजपा और नरेंद्र मोदी की पराजय के रूप में देखा जा रहा है. इस बात में संदेह नहीं कि भाजपा को हार का खतरा था. पांच साल में उसने जैसा शासन चलाया, उसमें पार्टी और सरकार की ही नहीं, राज्य के प्रांतिक संसाधनों की भी जो दुर्गति हुई थी, उसमें पार्टी जीत जाती या जैसे-तैसे सत्ता के खेल में बनी रह जाती तभी हैरानी होती.
साफ है कि लोगों ने दिल्ली के भ्रष्टाचार को दूर का मान कर पहले घर के कचरे को दूर करना चाहा है. पर हवा देख कर भी भाजपा का यह प्रचार जारी रहा कि राज्य में जेडीएस के साथ मिल कर सरकार बन सकती है या भाजपा कुमारस्वामी की सरकार बनवा कर कांग्रेस को सत्ता में आने से रोकेगी. अंत-अंत में आकर उमा भारती ने येदियुरप्पा का गुणगान भी कर ही दिया.
अपनी एकमात्र सभा में भीड़ देख कर नरेंद्र मोदी ने दो और सभाएं करने की ‘दया’ कर दी थी, पर चुनावी नतीजे देखने के बाद वे पार्टी की राष्ट्रीय परिषद में दांत दर्द के नाम पर नहीं आये. भाजपा की उससे भी बड़ी परेशानी जेडीएस से होड़ में आना है और इस दुर्गति के बाद संभव है कि भाजपा के काफी लोग उस येदियुरप्पा के पास जाएं, जिन्होंने राज्य में पार्टी को खड़ा करने और मटियामेट करने में सबसे बड़ी भूमिका निभायी.
पर सबसे पहले तो कर्नाटक के लोगों को धन्यवाद देना चाहिए कि उन्होने न सिर्फ बढ़-चढ़ कर चुनाव में हिस्सा लिया, बल्कि बहुत साफ जनादेश देकर आगे की राजनीति में घालमेल की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी. कांग्रेस को और उसके स्थानीय नेताओं को जीत का श्रेय देने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए. और भले ही राहुल गांधी की सभाओं वाले 59 सीटों पर कांग्रेस का रिकार्ड उतना शानदार नहीं रहा, पर उन्होंने न सिर्फ मोदी से तीन गुना सभाएं कीं, बल्कि मोदी बनाम राहुल के पहले सार्वजनिक टकराव में बढ़त भी ले ली है. इन दोनों का कर्नाटक से इतना ही नाता था. लेकिन इस चुनाव का जैसा राष्ट्रीय महत्व है, उसमें यह बढ़त भी काफी महत्वपूर्ण है. इस हिसाब से राहुल को भी बधाई दी जानी चाहिए.
इस चुनाव के दौरान मतदान की प्रवृत्ति और नतीजों से यह अनुमान लगाने में मुश्किल नहीं है कि इस बार पिछड़ों और दलितों ने चुनाव में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और एक तरह से लिंगायत और वोक्कलिगा प्रभुत्व का दौर ढलान पर है. इसके पीछे सिद्घरमैय्या, वीरप्पा मोइली, मुनियप्पा, मल्लिकार्जुन खडगे और परमेश्वर जैसे पिछड़े और दलित नेताओं का हाथ है. उनके मजबूत होने और उभरने से उनके सामाजिक आधारवाले मतदाताओं में भी उत्साह जागा है. बहुत संभव है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी इस बार कोई पिछड़ा या दलित बैठे. इस हिसाब से सिद्घरमैय्या और खडगे का नाम सबसे आगे है.
भाजपा जिस तरह से अपने मध्य कर्नाटक और मुंबई कर्नाटक वाले गढ़ में पिटी है, उससे साफ है कि येदियुरप्पा ने भारी नुकसान पहुंचाया है. उनके अलग होने से लिंगायत वोट बिखरा है, जो पिछले कई चुनावों से भाजपा का मुख्य आधार बना हुआ था. सीएसडीएस के चुनाव बाद के सर्वेक्षणों के अनुसार पिछले चुनावों में 75 से 77 फीसदी तक लिंगायत वोट भाजपा के पाले में जाता था.
इस बार येदियुरपा भले इसे पूरी तरह अपने साथ लाने में कामयाब न हो पाये हों, लेकिन उन्होंने भाजपा का तो बेड़ा ही गर्क कर दिया है. पिछली बार कुमारस्वामी ने वायदे के अनुसार भाजपा को शासन का अवसर नहीं दिया था. फिर कांग्रेस से मुख्यमंत्री पद की दौर में एसएम कृष्णा भी थे.
इसी के चलते वोक्कलिगा वोट तीन हिस्सों में बंट गया था. इस बार लगता है कि यह काफी हद तक देवगौड़ा और कुमारस्वामी के पक्ष में गया है. तभी दक्षिण कर्नाटक और बेंगलुरु वाले इलाके में उसका प्रदर्शन बेहतर हुआ है. जहां तक 12 फीसदी अल्पसंखकों की बात है, तो लगता नहीं है कि उनके वोट में जेडीएस ने बहुत हिस्सेदारी की होगी. पिछली बार ओबीसी वोट भी बंटा था, पर इस बार उसका बहुमत कांग्रेस के पक्ष में गया लगता है.
यह सही है कि हम और आप इस चुनाव को मोदी और राहुल के संदर्भ से देखने-समझने की कोशिश कर रहे हैं, पर असल में ये चीजें मतदाताओं के मन को प्रभावित नहीं कर रही थीं. उनके लिए तो स्थानीय मुद्दे ही कारगर थे, जो भ्रष्टाचार, प्राकृतिक संसाधनों की लूट, शासन में बदलाव (सामाजिक समीकरणों में भी बदलाव) और अपने विधायकों-मंत्रियों के प्रदर्शन ही मुद्दे थे. उनके लिए भले राष्ट्रीय मुद्दे और नेता गायब रहे, पर इससे चुनाव का राष्ट्रीय महत्व भी कम हो गया, यह कहना बहुत बड़ी गलती होगी.
चुनावी नतीजे आने के साथ ही जिस तरह की प्रतिक्रिया दिल्ली में दिखी, तब इसके महत्व को लेकर किसी के मन में गलतफहमी नहीं रही. कर्नाटक के महत्व को अपने आपमें कम नहीं माना जाना चाहिए. अगले साल के आम चुनावों से पहले जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें यही एक मात्र राज्य है जहां के लिए भविष्यवाणी करना आसान था और इतना साफ जनादेश आया. यही चीज इस चुनाव को विशेष बनाती है.
एक तरफ केंद्र सरकार रोज घिरती जा रही है, दूसरी तरफ कांग्रेस को मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली और झारखंड में कहीं भी जीत का पूरा भरोसा नहीं है. ऐसे में वह पराजयों से हतोत्साहित कार्यकर्ताओं की फौज के साथ मैदान में जाने की जगह जीत के उत्साह के साथ कई राज्यों की विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव मैदान में एक साथ उतर सकती है. और इस बीच जिस तरह से आर्थिक मोर्चे पर बुरी खबरों का आना घटा है, उसमें कर्नाटक का नतीजा अगर नये चुनाव कराने का अधार बन जाये तो हैरानी न होगी.
अब यह भी देखना होगा कि कर्नाटक की जीत कांग्रेस के उत्साहहीन नेताओं और कार्यकर्ताओं में कितना जोश फूंक पाती है, क्योंकि केंद्रीय मंत्रियों की काली करतूतों के उजागर होने और कानून से घिरते जाने का क्रम बंद नहीं हुआ है. इधर कर्नाटक के नतीजे पूरे आये भी नहीं थे, उधर सुप्रीम कोर्ट ने कोयला घोटाले को लेकर सख्त टिप्पणी की. इससे पहले रेल मंत्री पवन बंसल को लेकर नये खुलासे आ चुके हैं.
खाद्य सुरक्षा कानून बिल पेश कर सरकार ने जिस तरह विपक्ष को घेरने और अपनी सुरक्षा का इंतजाम करने का प्रयास किया था, वह भी सफल नहीं हो पाया. अब कांग्रेस कर्नाटक में सत्ता पाने के साथ कुछ सीख भी लेना चाहती है, तो यही सीख सबसे महत्वपूर्ण है कि लोग भ्रष्टाचार से ऊब गये हैं.
वे उसके भ्रष्टाचार को बर्दाश्त करेंगे, यह गलतफहमी कांग्रेस को नहीं होनी चाहिए. फिर यह संदेश पूरी राजनीति के लिए है कि चाहे जितना शोर नरेंद्र मोदी और राहुल का, कांग्रेस बनाम भाजपा का, दो ध्रुवीय राजनीति का मचे, पर आप तीसरे खेमे की राजनीति को भी खारिज नहीं कर सकते.